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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


"मैं जब बम्बई गया तो एक हैल्थ क्लब में काम करने लगा था। थोड़े ही दिनों में मेरे कायाकल्पी मालिश की सुख्याति पूरे शहर में फैल गई। बड़े-बड़े सेठ-साहूकार, बड़ी-बड़ी फिल्मी हस्तियाँ, राजनीतिज्ञ मुझे घरों में बुलाने लगे-मैं एक-एक मालिश के पाँच सौ रुपए लेता था, कभी एक-एक हजार-जैसा गाहक, वैसी फीस। वहीं से मैं फिर एक सेठ की रक्षिता के पंगु बेटे की मालिश को जाने लगा..."

थोड़ी देर को वह चुप हो गया, फिर स्वयं ही उसने टूटे सूत्र को थाम लिया, “उसके पोलियोग्रस्त पंगु बेटे को तो मैंने ठीक कर दिया, पर मैं खुद पंगु बन गया। असगरी नाम था उसका, बहुत बड़े कोठे की मैडम थी। कई बार पुलिस छापे मार चुकी थी, पर उसकी पहुँच बहुत ऊँची थी। यहीं मेरा विनिपात हुआ चड़ी, सच कहता हूँ चड़ी, जी में आता था अपनी वह घिनौनी जिन्दगी खत्म कर दूँ-वही करने एक दिन गया, हाजी अली की मजार! वहीं एक मलंग फकीर मिल गया, उसने मुझे देखते ही खुली किताब-सा बाँच लिया। बोला, जा, किसी नादान मासूम लड़की से शादी कर ले, तेरी बीमारी का एक यही इलाज है। पर कौन देता मुझे अपनी नादान मासूम लड़की? मैं मरने ही पहाड़ आया था, किसी को मारने नहीं। मैं शायद पागल हो गया था चड़ी, किसी भी कीमत पर, मैं अपनी बीमारी से छुटकारा पाना चाहता था, बस, अब और कुछ मत पूछ चड़ी, चल, तुझे घर छोड़ दूं।"

कालिंदी ने न कुछ पूछा, न कहा, वह अकेली ही उठकर तेजी से चलने लगी। पीछे-पीछे सिर झुकाए विरजू चल रहा था और उन दोनों के पीछे डूबते सूर्य की रक्ताभ आभा।

"चड़ी, तू भी मुझसे नाराज हो गई तो मैं कहाँ जाऊँगा, बोल? मेरा है ही कौन? जानता हूँ, तू अब कभी मेरा मुँह भी नहीं देखेगी-घिन आ रही है न तुझे? नहीं बैठेगी मेरी जीप में?" उसकी करुण हँसी कालिंदी का कलेजा बींध गई। कैसा आश्चर्य था कि शैशव के उस विपथगामी साथी के दूधिया चेहरे को अभी भी वैसी ही सहज सरल हँसी उभासित कर रही थी-निदोष, निष्कलंक, निर्मल। वह बिना कुछ कहे, एक हाथ से जीप का द्वार पकड़ उसके पार्श्व में बैठ गई थी।

"देख चड़ी!" उसने धीरे से कहा, "तुझे मेरे साथ बैठे किसी ने देख लिया तो लोग दस बातें कहेंगे-पीछे बैठ जा।"

"नहीं!" उसका दृढ़ संक्षिप्त उत्तर एक बार फिर उस आनन्दी सखा का पुराना बिरजू बना गया।

"शाबाश कामरेड, तब ही तो मैंने तेरे लिए, बरसों पहले यह कविता लिखी थी:

कालिंदी पन्त
देखने की सन्त
आग-सी चुड़कन्त
हृदय में बसन्त!"

तीखे ढलान पर जीप स्वयं ही ढलकती जा रही थी, "मैं कल जा रहा हूँ चड़ी! नेपाल जाना है मुझे, फिर पाकिस्तान की सीमा पार कर माल पहँचाना है-बडा जोखिम का काम सौंपा है बॉस ने। जरा-सा भी चूका तो समझ ले- ठाँय-ठाँय! ले, आ गई तेरी पगडंडी, उतर जा चटपट। चला, किसी ने देखा नहीं।" उसने हँसकर एक आँख बन्द कर ला।

वह उतरकर गई नहीं, निर्भीक तनी उसके सामने खड़ी हो गई, “अब यह सब छोड़ दे बिरजू, प्लीज!” उसका गला सँध गया-

"ओ.के., ओ.के. मैडम-एज यू विश!"

बिरजू ने उसका हाथ थाम सिर झुकाकर पहले अपने माथे पर लगाया, फिर उसी नाजुक करपृष्ठ पर अपने ओठ धर दिए, जैसे किसी प्राचीन मन्दिर में प्रतिष्ठित अष्टभुजा की मूर्ति पर मत्था टेक रहा हो!

हिमाच्छादित पर्वतश्रेणियों पर विदा ले रहा सूर्य मुट्ठी भर अबीर बिखेर गया था-गिरजे के इतवारी घंटे की गूंज के साथ। दूर कड़कते बादलों का गर्जन-तर्जन जैसे जुगलबन्दी कर रहा था-वही पखावज तबले की-सी दुगुनतिगुन-चौगुन :

धा तिरकिट तट, धा तिरकिट तट, धातिरकिट तत तूनाकत्ता
ता तिरकिट तट ता तिरकिट तट, ता तिरकिट तट तूनाकत्ता

वह कुछ कहती, इससे पहले ही वह तेजी से जीप चलाकर अंधकार में खो गया।

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