नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
वैसे पुत्री से कुछ कहने-सुनने का ऐसा सुअवसर उसे जुट नहीं सकता था। शीला की
ममेरी बहन बहुत बीमार थी, उसे देखने देबू और शीला खाना खाकर ही निकल गए थे।
"रानीखेत से एक दिन में लौटना सम्भव नहीं होगा दीदी, हम कल सुबह की बस से ही
लौट आएँगे, तुम चिन्ता मत करना,” शीला कह गई थी। पूरे घर में माँ-बेटी अकेली
थीं, फिर भी कई बार चेष्टा करने पर भी अन्नपूर्णा मुँह खोलकर पुत्री से कुछ
कहने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। कभी बड़े साहस से उसे पुकारती भी तो उसके
आने पर स्वयं प्रसंग परिवर्तन कर लेती।
“क्या है अम्मा? क्यों बुलाया?"
"कुछ नहीं, मिल गया। एकादशी की तिथि देखने पत्रा ढूँढ़ रही थी, वहीं पूछ रही
थी कि तूने कहीं देखा?"
पर कालिंदी की मर्मभेदी दृष्टि अन्नपूर्णा को विचलित कर देती। माँ की आँखों
में निविड़ जिज्ञासा की झलक देख, वह समझ गई थी कि जननी का उद्वेगाक्रांत सूखा
चेहरा, कभी अकारण ही प्रच्छन क्रोध से तमतमा रहा है, और कभी कोई अव्यक्त
वेदना उसी चेहरे पर राख बिखेर रही है। माँ के कुछ न कहने पर भी वह समझ गई थी
कि वह उससे रुष्ट है।
“अम्मा, तुम्हें मुझ पर विश्वास है या लोगों की बतकही पर?"
अन्नपूर्णा उस अप्रत्याशित मुँहफट प्रश्न से चौंक उठी थी, “क्यों? क्यों पूछ
रही है तू?"
"इसलिए अम्मा,” उसने हँसकर कहा, “संसार में कुछ चेहरे ऐसे भी होते हैं, जो
एकदम झकझक आईना ही बने रहते हैं, तुम्हारा चेहरा भी वैसा ही है। कोई ऐसा
व्यक्ति आ जाए, जिसे तुम पसन्द नहीं करती तो फौरन तुम्हारा चेहरा तुम्हारे मन
की चुगली खा देता है-रुष्ट हो तब भी और तुष्ट हो तब भी। मैं जानती हूँ कि तुम
मुझसे नाराज हो, और यह भी जानती हूँ कि तुम क्यों नाराज हो-देखो अम्मा," उसने
फिर रामायण पढ़ने का उपक्रम करती अम्मा के हाथ से रामायण बन्द कर अपनी गोदी
में धर लिया था। "तुम्हें मेरा बिरजू के साथ घूमना अच्छा नहीं लगता है न? पर
मेरा कभी कोई भाई नहीं था अम्मा, सगा भाई भी होता तो शायद मुझे इतना प्यार
नहीं कर पाता-एक न एक दिन तो भाभी उसे संसार के सब भाइयों की तरह छीन ही
लेती। पर मेरा यह मस्तमौला भाई मुझे अन्त तक इतना ही प्यार देता रहेगा, यह
मैं जानती हूँ।"
अन्नपूर्णा के हृदय पर धरा कोई भारी पत्थर जैसे स्वयं ही हट गया। अपने ओछेपन
की अभिज्ञता उसे आत्मग्लानि से क्षुब्ध कर उठी। छिः-छिः, कैसी नीच बात आ गई
थी उसके मन में!
"तुम ही सोचो अम्मा, उस अभागे का है ही कौन! न माँ का प्यार मिला, न बाप का
अनुशासन। मौसी ने पाला पर केवल कर्त्तव्य मानकर, मैं तो सोचती हूँ अम्मा, जब
कोई अपना अपराध स्वीकार कर लेता है तो वह अपराधी नहीं रहता-स्वयं भगवान तो
उसकी बेड़ियाँ काट ही देता है, भले ही कानून न काटे!"
"तो क्या उसने तेरे सामने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है?" माँ के सात्त्विकी
नथुने फड़फड़ा रहे थे।
"उसने गिरुआ की हत्या नहीं की अम्मा!" उसने उत्तेजित होकर अन्नपूर्णा की बाँह
पकड़ ली, "गिरुआ सचमुच ही भँवर में फँसकर डूब गया था। बिरजू तो अपनी जान की
परवाह न कर, उसे खींच किनारे तक भी लाया था।"
“और लच्छू भंडारी की बारह साल की बेटी? उसने भी क्या खुद ही पहाड़ से कूदकर
जान दे दी?" व्यंग्य से अम्मा के ओठ टेढ़े हो गए थे।
कालिंदी, फिर बिना माँ की ओर देखे स्वगत ही कैफियत देती बड़बड़ाने लगी, “कठिन
परिस्थितियों में तो कभी ऋषि-मुनि भी विवेक खो बैठते हैंवह क्षण भी शायद उसके
चरम उन्माद का क्षण था।"
"छिः-छिः, कालिंदी, तू मेरी बेटी होकर भी ऐसे जघन्य अपराध को पागलपन कह रही
है? मैं तो अब अपने घर के गिलास में उसे कभी चाय भी नहीं दे सकती-भले ही
कोढ़ी को दे दूं।"
पर चाय पीने वह आया ही कहाँ?
दूसरे ही दिन तो वह अपने मुकद्दमे का फैसला स्वयं सुना, नतमस्तक मृत्युदंड
स्वीकार कर चुका था।
इधर दिल्ली से आई डाक में फिर उसे वही विदेशी मोहर लगा लिफाफा मिल गया। अच्छा
था जो डाकिया उसे ही डाक थमा गया था। अम्मा, मामी या मामा होते तो वह क्या उस
लिफाफे की कोई कैफियत दे पाती? अपने कमरे में जाकर, उसने बिना पढ़े ही उसके
टुकड़े-टुकड़े कर पर्स में डाल लिए थे। घूमने जाएगी तो दूर फेंक आएगी।
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