नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
|
3 पाठकों को प्रिय 430 पाठक हैं |
एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
पन्द्रह वर्ष की आभूषणविहीना पुत्री-स्वयं एक भार बनकर पितृगृह नहीं आई है,
एक अन्य भार को भी वहन कर पिता का दायित्व बढ़ाने आई है, यह बेचारे पंडितजी
कैसे जान पाते? घर में कोई स्त्री तो थी नहीं, माँ अपने बड़े पुत्र के साथ
रहती थीं, जब वह दुःसंवाद पाकर आईं तो वे पौत्री के पांडुरवर्णी कुम्हलाए
चेहरे को देखते ही उबल पड़ीं, “हरामजादे को बाप बनने की तो बड़ी जल्दी पड़ी
थी, क्यों री, बाप को नहीं बताया तूने?"
मूर्खा दादी! संसार की कौन-सी पुत्री स्वयं अपने मुँह से पिता से अपनी इस
अवस्था का संकेत भी जिह्वान पर ला सकती है? दादी के लाख मना करने पर भी
पंडितजी ने दूसरे ही दिन से उसके हाथ में खड़िया-पाटी थमा दी। धीरे-धीरे उसने
नवीन जीवन के उलझे तागे स्वयं सुलझा लिये-विवाह से पूर्व ही वह पिता के साथ
काशी जाकर मध्यमा की परीक्षा दे आई थी, अब उसने साधिकार पिता के सचिव का
कार्य सम्हाल लिया।
दादी बड़बड़ाती रहतीं, “एक तो लड़की का भाग्य ही खराब है, उस पर बाप रही-सही
कसर पूरी कर रहा है। अरे क्या बनाएगा उसे, पुरोहित? आज तक किसी स्त्री को
पौराहित्य करते सुना है? न विनने-फटकने में मन है लड़की का, न सिलाई-बिनाई
में, घाघरी गले से बँधी है, न जाने कव दर्द उठ जाए पर इसे खड़िया-पाटी से ही
फुर्सत नहीं! अरे रुदिया, क्यों दिमाग खराव कर रहा है उसका?"
पर अन्ना तो अपनी समवयसिनी लड़कियों के मानसिक स्तर से बहुत ऊपर उठ चुकी थी।
सहृदय पिता ने उसे बाँहों में उछाल विपुल व्योम में त्रिशंकु-सा लटका दिया
था, जहाँ की निःसीम शून्यता में दिन-रात विचरण करती, वह अनन्त तारिकाओं में
गमनशील स्वभाव की रहस्यमयी भाषा पढ़ने लगी थी-सूर्यादि ग्रहों के स्वभाव,
विकार, वर्ण, प्रभाव, उनके उर्ध्वगामी तोरण दंड-वक्र अनुवक्र, ग्रहों के
नक्षत्रों के साथ समागमन। सप्तर्षियों का संचार उसे क्रमशः बटलोई में भड़कती
दाल को चलाने से कहीं अधिक रोचक लगने लगा था। पिता उसे आढ़क, द्रोण, कुडव,
नाडिका, पराकाष्ठा, कला एवं ऋतु की परिभाषाएँ समझाते और वह अपनी विलक्षण
स्मृति के सहारे दूसरे ही दिन बालशुक की तत्परता से रटकर पिता को सुना देती
तो गद्गद. होकर कहते, “मैं जानता था अन्ना, तेरा समराशिगत लग्न, गुरु और
शुक्र तुझे ऐसा ही वैदुष्यसम्पन्न बनाएँगे-तू एक दिन वेदान्त शास्त्रज्ञा
बनेगी बेटी..."
किन्तु पुत्री की रसना में उस अलौकिक विद्या का स्वाद चटा मात्र ही पाए थे
रुद्रदत्त भट्ट-अन्नपूर्णा ने पुत्री को जन्म दिया और वह सौर में ही थी कि
खोई गाय को ढूँढ़ने निकले रुद्रदत्तजी पहाड़ से फिसल ऐसी गहरी घाटी में सदा
के लिए अदृश्य हो गए कि लाश भी नहीं मिली। जिसने असंख्य जन्मकुंडलियाँ बना
अपनी सटीक भविष्यवाणियों से अनेकानेक कृतज्ञ यजमानों को भविष्य के प्रति
सावधान किया था, वे स्वयं अपनी जन्मकुंडली क्या नहीं बाँच पाए होंगे?
“बाबू ने मुझसे एक दिन कहा था दादी,” अन्ना ने आँखें पोंछकर कहा, "मेरा मारक
योग आसन्न है बेटी, पर तेरा कभी कोई अनिष्ट नहीं कर पाएगा-जहाँ दैवज्ञ का वास
होता है, वहाँ पाप प्रवेश नहीं कर पाता।"
शोक-जर्जरिता वृद्धा दादी फिर वहीं आकर रहने लगीं, पर खेत-खलिहान को देखने को
किसी पुरुष का होना अनिवार्य था, अन्ना का बड़ा भाई पिता के जीवनकाल में ही
अच्छी नौकरी पा गया था, पंडितजी ने ही उसका विवाह देख-सुनकर किया था पर ठगे
गए-बहू पढ़ी-लिखी थी, बहुत बड़े बाप की इकलौती बेटी थी, सो उन्होंने कंचन का
लोभ दिखा उसे घर-दामाद बना लिया। फिर तो वह ससुर के खूटे से ऐसा बँधा कि पिता
से सम्बन्ध ही तोड़ लिया। उनकी मृत्यु पर आया भी तो अकेले और बिना अशौच पूरा
किए, बिना सिर मुँडाए ससुराल लौट गया-वृद्धा दादी, दोनों अबोध भाई और
आश्रयहीना सहोदरा, कोई भी उसे नहीं रोक पाया।
पढ़ी-लिखी न होने पर भी अन्ना की दादी बड़ी दबंग महिला थीं। उन्होंने दो-तीन
नौकर रख लिये, पुत्र की समृद्धि को तिलमात्र भी नहीं खिसकने दिया बुढ़िया ने,
“महेन्द्र तो हमारे लिए कपूत ही सिद्ध हुआ है छोकरो, पर तुम दोनों को बाप की
नाक ऊँची रखनी है। तुम यहाँ पढ़ाई पूरी कर लो, फिर तुम्हें इलाहाबाद भेजने का
जिम्मा मेरा, मैं दूंगी पूरा खर्चा और याद रखो, तुम्हें अपनी इस दीदी और
भानजी को जन्म-भर आश्रय देना है, अपने बड़े भाई की तरह अपनी बहुओं के लहँगों
के तम्बू में सिर मत छिपाना।"
कैसा अद्भुत शहर था तब अल्मोड़ा! नवजात शिशु की देह से जैसी मीठी-मीठी खुशबू
आती है, वैसी ही देहपरिमल थी उस शहर की। देहरी में गुलाबी धूप उतरते ही दादी
कटोरी में गर्म तेल लेकर, दोनों पैर पसार उस पर उसकी नग्न गुलगोथनी पुत्री को
लिटा, रगड़-रगड़कर उबटन लगातीं, "अरी अन्ना, दान किए हैं तूने, ऐसी सुन्दरी
राजरानी चेहड़ी (लड़की) को जन्म दिया है-ऐनमैन अपनी नानी पर गई है, ऐसा ही
दूध का-सा उजला रंग था तेरी माँ का, पर तेरे बाप ने इसका नाम कालिंदी क्या
देखकर रखा? कालिंदी का जल तो काला होता है, क्यों? और फिर हमारे यहाँ कहते
हैं, लड़की का नाम नदी या नक्षत्र पर नहीं रखना चाहिए, कमला रख दे इसका
नाम-साक्षात् कमला ही है।"
क्या नाम बदलने से ही लड़की का भाग्य बदल जाता?
धीरे-धीरे कालिंदी घुटनों के बल चलती, उसके पोथी-पत्रे बिखेरने लगी, फिर
दोनों मामाओं की अंगुली पकड़ नन्दादेवी का मेला देखने जाने लगी और फिर वह
स्वयं जाकर उसे उसी स्कूल में भर्ती करा आई जहाँ उसने पढ़ा था। मँझले मामा
देवेन्द्र के लाड़ ने उसे जिद्दी बना दिया था, वह उसे चौबीसों घंटे कन्धे पर
चढ़ाए रहता। छोटा नरेन्द्र अपनी पढ़ाई में किसी प्रकार के व्याघात को सह नहीं
सकता था, वह उसकी किताबों को इधर-उधर करती तो वह कभी-कभार थप्पड़ धर देता और
वह तीनों लोक अपने क्रन्दन से कँपाती, मँझले मामा से शिकायत करती-छोटे मामा
ने मारा!
|