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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


उसके ठीक दूसरे इतवार को तो अभागे की लाश, अल्मोड़ा अस्पताल में पोस्टमार्टम को लाई गई थी। आँधी के वेग से जीप चलाने के लिए कुख्यात वह दुःसाहसी चालक, पिथौरागढ़ के पास, उसी के से दुःसाहसी किसी ट्रक चालक से आगे निकलने के प्रयास में, जीप सहित जिस गहरी घाटी में गिरा, वहाँ से उसकी क्षत-विक्षत लाश ही हाथ लगी थी।

मामा ने आज तक कभी उसके कहीं जाने पर आपत्ति नहीं की थी, पर वह जब हाथ में गुलदस्ता लिये, बाल्यसखा को अंतिम विदा देने जाने लगी तो मामा ने ही मृदु स्वर में उसे टोक दिया था, "वहाँ तेरा जाना क्या ठीक होगा चड़ी? यह छोटा-सा शहर है, लोग बेकार में तिल का ताड़ बनाएँगे।"

"वही तो मैं भी इससे कह रही हूँ देबी, वहाँ इसका जाना ठीक नहीं होगा।" अम्मा भी आकर खड़ी हो गई थी।

पर कालिंदी का दृढ़ स्वर एकदम शान्त था, "मैं जाऊँगी मामा! बिरजू मेरे बचपन का साथी था, जाने से पहले एक मुझसे ही तो मिलकर वह गया था।"

अस्पताल जाकर वह पूरे तीन घंटे खड़ी रही थी। पंचनामा, पोस्टमार्टम और न जाने क्या-क्या लिखत-पढ़त के बाद स्ट्रेचर में बिरजू की कटी-फटी देह बाहर लाई गई तो उसे लगा, वह जोर से रो पड़ेगी, पर अद्भुत काठी की लड़की थी कालिंदी, ओठ काटकर उसने हृदय के वेग को संयत कर लिया- तीखी नाक के दोनों नथुनों में रुई, शान्त चमकते चेहरे पर न किसी चोट का निशान, न विकृति। लग रहा था, गहरी नींद में सो रहा है। एक क्षण को उसे लगा, वह कफन फाड़कर बैठ गया है और उसे चिढ़ा रहा है :

कालिंदी पन्त
देखने की सन्त
आग-सी चुड़कन्त
हृदय में बसन्त!

भीड़ का घेरा चीर, वह मुरझाए-म्लान पुष्प-गुच्छ को उसकी छाती पर धर आई और तीर-सी निकल गई। घर लौटी तो अम्मा का चेहरा फूला था। अबाध्य पुत्री ने उसका कहना नहीं माना इससे वह आहत हुई थी, फिर भी उसने उसे नहाने भेज दिया, “जा, नहा ले, सिर से नहाना। मिट्टी छू कर आई है, नहाकर आ तो गंगाजल डालूँ।"

बिरजू की आकस्मिक मृत्यु ने उसे अस्वाभाविक रूप से गुमसुम बना दिया था। न वह ठीक से खा रही थी, न घूमने ही जा रही थी। पहले नित्य दो बार बसन्त मामा के यहाँ जाती थी, अब वह भी छोड़ दिया था। सरोज नित्य आती थी, पर वह उससे भी बहुत कम बोलती। उसकी क्रमवर्धमान अस्थिरता, चिन्तामग्न मौन चेहरे की रेखाओं में काठिन्य की स्पष्ट छाप देख, देवेन्द्र मन ही मन उद्विग्न होने लगे थे। वह जानते थे कि कालिंदी बड़ी भावुक लड़की है, बचपन से ही वह बिरजू के साथ खेल-झगड़कर बड़ी हुई थी, फिर वह स्वभाव से ही विद्रोहिणी थी। समाज ने बिरजू को दूध की मक्खी-सा निकाल दूर फेंक दिया था, इसी से वह उसके प्रति और भी संवेदनशील हो उठी थी। किन्तु अन्नपूर्णा को पुत्री का यह अनावश्यक मातम एक व्यर्थ सन्देह के नागपाश में बाँधता जा रहा था।

मन्दिर से भी उसी के साथ लौटी फिर गिरजाघर से दोनों को एक साथ लौटते भी उनकी पुरानी धोबिन ने देख लिया था। उसका घर वहीं पर था, "अन्ना लली," उस बढिया ने फिर चट अपनी मंत्रणा की चेतावनी देने में विलम्ब नहीं किया था, "उस हत्यारे करमजले के साथ चड़ी लली को मत जाने देना कभी। वह तो अच्छा है, मैंने ही देखा। यह अल्मोड़ा है लल्ली, यहाँ तो लोग ऐसी ही बातों से पेट भरते हैं-दाल-भात से नहीं।"

अन्नपूर्णा का चेहरा उतर गया, पर वह एक शब्द भी नहीं बोली।

धोबिन फिर उसके एकदम पास खिसक, फुसफुसाकर कहने लगी, “मेरी देरानी पियरी को तो तुम जानती हो, साली के मुँह में बवासीर है-एक बात में दस बातें जोड़ मुहल्ले भर में फैलाती रहती है। उस दिन करमजली आँगन ही में बैठी चावल फटक रही थी, मैं भी वहीं बैठी थी। झूठ क्यों बोलूँ लली, मैंने भी देखा, वह नासपीटा विरजू दिन डूवे अपनी जीप में जा रहा था और बगल में बैठी थीं हमारी कालिंदी लली। पियरी कहने लगी-ल्यो, एक के साथ तो मुँह काला कर उसे पहाड़ से ढकेल ही आया है, अब दूसरी को ढकेलने के लिए जा रहा है-वह भी तुम्हारी कोठी की कालिंदी लली।"

अन्नपर्णा का खून खौल उठा था। आने दो आज चड़ी को, ऐसा भद्रा उतारेगी कि याद करेगी छोकरी। डॉक्टरनी क्या बन गई, हवा में उड़ने लगी! पहले घर आई बारात को लौटा दिया, हमने तो दहेज का इन्तजाम कर ही लिया था। उससे तो रकम माँगने नहीं गए। आखिर दस महीने गर्भ में रखा है उसे! उसे क्या कोई अधिकार नहीं है उसे लताड़ने का? देबू और शीला ने ही तो उसे सर चढ़ाकर ऐसा जिद्दी बना दिया था-वे दोनों तो सब सुनकर भी उससे कुछ कहने से रहे। दोनों हमेशा मुँह में दही जमाए बैठे रहते हैं। बादशाह की घोड़ी की लगाम अब उसे ही अपने हाथों में लेनी होगी।

पर दिन डूबे जब कालिंदी घूमकर लौटी तो पुत्री का शान्त-क्लान्त चेहरा देख उसे कुछ कहने का साहस नहीं हुआ-पवित्र गंगाजल-सी स्निग्ध आर्द्र आँखें, ओठों पर कृपण स्मित की रेखा, ललाट पर चिन्ता की सर्पिल रेखाएँ! क्या हो गया था इसे?

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