लोगों की राय

नारी विमर्श >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3745
आईएसबीएन :81-216-0178-9

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

426 पाठक हैं

शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण


परमतृप्ति

तब हम अपने पितामह के साथ अल्मोड़ा में रहते थे। हमारे पड़ोस में एक ईसाई परिवार रहता था। कभी उस घर के गृहस्वामी डेनियल पन्त से हमारा ननिहाल का रिश्ता था, किन्तु हमारे कट्टर सनातनी पितामह का कठोर आदेश था कि हम उस ओर कभी आँख उठाकर भी न देखें। हमारे और उनके घरों के बीच एक सामान्य-सी ऊंची दीवार की ही ओट थी, इसी से उनके बावर्चीखाने में नित्य पक रहे सालन की मदमस्त खुशबू बड़े धड़ल्ले से हमारे रसोईघर तक चली जाती और हमारे ठेठ सनातनी चौके में पक रहे दाल, आलू की सब्जी की सात्त्विकी निरीह सुगन्ध को पराजित कर, हमारे नथुनों में घुस, हमें विवेकभ्रष्ट कर उठती। हमारे लोहनीजी पचासों गालियाँ देते तड़के ही खिड़कियाँ-दरवाजे बन्द कर देते। फिर भी दरारों को कौन बन्द कर सकता था! उस परिवार के बच्चों से, हम लुक-छिपकर मिलते तो थे ही, कुछ रक्त का सम्बन्ध और कुछ उनके आजाद स्वच्छन्द जीवन ने हमें मैत्री की अटूट डोर में बाँध लिया था। चमचमाते जूते, धारीदार मोजे, वोटेंड की हाफ पैंट और बगुले के पंख-से कड़े कलॅफ किए गए कॉलर में सँवरी कमीज, टाई और विशिष्ट सज्जा में सँवारा बालों का झुग्गाधारी हेनरी मेरा प्रिय मित्र बन गया। उसकी बहनें ओल्गा, बेहद दुबली म्यूरियल (जिसे हम पीठ पीछे मरियल कहते थे। सन्ध्या होते ही बैमबर्ग ज्योर्जेट की साड़ियों में सजी-धजी अकेली ही घूमने निकलतीं तो हमारी छातियों में साँप लोट जाता। “क्या जिन्दगी है इनकी!" मेरा भाई कहता, “एक हम हैं, या ‘अमरकोश' या 'पिलग्रिम्स प्रोग्रेस' ...जानती है हेनरी, आर्थर रोज अंडा खाते हैं।"

"सच?"
 
"और क्या, रोज गोश्त बनता है।"

हेनरी पंत ने पुष्टि की, “बिना गोश्त के हमारे गले के नीचे गस्सा नहीं उतरता, तुम हिन्दुओं की तरह हम चरी-भूसा नहीं खाते...”

“यह क्यों भूल जाते हो हेनरी, कि तुम्हारे बाबा और हमारे नाना चचेरे भाई थे, कभी उन्होंने भी यही चरी-भूसा खाया होगा...” मेरे जवाबी हमले से हेनरी खिसिया गया और उसी खिसियाहट को मिटाने, उसने तत्काल वह उदार प्रस्ताव रखा, जिसने लगभग हमारे प्राण ही कंठगत कर दिए थे।

“देखो, तुम चाहो तो मैं तुम्हें अपने घर के लुभावने सालन को सँघने का इंतजाम कर सकता हूँ, किसी को कानोंकान खबर नहीं होगी।”

अपनी हाफ पैंट की जेब में हाथ डालकर वह बड़ी अकड़ की मुद्रा में, अपनी सींकिया देह को टेढ़ी कर खड़ा हो गया, “पर एक शर्त है, तुम्हें अपने अखरोट के पेड़ से चार-चार अखरोट मेरे लिए लाने होंगे। ठीक दस बजे हमारा खानसामा, 'भड्डू' (पतीला) में गोश्त भूजकर चढ़ा जाता है। फिर पकने तक परिंदा भी इधर नहीं फटकता। तुम अपने दाड़िम के पेड़ की डालें पकड़ किसी तरह दीवार की मुँडेर पर पहुँच भर जाओ। हमारे यहाँ चूना लगानेवाली सीढ़ीदार तिपाई है। मैं चट से लगाकर तुम्हें उतार लूँगा। पर शर्त याद रखना। चार अखरोट में एक ही बार सूंघने को मिलेगा।” उस उदार प्रस्ताव ने हमारे नन्हे दिल तो धड़का दिए, जो दिव्य सुगन्ध दूर से ही तैरती उतनी दुर्लभ लगती थी, उसे पास से सूंघने पर कैसा अनिवर्चनीय आनन्द आएगा उसकी कल्पना मात्र ही हमें हवा में उड़ाने लगी थी।

ठीक दस बजे ही भदकते भड्डू से निकली मदमस्त ख़ुशबू ने हमारे साहस को ललकारा और हम आठ अखरोट हाथों में छिपाकर, स्वयं लुकते-छिपते चाचा की ढालू छत पर चढ़ गए, फिर कैसे वे दाडिम की कमजोर डालें पकड़ीं, फिसलनी छत की ऊपर की ढलान को कैसे पार किया, स्वयं नहीं जान पाये। वह अद्भुत सुगन्ध पल-पल निकट आती जा रही थी और हम दोनों भाई-बहन छत पर खड़े थे। हेनरी ने पहले पूछा, “अखरोट लाये हो ना?"

"हाँ।”

और चट से सीढ़ी लगा उसने हमें उतार लिया।

एक अँगीठी पर भड्डू चढ़ा था और उसका ढकना ख़ुशबूदार भाप से उठता-गिरता हमारे कलेजों को भी उठा-गिरा रहा था।

"लाओ अखरोट,” हेनरी ने किसी कठोर सेनापति की अकड़ से रौबीले स्वर में आदेश दिया।

मैंने ही पहले उसकी हथेली पर चार अखरोट धरे।

“ले सूंघकर देख कुल एक बार, चार अखरोट में इतना ही सूंघ पाओगी...”

उसने पतीले का ढकना उठाया और मैंने आँखें बन्द कर, वह सर्वथा नवीन सुगन्ध दोनों नथुनों में भर कंठ में गटक ली।

वर्षों बाद, रियासती वैभव ने, हमें किसी भी आमिष स्वाद से वंचित नहीं रखा। जलमुर्गी, साम्भर, सुर्खाब, टर्की, कच्छप, तीतर, बटेर और कभी खासबाग से सील-मुहर लगा दस्तरखान, जिसके प्रत्येक व्यंजन को नवाब रामपुर की राजसी जीभ का स्पर्श करने से पहले मेरे पिता की जीभ का स्पर्श करना होता था। तब वे ही फिर सील-मुहर लगाते थे, हमने भी कई बार उन अपूर्व खानों को चखा था। पर जो परमतृप्ति; उस दिन न चखने पर भी उस भड्डू की भभक करा गई थी, वह शायद कभी नहीं भूल पाऊँगी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book