नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
सरोज ने दिल्ली जाकर उसे पत्र लिखने में विलम्ब नहीं किया। पत्र के अक्षरों
को मिटा, स्वयं सरोज ही जैसे मुस्कराती उसके सामने आकर खड़ी हो गई थी। वह
बेहद खुश थी। बार-बार उसने एक ही बात लिखी थी : “तुम्हें बता नहीं सकती दीदी,
ये मुझे कितने लाड़-दुलार से सिर पर विठाए जा रहे हैं, अपना सुख देखकर मैं
काँपी जा रही हूँ-कहीं ऐसा न हो, विधाता फिर सूप उलट दे! एक तो हवाई जहाज के
नाम से ही मेरी डर से जान निकली जा रही है-पता नहीं, कैसे बैठ पाऊँगी निगोड़े
जहाज में! तुम्हें एक खुशखबरी और दे दूं, इन्होंने अपनी माँ से लड़-झगड़ मेरा
सारा गहना धरवा लिया। यही नहीं, गहना मिलते ही, उन्होंने अपने हाथों मुझे
पहना, यह तस्वीर खींची है, तुम्हें भेज रही हूँ। इनके पास ऐसा कैमरा है,
दीदी, जो उसी वक्त तस्वीर खींच चट से उगल देता है।"
कालिंदी देर तक उस तस्वीर के आनन्दी चेहरे को देखती रही थी। कौन कहेगा, यह
वही सरोज है? कामदार लहँगे पर लाल बुंदकीदार दुपट्टा, कानों में भारी झुमके,
कंठ में टीप, हाथों में चूहादन्ती पहुँची, पैरों में पाजेब, ठीक जैसे दीनदयाल
के प्राचीन संग्रहालय से उठाई गई किसी लजीली किशोरी की तस्वीर ही किसी ने
उठाकर रख दी हो! सरोज का उल्लास, फिर स्वयं कालिंदी का उल्लास बन गया था। एक
दिन पहले की सारी मनहूसियत, उसके पत्र ने धो-पोंछकर बहा दी थी। शायद अब वह
सरोज को कभी नहीं देख पाएगी। दिल्ली के बनावटी परिवेश, परिचितों की कुटिल
प्रवंचना के बाद सरोज का सरल सान्निध्य उसे पर्वत फोड़कर निकले पहाड़ी
निर्झर-सा ही स्वच्छ अमृतोपम लगा था।
रात को सब काम निवटा अम्मा उसके साथ ही पलंग पर लेट गई। पहले बड़ी देर तक
माँ-बेटी में से एक भी नहीं बोली, फिर अन्ना ने ही हाथ बढ़ाकर अँधेरे में
कालिंदी का ललाट टटोल, हथेली रख दी।
"क्यों री, क्या तबीयत ठीक नहीं है?"
कालिंदी चुप रही। अकारण ही अम्मा ने मुँह फुला लिया था, इस बात को वह भूली
नहीं थी।
"देख चड़ी, मैं जानती हूँ, तुझे मेरा टोकना बुरा लगेगा, पर आज तेरा वहाँ जाना
ठीक नहीं था। कौन नहीं जानता उस लड़ाका परिवार को! इसी सरोज के दादा, कभी
यहाँ लड़कियों के स्कूल में, बेंहगी लगाकर आलू की चाट बेचते थे-एकदम दरिद्र
परिवार था। इसके बाप-चाचा सब ही तेरे मामाओं की उतरन पहनकर बड़े हुए हैं।
ब्रह्मदत्त सरकारी नौकरी में क्या आए कि हवा में उड़ अपनी औकात भूल गए! उस पर
वह तीन कौड़ी की नलिनी तुझसे क्या-क्या कह गई! न तू वहाँ जाती, न हमें यह सब
सुनना पड़ता।"
कालिंदी वैसी ही चुपचाप पड़ी रही।
इस बार अम्मा ने बड़े स्नेह से उसकी पीठ पर हाथ फेरा।
"मैं जानती हूँ, सरोज बहुत भली लड़की है, पर वह कितनी ही भली क्यों न हो, इस
परिवार का ओछापन कभी जाएगा नहीं। मैं जानती हूँ, तुझे उसके बिना बुरा लगेगा।
हर वक्त तो तेरी छाया बनी डोलती थी, पर एक न एक दिन तो उसका-तेरा साथ छूटता
ही चड़ी! आज देबू कह रहा था, इस बार तुझे अपनी ननिहाल ले चलेंगे-चलेगी?"
"अभी सोने दो अम्मा, कल देखेंगे।"
अनपूर्णा की ननिहाल जिस ग्राम में थी, वहाँ का मार्ग अब उतना दुर्गम नहीं था।
विवाह के बाद अन्ना वहाँ फिर कभी नहीं जा पाई। मन में एक अदम्य इच्छा उसे
बार-बार वहाँ जाने को ठेलती थी। अभी भी उस सुन्दर गाँव की स्मृति उसे किसी
स्वप्न-स्मृति-सी ही विह्वल कर उठती। कभी उसके नाना के पूर्वज कन्नौज से आए
थे। नानी ने ही उन्हें बताया था-"दूजे शुक्ल ब्राह्मण थे हमारे पुरखे।" नानी
चारों भाई-बहनों को अपनी रजाई में घुसाकर अपने प्रख्यात पूर्वजों का इतिहास
सुनाती-“वद्रीनाथ की यात्रा करने गर्भवती पत्नी को लेकर निकले थे। प्रकांड
विद्वान तो थे ही, उतने ही सिद्ध गणक भी थे। गंगोली पहुँचे तो माणीकोट के
राजा ने बड़े आदर से अपने महल में ठहराया, वहीं जोशीमठ में उनका एक अत्यन्त
रूपवान पुत्र हुआ-रमाकान्त। वे स्वयं विद्वान ब्राह्मण थे पर जबान तुतलाती
थी, इसी से 'लाटो जोशी' यानी 'गूंगे जोशी' कहलाए। यही गाँव उन्हें जागीर में
मिला और 'ललौटी' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी ललौटी के जोशी हैं तुम्हारे
नाना।"
अम्मा के ममेरे भाई पिरीममा उन्हें बस स्टैंड पर लेने आए थे। अम्मा की ननिहाल
में अब एक वे ही बचे थे। वयःभारनमित उस सरल निपट देहाती-से व्यक्ति की दरिद्र
जीर्ण वेशभूषा देख, कालिंदी को विश्वास ही नहीं हुआ कि इतनी ठंड में भी कोई
इतने विरल वस्त्रों में जाड़ा काट सकता है। उनके दोनों पुत्र बहुत पहले ही
गाँव छोड़कर जा चुके थे। न जाने कितनी बार वे अन्ना से एक बार ननिहाल आने का
आग्रह कर चुके थे, कालिंदी को तो उन्होंने कभी देखा भी नहीं था।
तीखी चढ़ाई पार कर वे पहुंचे तो अन्नपूर्णा ननिहाल के खंडहर को देख रो पड़ी।
हाय, कैसी दुरवस्था हो गई थी घर की! कौन कहेगा, कभी यहाँ उसके जागीरदार नाना
रहते थे! छत की बल्लियाँ वटप्ररोह-सी नीचे झूल रही थीं, चूल्हे पर एक
टिट्टर-सी केतली में पानी खदक रहा था।
“तुम्हें लेने गया तो चाय का पानी चढ़ा गया था रे देवी, जिससे आते ही तुम्हें
चाय तो पिला ही सकूँ।...अरी अना, धन भाग जो आज तुम सब इतने वर्षों में अपने
मालाकोट (ननिहाल) तो आए। क्या करूँ, ऐसा दरिद्र है री तेरा भाई-एक तो घर में
औरत नहीं, उस पर आँखों में भी मोतियाबिन्द उतर आया है। अब कभी यहाँ आँख का
कैम्प लगे तो ऑपरेशन करवा "क्यों, क्या धीरू-गीरू नहीं आते कभी छुट्टियों
में?"
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