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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


उसका दृढ़ स्वर सुन कालिंदी ने उसके भोले कमनीय चेहरे को देखा, खुली खिड़की से चतुर्दशी की धौत चंद्रिका स्नात उसका पीला चेहरा किसी बच्ची का-सा लग रहा था। अस्पष्ट आलोक में उसकी नाक की हीरे की लौंग झकझक चमक रही थी।

कैसी भव्य दृढ़ता थी उसकी निर्भीक दृष्टि में! पति पर कैसा अटूट विश्वास-उस पति पर, जो माँ के कहने पर निरपराध स्त्री को मायके पटक इतने दिनों, किसी निःसीम शून्यता में विलीन हो गया था! यदि अब उस भोली लड़की का विश्वास आहत हुआ तो क्या वह जीवन-भर उस आघात से उबर पाएगी?

“मैं कहती थी न दीदी, वावा की भभूत क्या हर किसी को मिलती है? देख लेना, एक दिन तुम..."

“चुप कर सरोज !” उसने उसे इतनी जोर से झिड़का कि वह सहमकर चुप हो गई।

दूसरे दिन सुबह ही दोनों को मामी अपने साथ जाखनदेवी के मन्दिर में दीया जलाने ले गई तो सरोज हिचकिचा रही थी, “बाबू से पूछ आऊँ मामी, कहीं भाभी नाराज न हों।"

"अरे, अभी तो तेरे यहाँ सब सो रहे होंगे, हम अभी आ जाएँगे। आज तो इतवार है न, तेरी भाभी को कॉलेज तो जाना नहीं है।"

पक्की सड़क के नीचे बने जाखन देवी के मन्दिर में कालिंदी कई बार माँ के साथ गई थी, आज वर्षों बाद वहाँ गई तो लगा, मन्दिर ज्यों का त्यों धरा है, जरा भी नहीं बदला। सँकरे द्वार से तीनों सिर झुकाकर अन्दर गईं तो देवी की सिंदूर पुती मूर्ति के सामने कतार की कतार में निष्कम्प प्रदीप जल रहे थे, आटे के नन्हे-नन्हे प्रदीपों में जल रही एक भी घृत-ज्योति नहीं वझी धी। घुटनों के बल बैठ, आँखें मूंटे सरोज न जाने क्या-क्या माँग रही थी, पति गृह को पुनः प्रस्थान? उस सरला का सहज विश्वास देख कालिंदी को हँसी भी आ रही थी। इतना अपमान, इतनी अवज्ञा सहकर भी वह फिर वहीं जाना चाह रही थी, जहाँ उसकं शिखंडी सहचर ने एक बार भी उसका पक्ष नहीं लिया था? कहाँ मुक्त हुई है नारी? क्या भारतीय नारी जीवन के अधिकांश अंगों में सदा पुरुपाश्रित ही रहेगी? वह क्यों कभी काली-कराली चंडिका नहीं बन पाती ? क्यों चंडिका वन शिव को भी पैरों तले रौंदने में सक्षम नहीं बन पाती ? कहाँ विलीन हो गई है रुद्राणी, दशप्रहरणधारिणी? क्या हम लक्ष्मी को सदा विष्णु के चरणों में ही बैठी देखते रहेंगे? हम भले ही नारी-स्वाधीनता और प्रगति का मिथ्या प्रचार करते न थकें, भले ही हमारा संविधान कहे कि उसने अवला को सवला बना दिया है-अव नारी को कैसा भय और कंसा संशय, पर नारी आज भी उतनी ही विवश है, उतनी ही असहाय । कालिंदी बार-बार आँखें मूंदे अडिग बैठी सरोज को देख रही थी। देवी से वह न जाने क्या-क्या माँग रही थी! उसे लग रहा था कि पहाड़ की समाज-रचना में भले ही अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हों, नारी की मूल भमिका आज भी वही है-पुरुपाश्रिता, पुरुपपरायणा। यदि वह पति के आश्रय में है तो समाज उसे अनायास मान्यता दे देता है-भले ही उसका पति कामी हो, कुटिल हो, कुकर्मी हो, कुबुद्धि हो; किन्तु यदि वह पति के साहचर्य से वंचित है तो वह बलि का बकरा है, उसका मांस कोई भी खा ले, क्या दोप?

मामी विग्रह पूजा कर निकल प्रदक्षिणा में घूमने लगी, सरोज अभी भी उसी मद्रा में हाध जोड़े बैठी थी।

"क्या-क्या माँगेगी अब? चल, बाहर निकल, बहुत माँग चुकी है सरोज।" अधैर्य से कालिंदी ने उसे पुकारा।

मन्दिर की उसी चौखट पर खड़ी कालिंदी ने उसी क्षण अपना निश्चय ले लिया था-वह सरोज को इस बार अपने साथ ले जाएगी। अल्मोड़े के संकीर्ण समाज में रहकर वह एक दिन असमय ही वैरागिनी बन उठेगी-एक वक्त का खाना, मन्दिरों की असंख्य परिक्रमाएँ और पहाड़ आ गए किसी सन्त महाराज के प्रवचन या फिर भागवत सप्ताह की नीरस दिनचर्या ! पढ़ी-लिखी सरोज के लिए वह कोई नौकरी तो जुटा ही लेगी, यद्यपि उसके क्रोधी सनकी पिता अडंगा अवश्य लगाएँगे। सारा मुहल्ला उन्हें दुर्वासा कहता था, कोई नहीं मिला तो हवा से ही लड़ने लगते। सरोज की भाभी को भी शायद उसका प्रस्ताव मान्य न हो, सहसा सदा के लिए मायके आई ननद तो उसके लिए सोने का अंडा देने वाली बतख बन गई थी। बर्तन मलने से लेकर, दुधमुंहे भतीजे को सँभालना-सव उसी के जिम्मे था, पर सरोज? वह क्या अपने ससुराल की तीन दिन की भिश्ती की-सी बादशाहत को कभी भूल पाएगी? अभी भी उसका सजीला दूल्हा आकर तर्जनी उठा दे तो वह उसके पीछे-पीछे चल देगी!

हुआ भी यही था। इतवार के दिन वह नित्य बसन्त मामा के यहाँ जाकर, उनके घर की सफाई करती थी। वह जाने को तैयार हो ही रही थी कि सरोज भागकर आई और उसे हाथ पकड़कर भीतर खींच ले गई। उत्तेजना से वह बुरी तरह हाँफ रही थी।

"जानती हो दीदी, वे आ गए हैं।"

“कौन?" कालिंदी ने अनजान बनकर पूछा।

“वही, और कौन! मैंने पर्दे से झाँककर देखा, वे बाबू के पैर छूने झुके और मैंने पहचान लिया। पिछवाड़े की खिड़की से कूदकर सीधी तुम्हारे पास भाग आई हूँ-हाय, मैं मर गई! देखो, मेरा कलेजा अभी भी धड़क रहा है।"

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