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नारी विमर्श >> एक थी रामरती

एक थी रामरती

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3745
आईएसबीएन :81-216-0178-9

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शिवानी के मन को छूते हुए संस्मरण


चन्दन



लिखने बैठती हूँ तो हठात् लेखनी की गति स्वयं ही अवरुद्ध हो जाती है। क्या वह, जो इतने वर्षों से मेरे साथ मेरे बेटे के-से ही जन्मसिद्ध अधिकार से लड़ता-झगड़ता, जिद करता आया है, जिसके तेज स्वर ने एक बार मुझे अपने पुत्र के ही सन्निपात ज्वर की भाँति दारुण चिन्ता में डुबाकर रख दिया था,
और मैं मनौती माँगकर भी निश्चिन्त नहीं हो पायी थी; जिसकी मेरे पड़ोसियों से आये दिन की झड़प, और सर्वोपरि जिसकी नाक पर दिन-रात बैठे रहने वाले असह्य क्रोध ने मुझे एक बार नहीं अनेक बार विवादास्पद उलझनों में डालकर रख दिया है-उसे मैं नौकर कह सकती हूँ?

मुझे आज भी वह दिन याद आता है, जब मेरा चपरासी खड़कसिंह इस नन्हें बालक को मेरे पास लाकर खड़ा कर गया था-“ले रे चन्दन, ये हैं तेरी नयी मेमसाहब, पैर छू इनके...”

हमारा तबादला लखनऊ हो गया था और खड़कसिंह से मैंने एक छोटा-सा नौकर लाने को कहा, तो वह अपने इस अनाथ भतीजे को ले आया था। “यह तो बहुत ही छोटा है! क्यों रे, वहाँ जाकर फिर तू घर के लिए रोयेगा तो नहीं?” मैंने पूछा।

“नहीं,” उसने अपने झबरे बालों को हिलाकर, अपनी उजली हँसी का समर्थन प्रस्तुत किया। हँसने पर उसके गालों में पड़े गढ़े और गहरे उभर आए। मेरे पति ने उसे इंटरव्यू में पास कर दिया- "बड़ा हँसमुख लड़का है, तुम्हें कभी धोखा नहीं देगा।"

“लाला के कॉफी हाउस में काम कर चुका है, सरकार। आप पूछ सकते हैं, बड़ा ईमानदार लड़का है।” खड़कसिंह ने कहा भी था। किन्तु उसकी निर्दोष हँसी में ही उसकी ईमानदारी का सजीव प्रमाण हमें मिल चुका था। मेरा पुत्र उसी का समवयसी था। इसी से पहले ही दिन से दोनों में खासा मेल हो गया। किन्तु फिर उसी दिन से, दोनों की वह मैत्री मेरा एक बहुत बड़ा सिरदर्द भी बन गई। मैं किसी भी काम के लिए चन्दन को पुकारती, तो मेरा पुत्र कठोर स्वर में मेरे आदेश की धज्जियाँ उड़ा देता, “चन्दन अभी नहीं आ सकता दिद्दी, हम क्रिकेट खेल रहे हैं।” या “मैं उसे साइकिल सिखा रहा हूँ।” या “हम पतंग उड़ा रहे हैं और वह मुझे छुटैया दे रहा है।” मैंने उसी दिन से इस कटु सत्य को स्वीकार कर लिया कि मुझे नौकर नहीं, मेरे पुत्र को एक साथी मिला था।

“क्यों रे, पढ़ना आता है तुझे?” मैंने एक दिन पूछा तो उसने फिर सिर हिला दिया–“नहीं।"

"नहीं!" मैंने बड़े आश्चर्य से पूछा। पहाड़ की साक्षरता तो प्रसिद्ध है तब यह कैसे अनपढ़ रह गया? रहस्योद्घाटन किया स्वयं बेटे ने!

“यह तख्ती लेकर पढ़ने तो गया था दिद्दी पर इसके मास्टर साहब ने इसे पहले ही दिन, बिना किसी बात के मुर्गा बना दिया। इसने खींचकर पाटी मास्टर के सिर पर ऐसे जोर से मारी कि दो टुकड़े हो गई।...शाबाश, बड़ा तेज है ये!" मेरे बेटे ने बड़े गर्व से अपने बहादुर साथी की पीठ थपथपायी। "तभी तो यह घर से भाग आया है,” फिर उसने हँसकर कहा। मास्टर की खोपड़ी पर पहाड़ी शीशम की मजबूत पाटी को पटक, शिवधनु की भाँति दो टूक कर देनेवाले मेरे पुत्र के इस दुःसाहसी साथी ने अब अपने इस अपूर्व दुष्कृत से उसका चित्त पूर्ण रूप से विजित कर लिया था।

“हाय राम, जब पाटी का यह हाल हुआ तो तेरे मास्टर की खोपड़ी का क्या हाल हुआ होगा रे?" मैंने सहमकर पूछा। वह हँसकर चुप रह गया।

मैंने उसी दिन उसका अक्षरारम्भ कर दिया और उसकी कुशाग्र बुद्धि का परिचय पा, दुगुने उत्साह से मैं उसे पढ़ाने लगी। आज वही चन्दन, जो कभी तस्वीर की किताब में बने शेर के चित्र पर उँगली धरने में सहमकर बड़े भोलेपन से पूछता था, “बाप रे बाप, गुलदार! कहीं मुझे खा जायेगा, तब?” अब सामान्य रूप से ललकारे जाने पर चिड़ियाघर के बब्बर शेर को भी बाहर खींच, कुश्ती लड़ सकता है। कभी जिसे मैं 'अ' से अजगर और 'आ' से आम सिखाने में पसीना-पसीना हो जाती थी, वह आज ‘दिनमान', 'धर्मयुग' ही नहीं, 'टाइम्स', 'लाइफ' और 'मैड' को भी चटखारे ले-लेकर पढ़ता है, तो मुझे सचमुच ही अपनी अध्यापन-प्रतिभा पर गर्व होता है। मेरे पुत्र के मित्र उसके भी मित्र हैं और जब कभी उससे मिलते हैं, तो "हैलो बॉस!” कहकर उसे पुकारना नहीं भूलते; और वह भी उसी अन्दाज से हाथ हिला-हिलाकर एकदम अमरीकी मीड़ खींच, प्रत्युत्तर देता है-“हा-य!”

गत वर्ष जन्माष्टमी को कुश्ती-दंगल देखने की अनुमति माँगने वह मेरे पास आया, तो मैंने कुछ शंकित होकर ही उसे अनुमति दी थी-“देख, किसी से लड़ना-भिड़ना नहीं।” अपनी हँसी से मुझे आश्वस्त करके ही वह गया था। दंगल हमारे घर से कोई दस गज के फासले पर लगता था। दूर-दूर से पहलवान आते थे और कुश्ती-प्रेमी जनता की भीड़ देखते-देखते ही अहाता घेर लेती थी। वहाँ के माइक में बोले गए विजयी वीरों के नाम हमारे बरामदे में भी गूंजते थे। “पहाड़ी पहलवान सर्वप्रथम” की घोषणा हमने भी सुनी, किन्तु तब यह सम्भावना दिमाग में भी नहीं आयी कि यह वीर घटोत्कच हमारा चन्दन भी हो सकता है। जब वह आया, तो मैंने पूछा, “वह पहाड़ी पहलवान कौन था रे?"

गर्वीली-लजीली मुस्कान के साथ उसने नम्र स्वर में कहा, “वह तो मैं ही था जी!”

“तू?" मैंने अविश्वास से पूछा, “पर तुझे कुश्ती किसने सिखाई?"

“किसी ने नहीं। वहीं पर मैं खड़ा था। अखाड़े में लड़ रहे एक पहलवान को गिरते देख हँसा, तो उसने मुझे ललकार दिया, 'तमाशा देखने आए हो, इसी से हँस रहे हो, अखाड़े में कूदो तो जानें!...''

बस फिर क्या था, ऐसी चुनौतियाँ स्वीकार करने को ही विधाता ने इस अलौकिक व्यक्तित्व की सृष्टि की है! बारह आने में वहीं पर एक लाल लंगोट खरीदा और उत्तर दिया प्रतिद्वंद्वी को पटककर। उदारता ऐसी कि पुरस्कार में मिली धनराशि भी वहीं प्रशंसकों में वितरित कर अपनी मूंछों पर ताव देते घर लौट आए।

कुछ ही महीनों पूर्व इससे भी अधिक दर्शनीय एक कुश्ती देखने का सौभाग्य मुझे भी हुआ था। हम नैनीताल गये थे। मेरी बहन के अहाते में एक उदंड-उन्मत्त वृषभ ने अपने आतंक से लोगों को बुरी तरह सहमा दिया था। कभी स्कूल जा रहे किसी बालक को सींगों पर उछाल देता, कभी अकारण ही पूँछ उठा अस्पताल के किसी वार्ड-ब्बॉय को खेतों में पटक देता। उसकी हुंकार सुनते ही द्वार पटापट बन्द कर दिए जाते और भीतर से ही पत्थर मार-मारकर उसे भगाया जाता। एक दिन एक विचित्र जवाबी हंकार से हमने चौंककर देखा कि चन्दन उसी क्रोधी साँड़ से भिड़ा हुआ, बार-बार उसे सींग पकड़कर पीछे ढकेल रहा है और उतनी ही बार क्रोधी नथुनों से झाग की पिचकारियाँ छोड़ता वह साँड़ सिर झुकाए, पूरी शक्ति से उसका पेट चीरने चला आ रहा है। भय से मेरा रक्त जम गया। निश्चय ही आज यह साँड़ इसका पेट चीरकर रहेगा। देखते-ही-देखते उस अपूर्व कुश्ती को देखने भीड़ जुट गई, “अरे वाह रे ठाकुर के बच्चे!...शाबाश मेरे वीर, असली कुमय्याँ ठाकुर है बेटा!' आदि भाँति-भाँति की उल्लसित गर्जनाओं से गिरि-कन्दराएँ गूंजने लगीं।

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