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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


"तेरा कलेजा तो हमेशा ही धड़कता रहता है सरोज, इसमें पिछवाड़े की खिड़की से कूदने की कौन-सी आफत आ गई थी?"

मजाक छोड़ो दीदी, तुम मेरे वावू को नहीं जानतीं क्या? जरूर कोई अडंगा लगा देंगे। मुझे सारा डर भाभी का है, वह तो अच्छा है, घर पर नहीं हैं, कॉलेज गई हैं।"

"क्यों, भाभी क्या कर लेंगी?"

"क्या नहीं कर लेंगी, यह पूछो दीदी! मैं चली गई तो उन्हें बिना दाम की 'भनमजुवा' (वर्तन मलनेवाली) कहाँ मिलेगी? तुम जाओ दीदी, प्लीज!" वह उसे रुआंसी होकर टेलने लगी।

“पागल हो गई है क्या? मैं वहाँ जाकर क्या करूँगी? मैंने तो दूल्हे को कभी देखा भी नहीं है। तू खुद क्यों नहीं जाती, जाकर साफ-साफ कह दे कि हाँ, मैं चलूँगी-बस।”

"मैं क्या तुम्हारी-सी हिम्मती हूँ दीदी।” उसकी शरबती आँखों में विवशता के आँसू छलक आए, “मैं तो उनके सामने कभी बात भी नहीं कर पाती हूँ, हकलाने लगती हूँ।"

“क्या बात है सरोज? इतना घबड़ाई हुई क्यों लग रही है?" शीला पर्दा खोलकर खड़ी हो गई।

"देखो तो मामी, इसका पागलपन," कालिंदी ने हँसकर कहा, “चल, उठ, में चलती हूँ तेरे साथ, अभी फैसला कर आती हूँ।"

“कैसा फैसला? आखिर हुआ क्या है री चड़ी?” शीला आश्चर्य से मुँह लटकाए खड़ी सरोज को देख रही थी।

“इसका दूल्हा इसे लेने आया है मामी।"

“अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी खबर है। इसमें रोने की क्या वात आ पड़ी? क्या तू उसके साथ नहीं जाना चाहती?"

“नहीं मामी, यह जाना चाहती है, पर डर रही है कि कहीं इसके बाबू और भाभी भाँजी न मार दें।"

"उठ, चल हमारे साथ।” शीला ने उसका हाथ पकड़कर खींच लिया, "देखू, कौन रोकता है तुझे!"

दो-दो व्यक्तित्वसम्पन्न महिलाओं को सरोज के साथ आते देख वह पाहुना चौंका, कहीं उस सबक सिखाने तो सरोज अपनी महिला फौज नहीं ले आई? वह सकपकाकर खड़ा हो गया और उसने दोनों हाथ जोड़ दिए। सरोज का दूल्हा वास्तव में ठसकेदार था। हाथ की ओमेगा घड़ी से लेकर पैर के जूतों की चमक तक में कहीं कोई त्रुटि नहीं थी-गोल-गोरे चेहरे पर न कहीं कोई कुटिल रेखा, न निर्दोष हँसी में कोई भ्रामक छलना।

“मैं इन्हें लेने आया हूँ,” उसने हँसकर कहा तो शीला मुग्ध हो गई।

“आप इसे अवश्य ले जाएँगे।” उसने कह तो दिया पर सरोज के क्रोधी पिता के तेवर देख सहम गई। लग रहा था, उनके आने से पूर्व ससुर-दामाद का वार्तालाप बहुत सुविधा का नहीं चल रहा था। सरोज के बावू का चेहरा तमतमा रहा था और क्रोध के उसी प्रचंड वेग से क्षीण सफेद मूंछे टिड्डी के पारदर्शी पंखों-सी निरन्तर काँप रही थीं।

उन्होंने शीला की उस अनधिकार चेष्टा की धज्जियाँ उड़ा, सिर झुकाए खड़ी पुत्री को चीरकर रख दिया।

“तुझसे किसने कहा था यहाँ आने को? ये मर्दो की बातें हैं और ये 'छाजा' (बैठक) भी मर्दो की ही।"

स्पष्ट था कि शीला और कालिंदी का वहाँ आना सर्वथा नीति-विरुद्ध था। खिसियाकर दोनों ही जाने को उद्यत हुईं, पर फिर न जाने क्या सोचकर कालिंदी तनकर खड़ी हो गई, “रुको मामी, छाजा भले ही मर्दो का हो, प्रश्न एक लड़की के जीवन का है, उसकी सही वकालत भी हम ही कर सकती हैं, मर्द नहीं।" फिर वह सरोज के दूल्हे से अभिमुख होकर कहने लगी, “मेरा नाम कालिंदी है, मैं सरोज की सहेली हूँ और ये मेरी शीला मामी हैं। हम दोनों ही अच्छी तरह जानती हैं कि सरोज आप ही के साथ रहना चाहती है, मायके में नहीं।"

"किसने कहा?" क्रोधी बुड्डा ऐसी तेजी से उछला, जैसे उचककर कालिंदी के कंधे पर जा बैठेगा-“कौन कहता है, वह मायके में नहीं रहना चाहती? कौन-सी कसर रखी है मैंने? पढ़ाया-लिखाया है, कभी कहीं आने पर रोकटोक नहीं धरी, फिर भी ये उनके वहाँ जाना चाहती है जिन्होंने मुझे वीच बाजार नंगा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी?"

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