नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
ऐसी भड़कीली गाड़ी, धारचूला में पहली बार आई थी, इसी से बच्चों के साथ-साथ,
सयानों का भी झुंड, गाड़ी को गाइड करता, ठीक राजी के द्वार तक ले आया था।
"राजेश्वरी देवी, क्या इसी मकान में रहती हैं?"
“आइए," वहीं पर हाथ धो रही थी राजी। आँचल से हाथ पोंछती राजेश्वरी के लिए
अभ्यर्थना के अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं रह गया था। न वह भीतर भाग सकती
थी, न बाहर। उठने की हड़बड़ी में जीर्ण साड़ी का एक बहुत बड़ा भाग,
निर्लज्जता से चरचराता चर्र कर फटता गया और वह सम्मुख खड़ी, लाल रेशमी साड़ी
में अग्निशिखा-सी लपटें मारती, उस युवती के सम्मुख कटकर रह गई।
“आई वाज राइट मम्मी, ये ही मकान है।" अब चौंककर, राजेश्वरी ने दुबारा सम्मुख
खड़ी उस युवती को देखा।
वह बड़ी धृष्टता से मुस्कुराई, “नहीं पहचान सकीं न? अभी पन्द्रह दिन पहले तो
आपके यहाँ रहकर गए हैं, इतने ही दिनों में भूल गईं।"
वह फिर हँस-हँसकर कहने लगी, "फिर हम बिना पर्वतारोहण के ही घर लौट गए। मौसम
बेहद बुरा हो गया था। घर पहुँचते ही हमने अपने आतिथ्य की और आपकी रूपवती
पुत्री के रूप की, मम्मी से इतनी तारीफ की कि वे स्वयं ही आपसे मिलने भागती
चली आईं। अभी तो हमारे दल में पूरे दस लड़के हैं-एक-एक कर, शायद प्रत्येक
कुँआरा सदस्य अपनी मम्मी को आपके पास भेजेगा!" और वह फिर ठठाकर हँसने लगी।
“चुप कर," हाथ का विराट बटुआ हिलाती, पुत्री से कहीं अधिक आकर्षक, एक अन्य
महिला के ऐश्वर्य-मंडित चेहरे को देखकर, सहसा राजी को अपनी फटी धोती का स्मरण
हो आया।
“आप भीतर चलकर बैठें, मैं एक मिनट में साड़ी बदलकर आती हूँ। असल में, छोटी
जगह है। राज-मिस्त्री, सहज में जुटते नहीं, रंग, चूना, सब काम खुद ही सँभालना
पड़ता है।" वह अपने अस्वाभाविक कार्य-कलाप की कैफियत देती उन्हें भीतर ले
चली।
सोपानारूढ़ा चन्दन सीढ़ी पर बैठी उनका विचित्र वार्तालाप सुन रही थी। उसकी
समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह चूने की बाल्टी और हाथ की झाड़ लिए नीचे उतर
आए या वहीं दुबकी रहे। अम्माँ अतिथियों को लेकर भीतर जा रही थी, वह उनके जाते
ही, नीचे उतर पिछवाड़े के मार्ग से अपने कमरे में जाकर अब कपड़े बदल सकती थी।
पर उसी योजना की ललक में न जाने कब उसका हाथ कांपा और कब टप से चूना सनी झाड़
माननीय अतिथि-दल के चरन चूम उठी। लाल रेशमी साड़ी पर चूने का ‘बातिक' बिखर
गया।
महिमामयी माता और पुत्री की आँखें एकसाथ ऊपर उठीं और अनाड़ी मिस्त्री के
सलोने चेहरे पर जड़ गईं।
सोनिया जोर से हँसने लगी, “लुक ऐट हर, मम्मी! कहा था न मैंने? . इजन्ट शी ए
ब्यूटी?"
और पुत्री की जन्मदात्री को समझते देर नहीं लगी कि क्यों उसके पुत्र ने उसे
एक प्रकार से धक्का देकर, इतनी ठंड में भेज दिया था। वही पुत्र, जो पुत्र
होकर भी, कभी-कभी शत्रु का-सा बन, उसके चित्त को सालने लगता था। दो वर्षों से
माँ-बेटे में बोलचाल, एक प्रकार से बन्द ही थी। जो वह कहती, विक्रम ठीक उसका
उलटा करके रख देता। पर इस बार उसने स्वयं सोनिया से माँ को सन्देशा भिजवाया
था कि वह पहाड़ में जिस लड़की को देख आया है, उसी का रिश्ता माँ जाकर माँग
लाए। रुक्मिणी जैसे आकाश से गिरी थी। यह क्या सुन रही थी वह! आखिर, उसका
जंगली बिलाव-सा बेटा, ऊँचे पेड़ से नीचे कूद ही आया?
दो पुत्रों और एक पुत्री की शिक्षा में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
छुट्टियों में दोनों बेटे अपनी पब्लिक स्कूल की अंग्रेज वर्दी में चमकते घर
लौटते तो उसे बड़ा सन्तोष होता। फटाफट अंग्रेजी बोलनेवाले, माँ को उठते ही
'गुड मॉर्निंग' और 'गुड नाइट' के गुलदस्ते भेंट करनेवाले, उसके
ऐंग्लो-इंडियन-से ही लुभावने चेहरे-मुहरेवाले दोनों राजपुत्र, युवा होने पर
माँ को न जाने किन-किन उपहारों से लादकर रख देंगे। पर जब, यथार्थ ने विपरीत
पैंतरा बदलकर रुक्मिणी की छाती में ही खंजर झोंक दी, तो वह सँभल भी नहीं पाई।
वयस के साथ-साथ पुत्रों की अबाध्य दुरन्त गतिविधि में निरन्तर विकास होने लगा
था। बार-बार, उनके विदेशी प्रिंसिपल की चेतावनी आती रहती, किन्तु रुक्मिणी तो
कब की कानों में रुई लूंसे पड़ी थी। पति के व्यवसाय ने गृह में समृद्धि की
नहर खोलकर रख दी। स्वयं अभाव में पले गजानन, कृपणता से कुछ संचय करने की
चेष्टा भी करते तो रोबदार सुन्दरी पत्नी उन्हें चीरकर रख देती।
'बाप-दादों ने पैसा खर्चा किया होता तो तुम्हारा दिल भी बड़ा होता।' वह स्वयं
अपने समृद्ध मायके का प्रच्छन्न उल्लेख करती, विवाह से ही दबाए पति को और दबा
देती। बेचारे गजानन, पत्नी को प्रसन्न करने के लिए, अपना सिर भी काटकर उसके
चरणों में डाल सकते थे, फिर उसके आदेश को टाल ही कैसे सकते थे? नित्य
वैयक्तिक विलासपूर्ति की अनावश्यक सामग्रियों से गृहसज्जा में चार चाँद लगने
लगे। लक्ष्मी की क्रूर दृष्टि से सहमकर गृह की मर्यादा कोने में इधर-उधर
दुबकती एक दिन सहसा ही विलीन हो गई। गजानन अपने व्यवसाय की दूर-दूर तक फैली
जड़ों को सँभालने इधर-उधर भागते रहते। रुक्मिणी की शृंगारप्रियता, बढ़ती वयस
के साथ-साथ निर्लज्जता से बढ़ती चली जा रही थी। एक से एक भड़कीली साड़ियों और
नए-नए कट के आभूषणों की छटा बिखेरती वह अपनी अत्याधुनिक सज्जा में सजे
दीवानखाने में बैठी, ताश के पत्तों पर घर बनाती और बिगाड़ती रहती। कभी-कभी
रात के बारह-बारह बजे तक ताश की वह महफिल चलती रहती, जिसमें स्त्रियों की
उपस्थिति तो अँगुलियों पर गिनी जा सकती थी; किन्तु उससे आधी वयस के युवा,
सजीले पुरुषों को गिनने के लिए शायद चार हाथों की अँगुलियाँ भी कम पड़तीं।
पहले दबे स्वरों में कानाफूसियाँ चलीं, फिर लोग खुलेआम रुक्मिणी के निर्लज्ज
आचरण की निन्दा करने लगे। किन्तु अपनी मुट्ठी-भर मुहरों से, वह अब किसी भी
कठोर आलोचक का मुँह बन्द कर सकती थी।
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