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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


"वह तो अच्छा था, तुम्हें किसी ने उसकी जीप से उतरते नहीं देखा।"

"अम्मा, तुम्हें पता है, मैं किसी के कहने-सुनने से नहीं डरती-बिरजू क्या आज पहली बार मुझे घर पहुंचा गया है? कितनी बार तो वह मुझे तुम्हारे कहने पर ही कभी सकस दिखा लाया है, कभी नंदादेवी का मेला। उस वार जब मेरे पैर में काँच गड़कर पक गया था, पूरे पन्द्रह दिन तक कौन मुझे अस्पताल, ड्रेसिंग कराने ले गया था? यही बिरजुआ। आज वही बदमाश हो गया!"

तब की बात और थी चड़ी। बात समझने की कोशिश कर। अब तुझे उसके साथ कोई देख लेता तो मैं किस-किसका मुँह बन्द करती?"

“मुझे किसी का डर नहीं है अम्मा, बिरजू मेरे बचपन का साथी है, मैं उससे मिलना कैसे छोड़ सकती हूँ?"

“तब सुन!” उत्तेजित होकर अन्नपूर्णा वैठ गई, “उसने अपने सगे मौसेरे भाई का खून किया है। जानती है, उसने लछुवा भंडारी की अवोध विटिया का सर्वनाश कर पहाड़ से ढकेल दिया था? तू नहीं भी जानती थी तो उस वौड़म सरोज को तो सव पता है, उसने क्यों नहीं रोका तुझे? अव पूछना सरोज से, जो भी मैंने कहा है, वह सच है या झूठ!"

पर कालिंदी जिससे पूछना चाहती थी, वही उससे एक दिन फिर अचानक टकरा गया।

वह उस दिन मामा के साथ घूमने नहीं गई थी-उनके पैर में हलकी मोच आ गई थी। पहले उसने मामी को साथ चलने के लिए मनाया, पर वह भी अलसा गई तो अकेले ही निकल गई। ऊँची चढ़ाई पार कर, वह सर्किट हाउस से नीचे की लॉन पर उतरती, पुराने गिरजाघर तक चली गई थी। यहाँ वह दोनों मामाओं के साथ, वचपन में कितनी ही बार घूमने आई थी-गिरजा ठीक वैसे का वैसा ही धरा था-चौड़ी सीढ़ियों पर बिखरे दाडिम के फूल, जिन्हें पिरुल की सूखी डंडियों से जोड़, छोटा मामा उसके लिए गुड़िया की पलंग बनाता था, कभी गोल-मोल मोड़ पैरों के झंवर! नीचे फैले कुष्ठाश्रम के टीन के बैरक और दूर-दूर तक फैली बिनैक, मुक्तेश्वर की चोटियों पर चमकती बत्तियाँ, पर्वतों के बीच अग्निसेतु-सी बन गई जंगली आग को वह एकटक देखने लगी-यह आग उसके लिए अनचीन्ही नहीं थी, प्रायः ही तो पहाड़ के वनसंरक्षक पतरौल, पर्वत-श्रेणियों को ऐसे अंसख्य अग्निकिरीटों से भर देते थे। दूर से आ रहे, पहाड़ी ढोल-दमामे की वह चिरपरिचित धुन :

जागजा भुतणि
झकुलै चिथड़ि
जागजा भुतणि
झकुलै चिथड़ि

(हे भुतनी, जाग-जाग, तेरे झकुले की चिथड़ी लटक-लटक जाए।)

कभी-कभी रात को छोटा मामा उसे डराता, “चड़ी, सुन, भूतों की बारात जा रही है-सुन!” और वह डरकर मामा से लिपट जाती।

सहसा न जाने किस अदृश्य पगडंडी से कूद, वह हँसता उसके सामने खड़ा हो गया था। फिर उन्हीं चार विस्मृत, स्वरचित पंक्तियों से, उसे खित्त से हँसा गया था, जिन्हें बार-बार दोहरा वह उसे बचपन में चिढ़ाता था :

कालिंदी पन्त
देखने की सन्त
आग-सी चुड़कंत
हृदय में बसन्त!

“यहाँ क्या कर रही है तू? चल, आज भी तुझे अपने रथ में घर छोड़ आऊँ-सामने सड़क पर खड़ी कर आया हूँ। साँझ हो गई है, जानती नहीं, पहाड़ की साँझ और पहाड़ की लड़कियाँ समय से पहले ही जवान हो जाती हैं!"

तूने मुझे सड़क से पहचान कैसे लिया बिरजू? बैठ!" उसने हँसकर, हाथ से सूखी पत्तियाँ झाड़, उसके बैठने के लिए जगह बना दी।

"तुझे नहीं पहचानूँगा? अरे तुझे तो मैं आँखों पर पट्टी बँधी रहने पर भी, त्रिकालदर्शी जादूगर की तरह पहचान सकता हूँ। उठ, चल, अब बैठने का वक्त नहीं है।"

"नहीं, मैं तब तक नहीं उलूंगी, जब तक मुझे अपने बारे में सब कुछ न बता देगा-मैं तेरे मुँह से सब कुछ सुनना चाहती हूँ बिरजू और किसी से नहीं-मैं जानती हूँ कि तू मुझसे कभी झूठ नहीं बोल सकता।"

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