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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


“अरे कक्का , सरोज जा रही है और आप यहाँ बैठे हैं! इतने उदास क्यों हैं? अब तो इतना सुन्दर दामाद घुटने टेक, नाक रगड़ आपकी सरोज को ले जा रहा है।"

“जानता हूँ, जानता हूँ बेटी," उन्होंने करुण हँसी हँसकर कहा, “इसी से तो डर रहा हूँ। हमारे पहाड़ में कहावत है न कि बहुत हँसने के बाद बहुत रोना भी पड़ता है। डरा मन है मेरा, एक बार धोखा खा चुका हूँ। तब भी इन लोगों ने हमें पान के पत्ते-सा ही फेरा था। हमारे पहाड़ में जब कन्या विदा हो जाती है तो अन्तिम गीत गाया जाता है-जुहरा गीत। सुना है कभी? आज लग रहा है, कहीं दूर छिपी सरोज की इजा वही गीत गा रही है :

"कोयेऊ जुहरा हारि आयो
कोयेऊ जुहरा जीति लायो
जनक जुहरा हारि आयो
दशरथ जुहरा जीति लायो!

“कोई जुआ जीत आया है और कोई हार आया है, आज सचमुच मैं बुरी तरह हार गया हूँ बेटी! सोचा था, उन अन्यायियों की देहरी अब सरोज को प्राण रहते लाँघने नहीं दूंगा, शिखा में गाँठ लगाकर ब्राह्यण की शपथ खाई थी मैंने, पर आज मेरी ही बेटी मेरी शिखा की गाँठ खोल गई।"

"छिः, कैसी बातें कर रहे हैं आप! आपको तो खुश होना चाहिए-"

"कैसे खुश हो सकता हूँ मैं? पति के सामने वह जन्मदाता जनक को नीचा दिखा गई-कौन-सा सुख नहीं दिया था हमने उसे?"

"हो सकता है, आपने अपनी सामर्थ्यानुसार उसे सब सुख दिया हो, आजादी दी हो पर वह न पूरी तरह सुखी थी, न आजाद..."

“अच्छा, तो आपको हमारे घर की जानकारी हमसे कुछ ज्यादा ही है, क्यों? यह तो बड़ी अच्छी बात है।" व्यंग्य से अपने पतले क्रूर ओठों को तिर्यक कर हँसती नलिनी ने कहा। न जाने कब से पर्दे की ओट में खड़ी वह सब सुन रही थी।

"देखिए,” फिर वह ससुर की ओर बड़ी अवज्ञा से पीठ फेर कालिंदी के सामने तनकर खड़ी हो गई-“जहाँ तक मुझे पता है, आपका-हमारा कोई दूर का दस-दिनी बिरादरी रिश्ता भी नहीं है और मैं सोचती हूँ, ऐसे में आपका हमारे यहाँ ऐसे बिन बुलाए आना एकदम उचित नहीं था। हमारी घरेलू समस्या थी, हम खुद सुलझा लेते, आपने सरोज को न भुकाया होता तो क्या उसकी यह हिम्मत होती?"

“कैसी हिम्मत? अपने पति के साथ जाने की?" कालिंदी का तीखा स्वर, बाहर तक चला गया, “आप सब जानते हैं कि सरोज अपने पति के साथ जाना चाहती थी, किसी ने उसे नहीं भड़काया। रही आपकी-हमारी बिरादरी रिश्ते की बात सो रिश्ता केवल रक्तमांस का ही नहीं होता, एक रिश्ता और भी होता है बिना रक्तमांस का और कभी-कभी यह रिश्ता पहले रिश्ते से भी अधिक निःस्वार्थ होता है, अधिक मजबूत! मेरा सरोज का यही रिश्ता था।"

फिर बिना उसके प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा किए वह तीर-सी निकल गई थी। दोनों घरों के बीच हाथ भर ही का तो व्यवधान था। बरामदे में बैठे मामा अखबार पढ़ रहे थे, उन्होंने एक बार आँखें उठाकर उसे देखा, फिर अखबार तान लिया। अन्नपूर्णा की रुष्ट मुखमुद्रा देख वह समझ गई, उसने सब बातें मन ली हैं। मामी धूप में सूख रहे धनिये को अकारण ही बीनने का उपक्रम करने लगी। किसी ने उससे न कुछ पूछा, न वह बोली। कमरे में जाकर धडाम से द्वार बन्द कर चुपचाप पलंग पर लेट गई। सरोज का अभाव उसे पहली बार बुरी तरह खटका। उसे लगा, वह सर्वथा परित्यक्ता और अकेली रह गई है-पहले वर्षों की प्रिय सखी माधवी छूटी और अब संक्षिप्त परिचय में ही अत्यन्त प्रिय वन उठी दूसरी सरला सहचरी सरोज! न वह अब किसी पर पूर्णतया निर्भर ही रह गई है, न पूर्णतया स्वाधीन। उसे इतनी भी स्वतंत्रता नहीं रही कि वह अन्याय के प्रति अपना स्वतंत्र मत प्रकाश कर सके! आखिर कौन-सा ऐसा अपराध हो गया था उससे जो घर भर ने उससे अवोला लगा लिया है?

दिन-भर वह बिना कुछ खाए-पिए कमरे में पड़ी रही। मामी के बार-बार बुलाने पर भी जब वह नहीं उठी तो मामा ही न जाने कब दबे पाँव आकर उसके सिरहाने खड़े हो गए थे। दीवार की ओर मुँह किए, कालिंदी ने उनके आने की आहट नहीं सुनी।

“क्या बात है चड़ी?” स्नेह विगलित कर-स्पर्श ने उसे चौंका दिया। “सरोज के जाने का बहुत बुरा लग रहा है क्या? चल उठ, खाना खा ले, सब तेरे लिए रुके हैं।"

वह चुपचाप उठी और विना किसी से बोले, एक-दो कौर खाकर, फिर अपने कमरे में चली गई।

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