नारी विमर्श >> कालिंदी कालिंदीशिवानी
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एक स्वयंसिद्ध लड़की के जीवन पर आधारित उपन्यास..
लड़का सचमुच सुदर्शन था। काश, उसकी कुंडली एक बार अन्ना देख पाती!
"कैसी बातें करती हो दीदी? अब कौन यह सब मानता है! फिर उनका एकदम साहबी
कारोबार है, वर्षों से भारत आए ही नहीं, और फिर जब हमें हर तरह से रिश्ता
पसन्द है और हम हाँ कहने जा रहे हैं तो कुंडली की माँग कैसे कर सकते हैं?"
शीला ने कहा।
“देखो दीदी, दादी कहती थीं न, पानी पी कुल पूछना नहीं भली है बात। अब कहाँ के
पन्त हैं और कहाँ के पांडे, उनके इष्ट कौन हैं--यह सब पूछना इस युग में
मूर्खता ही कही जाएगी। अब हमारे नरेन्द्र की ही ससुराल के कुलगोत्र का कोई
ठिकाना है?"
देवेन्द्र बड़े जोश में कह तो गया पर जब से उसने सुना था कि उनके सम्बन्ध कुछ
सुविधा के नहीं हैं, उसका कट्टर सनातनी चित्त भी आश्वस्त नहीं हो पा रहा था।
विवाह के पूर्व, दुबई के प्रभावशाली समधी सजीले डिब्बों में भरे नमकीन,
अधमुँदे पिश्ते और काजू-बादाम लेकर मिलने भी आए थे और उसी दिन भावी पुत्रवधू
को हीरे की बड़ी-सी सौलिटेयर अँगूठी पहनाकर बात पक्की भी कर गए थे।
अन्नपूर्णा ने द्वार की ओट से ही समधी को देखा, "मैं जाकर क्या करूँगी शीला,
तू ही चली जा।"
इसके बाद भी रामेश्वर जोशी एक-दो बार आए। एक बार तो सामान्यसा आग्रह करने पर
खाने को भी रुक गए, बड़ी देर तक बन्द कमरे में देवेन्द्र के साथ घुल-मिलकर
बातें भी होती रहीं, जाने लगे तो बोले, “एक बार कालिंदी से मिल सकता हूँ
क्या?"
“वह तो आज नाइट ड्यूटी पर गई है, कहिए तो बुलवा दूँ?" शीला ने बड़े उत्साह से
कहा।
“नहीं, नहीं, अब तो अगले महीने हमारी ही होकर आ रही है। वह तो सोच रहा था, कल
सुबह की फ्लाइट से जा रहा हूँ, एक बार जाने से पहले बहू से मिल लेता..."
आश्चर्य था कि वह तेज-तर्रार लड़की, जो कभी किसी अपरिचित व्यक्ति की ओर आँख
उठाकर भी नहीं देखती थी, कैसे एकदम इस रिश्ते के लिए राजी हो गई। स्वयं शीला
को भी ऐसी त्वरित स्वीकृति की आशा नहीं थी। एक बार उसने उड़ती नजर से मामी के
दिखाए गए चित्र को देखा।
"तुझे कोई आपत्ति तो नहीं है कालिंदी? ठीक से तो देख, कैसी तीखी नाक है और
कैसी दिव्य हँसी!"
"मुझे नहीं देखना है मामी, मुझे ड्यूटी पर जाना है। चलूँ, माधवी कार लेकर आती
ही होगी। उसने कहा है, मुझे पिकअप करेगी..."
"अच्छा, आने दे उसे, उसकी भी राय ले ली जाए।"
माधवी कालिंदी की अंतरंग सहपाठिनी थी। वह तो चित्र देखते ही उछल पड़ी, "हाय,
कितना स्मार्ट है मामी, और इस कम्बख्त ने हमें कुछ भी नहीं बताया-कब होगी
शादी? क्या फिर यह कैनेडा चली जाएगी?" वह अचानक उदास हो गई।
"और क्या!" शीला ने हँसकर कहा, “क्यों, हनीमून तेरे साथ मनाएगी क्या?"
विवाह की तारीख पक्की हो गई थी, पन्द्रह ही दिनों की संक्षिप्त अवधि में
तैयारियाँ करते-करते शीला और अन्नपूर्णा अधमरी हो गईं, “पैसा गाँठ में हो तो
दिल्ली में आधे घंटे में सब चीजें जुटाई जा सकती हैं दीदी, चिन्ता क्यों करती
हो, मैं सब कर लूँगी। फिर विदेश जा रही है, फ्रिज, फर्नीचर, टेलीविजन देने का
बवाल तो होगा नहीं-सब कैश दे देंगे।" शीला का उत्साह बाँध तोड़ती वेगवती
नदी-सा ही बहा जा रहा था। पहाड़ के पुरोहित से लेकर सोहागपिटारी, सूप, कुमाऊँ
के हास्यास्पद मुकुट, ज्यूँती रंग वाली के दुपट्टे- सब आ चुके थे। छोटा मामा
नरेन्द्र वाशिंगटन में था। उसका आना असम्भव है लिखकर उसने किसी के हाथ सोने
के चार बिस्कुट भेज दिए थे।
“आजकल के मामा ऐसा ही भात भेजते हैं दीदी," देवेन्द्र ने हँसकर कहा था,
"निखालिस सोने की बासमती, समधी को थमा देंगे, खुश हो जाएँगे..."
बड़े मामा-मामी अपनी नकचढ़ी पुत्री नेहा को लेकर विवाह के एक ही दिन पहले आ
पाएँगे, उन्होंने लिखा था : "नेहा को फ्लू हुआ है, डॉक्टर ने कहा है, उसे
एक्सपोज करना ठीक नहीं, वैसे ही डेलिकेट है, बीमार ही रहती है।"
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