नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
दूसरे दिन डेढ़ बजे की बस से, बड़े आडम्बर से सही, सरोज पितृगृह से विदा हुई
थी। कालिंदी ही उसे तैयार करने आई है, देख सरोज की भाभी का मुँह लटक गया था।
क्या वह तैयार नहीं कर सकती थी सरोज को? अल्मोड़ा में जहाँ किसी कन्या का
विवाह होता, उस घर की बहू-बेटियाँ बड़े आग्रह से उसे कन्या को सजाने बुला ले
जातीं। एक तो सरोज की नलिन बोंज्यू (भाभी) के पास आँखों को बनाने की तूलिका
से लेकर नाखून रंगने की लाली तक विदेशी थी। वह अपनी वह मंजूषा परम औदार्य से
साथ लेकर जाती और सौभाग्याकांक्षिणी कन्या का रूप ही ऐसे आपादमस्तक बदल डालती
कि एक क्या, दस-दस नौशे झूम उठे। देखते ही देखते घर-भर की बहू-बेटियाँ उसे
घेरकर बैठ जातीं, जैसे मदारी तमाशा दिखा रहा हो!
"ओ नलिन बोज्यू, थोड़ा हमें भी, थोड़ा हमें भी।"
"चल हट, ये क्या कोई मेहँदी है जो दुलहन के साथ-साथ सारी हथेलियाँ रचा दूँ?"
वह बड़े गर्व से मुस्कराकर कहती, “वह तो हर बार बेचारे नानदा, मेरे लिए विदेश
से ले आते हैं, यहाँ ऐसी चीजें थोड़ी ना मिलती हैं। इस बार दो नाइटी भी लाए
हैं, कार्डिगन तो सात हो गए हैं मेरे पास। कान के दो बुन्दे भी लाए हैं।
देखना, कल बारात में पहनकर आऊँगी-ठीक वैसे ही, जैसे मार्गेट थैचर पहनकर आती
हैं टी.वी. में।"
बेचारी भोली पहाड़ी लड़कियों का मुँह आश्चर्य से खुला ही रह जाता।
कैसी भाग्यशालिनी थी नलिन बोज्यू! एक दिन सरोज भी, उन अप्सरा दुर्लभ
कर्णफूलों को माँगने की धृष्टता कर बैठी थी। उस बेचारी का गहना तो उसकी खूसट
सास ने दबाकर धर लिया था।
"मेरा क्या, मैं तो दे दूँगी, पर पहनकर दिखाओगी किसे? तुम्हें रखने वाला अब
क्या कभी हिन्दुस्तान लौटेगा? मेरे नानदा कहते हैं, वहाँ कोई भी हिन्दुस्तानी
सच्चे अर्थ में ब्रह्मचारी नहीं रह सकता। बीचखूच, कान में जनेऊ डाल एक-आध
जनानी वोटी चवा ही लेता है।"
"तुम्हारे नानदा भी?” उस दिन कभी न बोलनेवाली सरोज ने भी जवाबी टक्कर दे ही
दी थी।
भाभी का वह कुँआरा अँगा भाई, वर्षों से विदेश में था। न जाने कितनी वार वह
सरोज के रिश्ते के लिए भाभी के पैर पकड़ चुका था पर जिस गृह में बेटी दी हो,
उस गृह से क्या कभी कोई पहाड़ी संस्कारी गृहस्वामी बहू ला सकता था? उस पर
सुन्दरी ननद ने अहंकारी नलिन का, जो आज तक अपने को पहाड़ की अप्सरा समझती थी,
समस्त गर्व चूर्ण कर दिया था, "नहीं रे नानदा, वह तेरे लिए एकदम अनमेल जोड़ी
सिद्ध होगी। तू ठहरा साहबी तौर-तरीकेवाला, वह तो ठीक से अंग्रेजी भी नहीं बोल
पाती-एम. ए. कर लिया तो क्या हुआ!"
स्वयं उसे अपने नैनीताल के रैमनी कॉन्वेंट की प्राक्तन छात्रा होने का बडा
घमंड था-चाहे वहाँ उसकी प्रारम्भिक शिक्षा का एक वर्ष भी पूरा नहीं हो पाया
था कि पिता की बदली उत्तरकाशी हो गई थी। पर जो हो, उसकी जिहवा में सरस्वती तो
पहले-पहल काला झब्बाधारी गोरी नन्स ने ही अंकित की थी। आज उसी सरोज के
सुदर्शन दूल्हे को देखा तो कलेजे पर केवटा साँप लौट गया। कैसा बाँका जवान था!
एक उसका पति था बोदा ब्रह्मदत्त! जैसा ही नीरस नाम, वैसा ही स्वभाव। जब देखो
तब पलंग पर बड़े फूहड़ अन्दाज में दोनों पैर एक-दूसरे से बाँधे, झूला-सा
झूलता। न ढंग से कपड़े ही पहनने का शऊर था, न सभ्य समाज में उठने-बैठने का।
आधुनिका पत्नी को प्रसन्न करने कभी दबे स्वर में उसे डार्लिंग अवश्य कह डालता
पर उसी क्षण, बरामदे में टहलते पिता पर नजर पड़ जाती या सरोज की झलक दिख जाती
तो ऐसे जीभ काट लेता, जैसे बुजुर्गों की उपस्थिति में पत्नी को माँ-बहन की
गाली दे दी हो! और एक यह सरोज थी जिसने अन्धी होकर भी बटेर को फाँस ही लिया
था।
सरोज तैयार होकर बाहर निकली और झुककर उसने पिता के पैर छुए तो उन्होंने उसके
सिर पर हाथ धरा, मुँह से बोल नहीं पाए। पुत्री की इस विदा का क्षण, उन्हें
पहली विदा के क्षण से भी अधिक दुर्वह लग रहा था।
कालिंदी ने उसकी लाल बनारसी साड़ी का नन्हा-सा घूघट निकाल दिया था, पतली नाक
की गढ़न पर हीरे की कनी रह-रहकर दमक रही थी। पति के साथ ससुराल जाने का
उल्लास गोरे चेहरे पर अंगराग बनकर बिखर गया था-देशी-विदेशी किसी भी सज्जा की
गुंजाइश ही कहाँ थी! जाने कब स्कूल में कालिंदी ने पद्यगरिमा में एक कविता
पढ़ी थी, वही जैसे साकार मूर्तिमान खड़ी थी :
रंग लाल रूप लाल
अधर अधिक लाल
दृगन बीच कोरे लाल
डोरे लाल झलकैं!
मुहल्ले-भर की भीड़ उसे विदा देने द्वार घेरे खड़ी थी। कालिंदी चुपचाप भीतर
चली गई। उसने देखा, तख्त पर सरोज के बाबू चुपचाप अकेले बैठे हैं।
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