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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


“पूछ...” वह सीढ़ी पर एक पैर धर, उसी पर कुहनी टेक हँसता खड़ा हो गया।

“क्यों सब लोग तुझे भाई का हत्यारा कहते हैं? क्यों तेरे तस्कर होने की बातें कर तुझे बदनाम करते हैं और क्यों लछुआ भंडारी की बेटी..." फिर उसका चेहरा लाल पड़ गया। अपना अधूरा बदनाम प्रश्न उसने कंठ ही में खींच लिया।

“अच्छा!" वह हँसकर उसके पास बैठ गया।

"अरे वाह!" फिर उसने दोनों नथुने मूंद, भावावेश में आँखें बन्द कर ली, "लगता है, चोवा चन्दन के कुंड में कई डुबकियाँ लगाकर आई है तू चड़ी, बाप कसम, लग रहा है, किसी ने पूरे मायसोरी अगरबत्ती के बंडल में ही जलती माचिस लगा दी है! चल, अच्छा ही हुआ-चन्दन विष व्यापै नहीं लिपट्यो रहै भुजंग! कम से कम तुझे तो मेरा विष नहीं व्यापेगा री चड़ी।"

"चुप कर बिरजू, बता, जो बात लोग तेरे लिए कहते हैं, वह क्या सच है?"

गिरजे के अर्धचक्राकार अहाते को, डूबते सूर्य की रक्तिम आभा, प्रतिक्षण गिरगिटी रंगों में रँगती चली जा रही थी। दूर कोई वंशी बजा रहा था। वही चिरपरिचित करुण पहाड़ी धुन दोनों को एक साथ बचपन की उस देहरी पर खींच ले गई, जहाँ न कपट था, न दुराव-छिपाव-जहाँ दोनों एक साथ फिर हाथ में हाथ बाँधे, कालिंदी की ननिहाल के पथरीले पट्टांगण में बैठे, पहाड़ का प्रिय नर्सरी राइम गा रहे थे :

चल चल चमेली बाग में
मेवा खिलाऊँगी-
मेवे की चादर फट गई
दरजी बुलाऊँगी
दरजी की सुई टूट गई
लोहार बुलाऊँगी।

जब बिरजू की कहानी सुनी तो उसे लगा, दरजी की सुई सचमुच ही टूट गई है, अब उसकी फटी चादर कोई नहीं सिल सकता।

"अच्छा है चड़ी, जो तू आज इस एकांत में मिल गई-कोई तो मिला हँकारा देने वाला। आज तक किसी से कहता भी तो कौन मेरी बात का विश्वास करता? उनके लिए तो मैं भाई का हत्यारा हूँ, मक्कार, गुंडा, लोफर-तुझसे कसम खाकर कहता हूँ चड़ी!" उसने फिर भावावेश में आकर, कालिंदी के दोनों हाथ पकड़ लिए, "मैंने गिरुवा की हत्या नहीं की। हम दोनों शिकार खेलने ही कालाढूंगी के जंगल में गए थे, शिकार ढूँढ़ते-ढूँढ़ते न जाने कब तराई के बियाबान जंगल में उतर भटक गए। जेठ का महीना था और तराई की गर्मी, भूख से आँतें कुलबुला रही थीं, प्यास से जीभ तालू से चिपकी जा रही थी-कहीं पानी का नामोनिशान नहीं, तब ही वह मनहूस झील दिख गई-हमने पहले तो जी भरकर पानी पिया, फिर गिरुआ ने कहा-चल रे बिरजू, नहा लें, कैसा ठंडा पानी है! सब थकान दूर हो जाएगी-तब क्या पता था, उसे झील नहीं, उसकी मौत बुला रही है। हम बड़ी देर तक तैरते रहे, गिरुवा तैरता-तैरता बहुत दूर तक चला गया। मैंने चीखकर कहा-लौट आ गिरू, कभी-कभी इन पहाड़ी झीलों में बड़े जानलेवा भँवर होते हैं, कैसे-कैसे सधे तैराक को भी टाँग पकड़, लटू-सा घुमा देते हैं। पर वह नहीं माना फिर अचानक चीखा-अरे बिरजू, मुझे कोई खींच रहा है रे, मुझे बचा ले बिरजू!-मैं तैरता गया, उसे किनारे तक खींचकर भी लाया, पर घंटों पानी निकाल, उल्टा-सीधा कर, अपनी साँस उसके मुँह में डालकर भी मैं उसे बचा नहीं पाया। लगता था, उसके प्राण झील में ही निकल चुके थे। सारी रात मैं बैठा रहा फिर जब देखा, उसमें जीवन का कोई चिन्ह नहीं है और उस बियाबान जंगल से, उसकी छः फुटी लाश को कन्धे पर लटका, किसी बस्ती में पहुँचना मेरे लिए असम्भव है तो मैंने राम का नाम लेकर उसकी देह उसी झील में प्रवाहित कर दी। यहाँ आकर मैंने बिरादरी में सब बातें सच-सच बता दी थीं पर हमारे पहाड़ी धर्मध्वज लाठी लेकर मुझे मारने खड़े हो गए-अरे हत्यारे, मौसी की घरकुड़ी, लटपटी (जायदाद) हथियाने भाई को मार नदी में डुबो आया? ब्राह्मण की गत किरिया बिना किए ही उसे प्रेतयोनि में भटकने छोड़ आया?...वह तो प्रेतयोनि में नहीं भटका होगा चड़ी, तब से मैं बराबर जीते-जी प्रेतयोनि में भटक रहा हूँ।" उसका दीर्घश्वास देवदारी बयार में खो गया।

“और लछुआ भंडारी की बेटी को लेकर जो सब कहते हैं, वह भी झूठ है क्या?"

"मत पूछ चड़ी, मत पूछ। मैं तुमसे झूठ नहीं बोल सकता।"

"तो क्या वह बात सच है?"

वह एक क्षण को गूंगा बन गया, फिर रुंधे कंठ से उसने अपना जघन्य अपराध स्वीकार कर लिया।

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