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नारी विमर्श >> कालिंदी

कालिंदी

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3740
आईएसबीएन :81-8361-067-6

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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..


“खबरदार नरिया, जो तूने इसे हाथ लगाया! तू कौन होता है इसे मारने वाला?" दादी कहती, "बिना बाप की लड़की है, तुझे शर्म नहीं आती इस मासूम पर हाथ चलाते? राम-राम, गाल लाल कर रख दिया है हत्यारे ने..."

"बड़ी बिना बापवाली बनती है, है तो बाप, कल ही घूम रहा था बाजार में! अपने ही से दो लफंगों को लिये पान खा रहा था। मुझसे पूछने लगा बेशरम-'कहो साले साहब, सब कुशल तो है न?' जो में आया, दाँत भीतर कर दूँ ख़बीस के।"

अन्ना का चेहरा सफेद पड़ गया, तो वह इसी शहर में है। क्या अभागे को कभी बेटी को देखने का भी मन नहीं करता होगा? उसने आँखें बन्द कर लीं पर गाल पर लुढ़की आँसू की बड़ी-बड़ी बूंदों को दादी ने देख लिया।

"क्यों रोती है अन्ना-तुझे मेरे प्राण रहते कोई कुछ कह तो दे, आँखें निकाल लूँगी। हिम्मत है उस कलमुँहे की जो तुझे यहाँ से जोर-जबरदस्ती कर ले जाए-रंडी का खसम, नाक काटकर मुँह में डाल ली है फिर भी नकटे को न हया है, न शरम।"

पूरी आयु भोगकर ही दादी गईं तो उसे पहली बार लगा, वह इतने बड़े संसार में एकदम अकेली रह गई है। दोनों भाई पढ़ाई पूरी करने इलाहाबाद चले गए तो उसका एकान्त उसे सहसा दुर्वह लगने लगा। कालिंदी पन्द्रह वर्ष की हो गई थी। उसके रूप को देख कर हितैषी परिचितों ने उसकी जन्मकुंडली भी मँगवा भेजी थी। “पर अभी तो छोटी है, पढ़ रही है," कह उसने सब को टाल दिया था। माँ-बेटी साथ साथ चलतीं तो लगता, दो बहनें जा रही हैं। अन्तर इतना ही था, जननी के दुर्भाग्य ने उसके सौन्दर्य को म्लान कर दिया था, वहीं पर कालिंदी खिल फूल थी, सेब-से सुर्ख गाल, मोटी-मोटी दो चोटियाँ और सदाबहार हँसी उर के होंठों से लगी रहती। समय ने फिर सुदीर्घ करवट ली, देवेन्द्र को पुलिस की ऊँची नौकरी मिली। वह ट्रेनिंग में गया, अन्नपूर्णा ने ही एक अच्छी सुन्दरी लड़की देख उसका घर बसा दिया। छोटे नरेन्द्र ने बहन को यह कष्ट नहीं उठाने दिया। नौकरी पाते ही अपने ही एक मित्र की बहन से स्वयं विवाह कर लिया-एक ही बार वह अपनी जीवन-सहचरी को दिखाने. हवाई जहाज से उड़कर आया और शाम ही की उड़ान से लौट गया-कैसी बेमेल जोड़ी थी! यह छोटा भाई उसे प्राणों से भी प्रिय था, साक्षात् कार्तिकेय-गोरा-उजला, लम्बा-चौड़ा और खजूर के पेड़-सी साँवली लम्बी पत्नी, जो निरन्तर सिगरेट फूंकती, सात्त्विकी ननद का कलेजा भी फूंक गई थी।

यहीं से अन्ना ने अपने जीवन की एक सर्वथा नवीन सोपान पंक्ति पर डगमगाता कदम रखा था।

"दीदी, अब तुम यहाँ अकेली नहीं रहोगी-कालिंदी अब बड़ी हो रही है, उसका बाहर जाना बहुत जरूरी है। यहाँ रहकर उसका भविष्य चाहने पर भी तुम नहीं सँवार सकोगी-तुम अब मेरे साथ रहोगी..."

कालिंदी तो मामा के प्रस्ताव को सुनते ही उल्लसित हो उठी। वह अब दिल्ली जा रही है, वहीं पढ़ेगी, वह भागकर अपनी सब सहपाठिनियों से कह आई, "मामा कहते हैं, अब हिन्दी माध्यम से पढ़ने पर कुत्ता भी दुम नहीं हिलाता। कहते हैं, मैं गणित में बहुत अच्छी हूँ, मुझे डॉक्टरी पढ़ाएँगे मामा..."

अन्नपूर्णा को भाई का उदार प्रस्ताव मान्य नहीं था। ये खेत-खलिहान, पिता का यह घर, जिसमें उसके अभिशप्त जीवन की अनेक स्मृतियाँ बिखरी पड़ी थीं और फिर प्राणों से प्रिय यह शहर कैसे छोड़ सकती थी वह ?

पर देवेन्द्र ने उसकी एक नहीं सुनी। वह उसे एक प्रकार से घसीटकर ही अपने साथ ले गया। समय एक बार फिर धामन सर्प की तीव्र गति से भागने लगा-देवेन्द्र की नौकरी उसे उसकी कर्मठता, निष्ठा एवं ईमानदारी का सर्वोच्च पुरस्कार दे चुकी थी। बहुत बड़ी कोठी थी, हाथ वाँधे अर्दली, संगीन ताने द्वार पर खड़े पुलिस के द्वारपाल, बरसाती में खड़ी कार, सजा-सँवरा बैठक, उससे भी दर्शनीय सजी-सँवरी सौम्या जीवन सहचरी शीला। बस, एक ही कृपणता कर गया था विधाता, विवाह की सुदीर्घ अवधि बीत जाने पर भी शीला मातृत्ववंचिता ही रह गई थी। इसी से कालिंदी को दोनों ने पूरी कानूनी कार्रवाई सम्पन्न कर गोद ले लिया था-देवेन्द्र का सपना पूरा हुआ। वह डॉक्टरी पूरी कर इन्टर्नशिप कर रही थी कि एक दिन अचानक उसे कार स्टार्ट कर, मेडिकल कॉलेज जाते देख देवेन्द्र को भी सत्यनारायण की कथा के साधु वैश्य की भाँति उसके विवेक ने झकझोर दिया, “शीला, कालिंदी के लिए हमें अब सुयोग्य वर ढूँढ़ना चाहिए-कहीं ऐसा न हो..."

"नहीं।" शीला ने उसे बीच ही में टोक दिया था, “वह महेन्द्र-नरेन्द्र नहीं है, संस्कारी लड़की, है, कभी अपना स्वयंवर स्वयं नहीं रचाएगी-आज तक तुमने उसके किसी डॉक्टर मित्र को घर पर आते देखा है?"

"किन्तु विवाह, जन्म-मरण क्या हमारे वश में रहते हैं शीला?" अन्नपूर्णा ने कहा था, “जब घड़ी आएगी, तुम्हें आयोजन करने का भी शायद समय नहीं मिलेगा-मैंने तो इसे जन्म ही दिया है शीला-पाल-पोसकर योग्य तुम्हीं ने बनाया है, तुम जहाँ भी इसका सम्बन्ध स्थिर करोगी-न उसे कभी आपत्ति होगी, न मुझे..."

हुआ भी यही था, वह रिश्ता जैसे आकाश से ही सीधा टपककर शीला की गोद में गिरा था-उसकी बड़ी बहन मीरा ने कैनेडा से सुदीर्घ पत्र में उस प्रवासी पर्वतपुत्र का अता-पता, चित्र, वंश-परिचय-सबकुछ भेजकर लिखा था, “आँख बन्द कर हाँ कर सकती हो शीला, उस पर लड़का डॉक्टर है, तुम्हारी भानजी भी डॉक्टरनी है, इस पेशे में ऐसी ही जोड़ी लोग ढूँढ़ते हैं। लड़का इसी गरमी में भारत आ रहा है, उसके पिता की दुबई में बहुत बड़ी फैक्टरी है, तुम हाँ कर दो, फिर वे स्वयं आकर देवेन्द्र से बात कर लेंगे..."

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