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नारी विमर्श >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3745
आईएसबीएन :81-216-0178-9

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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण


जन्मदिन



नव का स्वभाव है कि वह एक न एक दिन संसार की सर्वश्रेष्ठ वस्तुओं से भी ऊब जाता है। किसी भी प्रकार की एकरसता, चाहे वह साहित्य में हो या संगीत में, उसे उबा देती है। यही कारण है कि कभी-कभी गरिष्ठ स्वादिष्ट भोजन की अभ्यस्त चटोर जिह्वा भी भुने चने या सत्तू के लिए ललक उठती है। बहुत वर्ष पूर्व मैंने अपने पिता के एक विदेशी मित्र की, ऐसी ही निराभरण शैंटी देखी थी, जो बहुत कुछ अंश में, हमारी भारतीय झोंपड़ी का ही परिमार्जित रूप थी। मेजर व्हिटबर्न, ओरछा महाराज के उन मुँहलगे दरबारियों में थे, जिन्हें उनके उदार शासन ने रहने की प्रत्येक सुविधा उपलब्ध करा दी थी, किन्तु अपनी ही इच्छा से वे उस जेंटी में रहने चले आए थे। साधारण मिट्टी-गारे से बनी उन दीवारों में बियर की रिक्त बोतलें उलटी कर भीतर तक ऐसे भर दी गई थीं कि केवल उनका पिछला भाग ही दीवार पर, कलात्मक गोलाई से उभर आया था। कमरे की मेज-करसियों के स्थान पर बबूल, बरगद और आम्रविटी के मोटे तने धरे रहते थे, कहीं एक चिलम उलटी कर टाँग दी गई थी और कहीं दो सुप संयुक्त कर बनाया गया लैंपशेड! सम्भवतः वह इस युग का आदि डिसकोथिक था। उसे ही देखकर महाराज अपने किले के वैभव से भी ऊबने लगे और उन्होंने भी शहर से दूर एक शैंटी का निर्माण करवाया, नाम धरा 'बैकुंठी'। वैकुंठी की उस सादगी में भी राजसी आभिजात्य की सुस्पष्ट छाप थी, समृद्धि का गौरव। स्वेच्छा से ही वानप्रस्थी बन गए ओरछाधीश की विनयशीलता, एक अनजान अतिथि को भी पग-पग पर, स्वयं अवगत कर देती कि उस सहज परिवेश में रहने चला आया पथिक साधारण पथिक नहीं है, वह महलों का वासी रह चुका है, किन्तु आज हमारे महलों के वासी, कभी-कभी अपने ओछे आचरण, रुचि एवं व्यवहार से यह प्रमाणित कर देते हैं कि वे और जहाँ से भी आए हों, महलों से नहीं आए। थोथे चने की भाँति वे केवल घने ही नहीं बजते, टूटकर बिखरने पर, उनका घुनलगा खोखलापन, आँखों को आहत भी कर जाता है। इस प्रसंग में मुझे बचपन में सुना अपने पिता, और उनके एक भृत्य का वार्तालाप स्मरण हो आता है। लछुआ हमारे ग्राम कसून का ढोली था। विवाह, जन्म, जनेऊ के अवसरों पर उसे ढोल बजाने बुलाया जाता और अपनी ढमाढम थपेड़ों का नेग कमा वह फिर गाँव लौट जाता। मेरे पिता तब रामपुर नवाब के गृहमन्त्री थे। रियासती आचारसंहिता के अनुसार उन्हें साफा बाँधना पड़ता था। वे साफे जयपुर से मँगवाए जाते और कड़ी कड़क की गई कलफ में सधे वे साफे उन पर फबते भी खूब थे।

लछुआ ढोली एक दिन स्वामी के-से ही साफे बाँधने को ललक उठा। “हुजूर,” उसने हाथ बाँधकर कहा, “एक ऐसा ही साफा मुझे भी दे दिया जाए।"

“साफा तो मैं दे दूंगा लछुआ,' मेरे पिता ने हँसकर कहा, “पर सिर कहाँ से लाएगा?"

बात ठीक ही थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि साफे के साथ-साथ ऐसे सिर का होना भी आवश्यक है, जिस पर वह फब सके। आज, सिर कैसा भी क्यों न हो, यदि साफा है तो उसे बाँधा अवश्य जाता है, भले ही वह फूहड़ और बेमेल क्यों न लगे। नवीन समृद्धि, विजया के मद की भाँति, उसे ही अधिक बौरा देती है, जिसने उसे पहले कभी चखा न हो। वन्या के-से वेग में, इस नवीन समृद्धि की धारा, अपने स्वामियों को निरन्तर बहाती चली जाती है। जितना ही वेग आकस्मिक और प्रखर होता है, उतना ही भोंड़ा और खोखला प्रदर्शन होता है उनके नवीन वैभव का। ऐसा ही प्रदर्शन कभी-कभी चित्त को वितृष्णा से भर देता है। एक-एक लाख की लागत के बने शयनकक्ष, चाँदी के द्वार या पुत्री के विवाह पर वितरित किए ताम्रपत्री निमन्त्रण-पत्र, मधुयामिनी मनाने विदेश गई जोड़ी की उड़ान, नक्सास की चोर बाजार से खरीदे गए चार-चार हजार के झाड़-फानूस-इन सबमें नवीन समृद्धि की परिष्कृत रुचि मुखर नहीं होती। मुखरित होता है, उसकी समृद्धि का अश्लील भोंडापन। समृद्धि एवं आभिजात्य, वैभव एवं विनयशीलता एक-दूसरे के लिए सोने में सुहागे का-सा ही महत्त्व रखते हैं।

अभी कुछ वर्ष पूर्व नैनीताल में एक ऐसे ही नवीन समृद्धि से महिमान्वित परिवार की प्रतिवेशिनी बनने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ था। काशीपुर के पास उनका बहुत बड़ा फार्म तो था ही, पंजाब के एक प्रसिद्ध गुरुद्वारे के भी वे प्रबन्धक थे। बच्चे नैनीताल के अंग्रेजी स्कूलों में, कई वर्षों से, एक ही कक्षा में विशेष योग्यता प्राप्त कर रहे थे। मेरे अभागे सेब के पेड़ का शायद ही कोई सेब उनकी अचक निशानेबाजी से क्षत-विक्षत न हआ हो। बर्फ गिरती तो उनके 'स्नोबौल' की वर्षा से हमारा बाहर निकलना दूभर हो जाता, गुलेल के निरन्तर प्रहार से हमारी अधिकांश खिड़कियों के शीशे टूट चुके थे। तीनों बाल-दस्यु फर्राटे से अंग्रेजी बोलते, पूड़ी-पराँठों को भी छुरी-काँटों से विदीर्ण कर मुँह में रखते और निगरगंड बछड़ों की भाँति जिधर मन आता, उधर मुँह मारते निकल जाते। उनके जनक-जननी का अधिकांश समय बोट हाउस क्लब में बीतता, गृहस्थी बैरा-बटलर चलाते। प्रत्येक बैरे की वेशभूषा में, किसी फाइव स्टार होटल के बैरे की-सी त्रुटिहीन सज्जा रहती, वैसा ही साफा, वैसे ही चमकते मोनोग्राम। इस प्रभावशाली फौज के अतिरिक्त, अपने पेडिग्रीड कुत्ते के उल्लेखनीय कुलगोत्र का विशद वर्णन वे प्रायः ही मुझे सुनाती रहतीं।

एक दिन उनका रोबदार बैरा करीम अपनी वर्दी के चमकीले बटन चमकाता आया और मुझे एक कार्ड थमा गया। सुनहले अक्षरों में, एक अत्यन्त आकर्षक निमन्त्रण-पत्र पर, उनके प्रिय कुत्ते ज्यौर्जी के सातवें जन्मदिन पर, अपने कुत्ते को भेजने का सस्नेह आग्रह किया गया था। कुत्ते के साथ, मैं अपनी उपस्थिति से पार्टी को धन्य करूँ, ऐसी भी एक लुभावनी पंक्ति अंकित थी। दुर्भाग्य से मेरे पास कोई कुत्ता नहीं था, इसी से मैंने उनसे फोन पर ही अपनी असमर्थता प्रकट कर माफी माँग ली। बाहर लॉन पर उस भव्य आयोजन की भूमिका बाँधी जाती देखी, तो जीवन में पहली वार कुत्ता न पालने का दुःख हुआ। बड़ी-सी मेज़ पर दुग्ध-धवल चादर बिछी थी, बड़ी-बड़ी प्लेटों में, लुभावनी हड्डियाँ, बिस्कुट, मफिन सजाए जा रहे थे, केक की गुलाबी आइसिंग को, उत्तराखंडी डूबते रक्ताभ सूर्य की म्लान किरणें अपनी प्राकृतिक ‘आइसिंग' से और भी आकर्षक बना रही थीं। उधर लोहे की चेन से बँधा ज्यौर्जी, अपनी अधीर भौं-भौं से स्वयं अतिथियों को निमन्त्रित कर रहा था। एक-एक कर, नैनीताल की श्वानप्रिय बिरादरी, अपने-अपने दर्शनीय अतिथियों को चेन से बाँधकर पधारी। महाराज जींद के आकर्षक स्पैनियल, मदनलाल शाह के प्रसिद्ध पोमेरियन, फार्मवालों के कद्दावर ऐल्सेशियन, उधर अभागा मेज़बान, स्वामिनी की 'नो-नो' को अनसुनी कर, अपने उच्चकुल की महत्ता भूलभाल, नितान्त चौराहे के देसी कुत्ते के व्यवहार पर उतर आया था। स्पष्ट था कि उसे इस विभिन्न कुलगोत्र की बिरादरी की अगवानी पर घोर आपत्ति थी। संसार का कोई भी कुत्ता, चाहे वह कैसा ही शालीन क्यों न हो, क्या कभी अपने हिस्से की बोटी के उदार वितरण को मान्यता दे सकता है? उधर अतिथियों की भी सारी पेडिग्री बोटियों की सुगन्ध सूंघते ही न जाने किस आरक्षित छिद्र से बह गई। एक पल में ही जैसे महाप्रलय हो गया, अतिथियों ने स्वामियों को खींचा, स्वामियों ने अतिथियों को, उधर मेज़बान स्वामिनी को धकेल, मेज़ पर कूद, सजे केक पर आरूढ़ हो गया। प्लेटें टूटीं, हड्डियाँ बिखरीं, बैरे चीखे और भौं-भौं के समवेत स्वरों की गूंज चीनापीक से टकराने लगी। मैं अपनी खिड़की से यह सारा नाटक देख रही थी। पता नहीं, बेचारे ज्यौर्जी के विगत जन्मदिन कैसे बीते थे, पर वह जन्मदिन तो निश्चय ही ऐसा नहीं था कि कोई कहता, 'ईश्वर करे, यह दिन बार-बार आए!'

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