नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
क्यों वह ऐसे उसके पीछे हाथ धोकर पड़ गया था? वह लौटी, तो सरोज उसकी खिड़की
खुली देख भागकर आ गई।
"तुम अस्पताल गई थीं न दीदी? बाप रे, गजब की हिम्मत है तुम में! बगल के
भट्टजी कम्पाउंडर बता रहे थे, अस्पताल वाले पोस्टमार्टम कर भेजा, कलेजा,
फेफड़ा सब निकालकर रख लेते हैं। जानती हो, दीदी, मुझे बड़ा डर लग रहा है,
तुम्हारे पास सो जाऊँ दीदी? कहीं बिरजुआ भूत बनकर हमारे पीछे न पड़ जाए! उस
दिन हम दोनों उसी की जीप में तो आई थीं। सोने रात को आ जाऊँ?"
“आ जाना, पर कितनी मूर्ख है तू सरोज, पढ़ी-लिखी होकर भी भूत-प्रेत में
विश्वास करती है!"
“और नहीं तो क्या! जानती हो, मेरी मौसेरी बहन उमा को ससुरालवालों ने बड़ा
सताया था, पहली जचगी में ही मर गई थी बेचारी! उसके लड़के को जिठानी ही पाल
रही थी। पाल क्या रही थी, तिल-तिल घुलाकर मार रही थी। फिर सुना, उमा रोज रात
को आती है और बच्चा उससे छीन दूध पिलाती, उसे अपना कंकाल नचा-नचा कर डराती
है। दाँती लग जाती थी उसकी, हाथ-पैर ऐंठ मुँह से झाग निकालने लगती थी।"
"मिरगी होगी मूर्ख!"
"मिरगी होगी!" सरोज मुँह विचकाकर फिर चालू हो गई थी, “मैंने अपनी आँखों से
देखा है, हू-ब-हू उमा की आवाज में ऐसी-ऐसी गालियाँ देने लगती अपनी जिठानी दया
को, कि पूछो मत। फिर कहीं गया जाकर शान्ति करवाई, तब ठीक हुई। हाय, कहीं
बिरजुआ भी हमें न खींचने लगे!"
"चुप कर सरोज, मेरे सामने ऐसी बातें मत कर।"
सरोज सहमकर चली गई, पर रात ही को फिर अपना तकिया-रजाई लेकर उपस्थित हो गई थी।
वत्ती बुझाकर कालिंदी सोने लगी तो सरोज अपने पलंग से कूदकर उससे लिपट गई,
“दीदी, मैं तुम्हें कुछ बताने ही आज यहाँ आई हूँ।"
बिना कुछ पूछे ही कालिंदी ने उसकी ओर दृष्टि उठाई।
"सुना है, वे मुझे लेने आनेवाले हैं।"
"कौन?"
"कल दिल्ली से बद्री मामा आए हैं, उन्हीं के पड़ोस में तो मेरी ससुराल है। कह
रहे थे, माँ-बेटे में खूब जमकर बहस हुई है।"
"क्यों, तेरे पति तो विदेश में थे न?"
“आजकल दिल्ली आए हैं, मेरी ननद का ब्याह है। उन्होंने कहा, मुझे भी बुलाएँ तो
मेरी सास ने चीख-चीखकर कहा-एक बार पैर रखा तो ससुर को खा गई, अब आएगी तो पता
नहीं किसे निगलेगी! तब इन्होंने कहा-अच्छा होता इजा, इस बार तुझे निगल लेती
तो झगड़ा ही मिट जाता। मैं उसे लाऊँगा। हम दोनों किसी होटल में रह लेंगे। सात
दिन बाद तो मुझे जाना ही है, इस बार मैं उसे लेकर ही जाऊँगा।"
"तू खुश है सरोज? डर नहीं लगता वहाँ जाने में?"
"डर कैसा! यहाँ सबके ताने सुन-सुनकर अघा गई हूँ दीदी! भाभी घर का सारा काम ही
मुझ पर नहीं छोड़ती, सवा साल के बेटे को भी मेरी गोद में पटक वी.टी. करने चली
जाती है। सुबह से घर भर की झाइबुहारी, कपड़े धोना, खाना पकाना-उस पर बाबू का
गुस्सा तो देखा ही है तुमने। उस वार तुम्हारे साथ मन्दिर गई और लौटने में देर
हुई तो तीन दिन तक अबोला लगाकर बैठ गए, एक वात भी नहीं की!"
“और विदेश जाकर देखा कि पति ने तेरे लिए किसी विदेशी मेम का तोहफा रखा है,
तव? आजकल यही तो हो रहा है सरोज, सोच-समझकर जाना।"
"नहीं, ये ऐसा कभी नहीं कर सकते।”
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