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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


कालिंदी ने जैसे उसकी बात ही नहीं सुनी, वह एकाएक तनकर नवागंतुक अतिथि के सामने खड़ी हो गई थी, “सुनिए, क्या आप सचमुच ही सरोज को अपने साथ ले जाने आए हैं?"

“जी हाँ, पर क्षमा करें, मैं आपको शायद ठीक से पहचान नहीं पा रहा हूँ।''

उसने कहा तो कालिंदी हँस पड़ी, और वह मुक्तोज्ज्वल हँसी भला संसार के किस पुरुष को नहीं बाँध सकती थी, “आप मुझे पहचानेंगे भी कैसे-न पहले कभी आपने मुझे देखा है, न मैंने आपको! सरोज मेरी सहेली है और हम पड़ोसी भी हैं-मेरा नाम कालिंदी है। सुनिए, सरोज आपके साथ ही जाना चाहती है, यह मैं जानती हूँ। कोई कुछ भी कहे, आप किसी की बात न सुनें, अपने मुँह से शायद यह कभी आपसे कुछ नहीं कह पाएगी।"

कृतज्ञ विस्मय-विमुग्ध दृष्टि से वह कालिंदी के पार्श्व में सिर झुकाए सरोज को जैसे पहली बार देख रहा था। पांडुर चेहरे को रक्ताल्पता ने विवर्ण भले ही बना दिया हो, भोली-लजीली चितवन से लेकर चिड़िया के चंचु-से नन्हे अधरों की बनावट में अभी भी अक्षत कौमार्य का वही चुम्बकीय आकर्षण था, जो उसे तीन ही दिन के साहचर्य में उसका दासानुदास बना गया था। तीखी नाक पर चमकती हीरे की इसी लौंग में तो एक बार उसके कंठ की जनेऊ उलझ गई थी और कितनी जोर से हँसने लगे थे दोनों। उस सरस क्षण में विष घोलने, बन्द दरवाजा थपथपाते आ टपकी अम्मा ने कैसे सब गुड़-गोबर कर दिया था!

“यह कोई तरीका है हँसने का? घर मेहमानों से भरा है-कोई सुनेगा तो क्या कहेगा कि कैसी बेहया वहू आई है जो आधी रात को ऐसे ठहाके लगा रही है!"

आज उन रसीले अधरों का सामीप्य, उसके धड़कते हृदय को वार-बार जिह्वान पर लिये आ रहा था। जी में आ रहा था, वहीं उसे टप्प से उठाकर मुँह में धर ले। इतनी सुन्दर क्या वह पहले भी थी?

“नहीं,” सरोज के पिता का कठोर स्वर, सहसा हथौड़े की चोट-सा बज, उसके अधीर उत्साह को ठंडा कर गया, “यह एक बार वहाँ गई तो कभी जिन्दा नहीं लौटेगी, यह मुझे पता है। कितना अपमान सहा है मैंने इसके लिए, कैसे-कैसे तानों से मुझे बींधा है समाज ने! लोगों ने मेरी ही लड़की को वदनाम किया कि कोई खोट होगा लड़की में, तब ही तो पटक गए, इत्ती सी बात में कोई बहू को मायके नहीं पटक जाता! मैं पूछता हूँ, क्या इसने अपने ससुर को जहर दिया था या उनका गला घोंटा था?"

सरोज भयचकित दृष्टि से कभी उग्र पिता के तमतमाए चेहरे को देख रही थी तो कभी सिर झुकाए खड़े पति को!

"देखिए, अब जो हो गया, उसे भूल जाइए। सरोज इनके साथ जाना चाहती है, वह बालिग है, आप उसे नहीं रोक सकते।"

वहीं पर खड़ी शीला आश्चर्य से उसे देखने लगी। यह शान्त लड़की तो कभी किसी के झगड़े में ऐसे दखल नहीं देती थी!

"चड़ी, चल, हम घर चलें, तेरे मामा आ गए होंगे!" उसने धीमे से कालिंदी का हाथ पकड़कर खींचा।

"नहीं, तुम जाओ मामी, मैं थोड़ी देर में आऊँगी।"

तब ही, पिता के सामने सदा पीपल के पत्ते-सी थरथरानेवाली संकोची सरोज गजब कर बैठी। वह वन्यहिरणी-सी छलाँग लगा, एक पल में सिर झुकाए खड़े पति के पास जाकर खड़ी हो गई, "मैं अभी चलूँगी आपके साथ, यहाँ एक पल भी नहीं रहूँगी।"

सहसा पुत्री का वह रौद्र रूप देख उसके पिता भी सहम गए, “कैसी बातें कर रही है चेली, हम क्या तेरे दुश्मन हैं जो तू बृहस्पति के दिन मायके से जाएगी? अरी बीपै के दिन मायका छोड़कर गई पार्वती भी कभी मायके नहीं लौट पाई थी।” उनका गला रुंध गया, “मैं तो तेरे ही भले के लिए कह रहा था पगली, तू भी तो पढ़ती रहती है अखबारों में। आजकल ससुराल वाले ऐसे ही फुसलाकर ले जाते हैं, फिर बाप को जली बेटी की लाश भी नसीब नहीं होती।"

पुत्री का सम्भावित वियोग उन्हें सचमुच ही बुरी तरह विचलित कर गया था। उनकी सफेद मूंछे, काँपते ओठों के साथ-साथ काँपने लगी थीं।

"मुझे माफ कर दो बेटा!” इस वार वे सहसा दीन-हीन याचक बने दोनों हाथ बाँधे दामाद के सामने खड़े हो गए, “मेरा दिमाग कभी-कभी मेरा उच्च रक्तचाप खराब कर जाता है। क्या करूँ, एक तो लोगों की बातें सुनते-सुनते थक गया हूँ। किसी हितैषी इष्टमित्र की बात का भी मैं अब विश्वास नहीं कर पाता। तुम्हारी चीज है, तुम्हारा पूरा हक है इसे ले जाने का। पर आज नहीं, एक दिन का समय और दे दो, आखिर यही तो 'दुर्गुण' (द्विरागमन) है इसका, ऐसे अवसर पर तो पहाड़ का दरिद्र बाप भी अपनी बेटी को बिना पाँच बर्तन, नया जोड़ा, पकवान-मिठाई के विदा नहीं करता।"

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