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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


"तुम क्या बिना किसी से सीखे ही खाना-बाना सब बना लेती हो?" सोनिया ने आश्चर्य से पूछा। स्वयं उस निपुणा नागरिका ने, मेज पर काँटे-छूरी के विदेशी मापदंड में निर्धारित स्थिति को रटने में दो वर्ष बिता दिए थे।

"और क्या?" चन्दन ने हँसकर कहा था, "खाना पकाना भी भला पहाड़ की लड़कियों को सीखना पड़ता है!" वह तो मैं अम्माँ को देख-देखकर ही सीख गई थी।

'तब ही तो!' सोनिया ने मन ही मन कहा।

वह तो अपनी अम्माँ से सीख सकती थी, किन्तु सोनिया बेचारी अपनी माँ से सीख ही क्या सकती थी? भाभी, साल में छह महीने विदेश घूमती रहती और मम्मी? वह क्या अपने लिए एक अंडा भी उबाल सकती हैं?

पर यह लड़की तो सचमुच ही गजब की थी। सुबह हुई और वह चौके में चली गई। पीछे-पीछे जाकर, सोनिया खड़ी हो गई, और माँ-बेटी की कार्यकुशलता देखकर दंग रह गई।

एक, चूल्हे में लकड़ियाँ खिसकाकर, धप्प से सधी लौ निकाल देती, जैसे गैस का चूल्हा हो। दूसरी, चटपट दर्जन-भर गिलास माँज, किसी कैंटीन के स्वामी की दक्षता और अन्दाज से, मुट्ठी-भर चाय की पत्तियाँ छोड़, दर्जन-भर गिलासों में सुनहली चाय छलका देती।

इस बार भी, खुद, दीवानखाने में चाय पहुँचाने, राजेश्वरी धोती सँभाल ही रही थी कि चील का-सा झपट्टा मार, गिलासों से सजी दो थालियों में से एक को चन्दन ने उठा लिया और दूसरी को सोनिया ने। इससे पहले कि राजेश्वरी आँखों के अंकुश से चन्दन को कोंचती, वे दोनों जा चुकी थीं। चाय गर्म है या ठंडी, चीनी कम है या ज्यादा, वह सोचने के लिए फिर समय ही किसे था?

अपने सौन्दर्य की अपूर्व दिव्य छटा विकीर्ण करती, इस नवोदित बाल-सूर्य की अरुण रश्मियाँ माँ के आते ही फिर अँधेरे कमरे की बदली में छिप जाएँगी, यह वे दिल्ली के चतुर नटवर नागर जान गए थे। एक साथ ही ग्यारह हाथ, सोनिया की चाय छोड़ चन्दन के परिवेशित थाल पर भूखे कंगलों-से ऐसे टूट पड़े कि थाली हिलकर, चाय लानेवाली की मीठी ढेर सारी हँसी छलककर पूरे कमरे में बिखर गई।

“दाँत तो देख सोनिया, लगता है, एकदम मम्मी के बसरावाले पर्लस्ट्रिग हैं।" वही सुदर्शन लड़का बहन के कानों के पास, फुसफुसाकर कहने लगा, जिसकी सुमधुर याचना ने कठोर राजेश्वरी को भी जीत लिया था।

"क्यों? कहो तो यह स्ट्रिंग भी मम्मी के कलेक्शन में एड कर दी जाए, क्यों क्या ख्याल है तुम्हारा?" बहन ने हँसकर कहा और तब ही कमरे में अचानक टपक पड़ी राजेश्वरी ने देखा, दोनों शहरी चेहरे उसकी पुत्री को देखते, न जाने कौन-सी मन्त्रणा में फुसफुसा रहे हैं।

“चन्दन जा, चूल्हे पर दूध रख आई हूँ, वहीं बैठकर देखती रहना, कहीं उबाल न आ जाए।" माँ की कठोर दृष्टि को देखते ही चन्दन समझ गई कि उतने सारे लड़कों की बैठक में उसकी उपस्थिति ने माँ को अप्रसन्न कर दिया है और उनके जाते ही कभी भी वे उस पर बरस पड़ेंगी।

इधर सब व्यर्थ मनाते रहे कि चूल्हे की तेज आँच में जल्दी से दूध उबालने वाली, कड़ाही उतारकर एक बार फिर उनके बीच आ जाए; पर वह नहीं आई।

वह आती या न आती, पर्वतारोही दल की विदा से ठीक पन्द्रहवें ही दिन, राजेश्वरी को ढूँढ़ती एक ठाठदार 'शेव' आकर उसके द्वार पर खड़ी हो गई।

राजेश्वरी, पहले तो हक्की-बक्की-सी रह गई। दिन-भर, माँ-बेटी ने कमरों की लिपाई-पुताई की थी। जब ढूँढ़ने पर भी, राजमिस्त्री नहीं मिले तब राजेश्वरी ने स्वयं ही बाजार से गारा-चूना लाकर, कमर कस ली।

राजेश्वरी दो महीना रहकर भी, जब पुत्री के लिए कोई सुपात्र नहीं जुटा पाई, तब उसने हारकर हथियार डाल दिए। वर तो नहीं मिला, पर सम्भ्रान्त किरायेदार मिल गया था। उसी को घर साफ-सूफकर सौंप, वह बोरिया-बिस्तरा बाँध प्रत्यावर्तन का संकल्प कर चुकी थी। साथ ही छुट्टियाँ भी खत्म हो चली थीं।

एक फटी-सी धोती पहने, वह हाथ का चूना, झावें से घिस-घिसाकर बहा रही थी। उधर, एक गुलाबी चूड़ीदार और ढीले कुर्ते में सलोने चेहरे पर, चूने-गारे की अपूर्व कशीदाकारी छिटकाती चन्दन, बालों को गर्द से बचाने को गुलाबी चुन्नी का साफा-सा बाँधे एक टूटी अधेड़ रस्सियों से बँधी सीढ़ी पर चढ़ी, माईकेल ऐंजेलो की-सी आत्महारा लगन से पहाड़ी मकान की ऊँची छत को रँग रही थी। वैसे राजेश्वरी कभी उसे चूड़ीदार नहीं पहनने देती थी। एक तो छोकरी उस मुसलमानी पहरावे में और भी सुन्दर लगने लगती थी; दूसरे, जिस स्नेही मुस्लिम परिवार ने, उसे वह अनुपम जोड़ा ईद पर सिलवाकर भेंट किया था, उसे वह फूटी आँखों नहीं देख सकती थी। पर चूँकि उस दिन कमरे में बन्द रहकर काम करना था और रणधीर सिंह भी काठमांडू चला गया था, इसी से राजी को पुत्री के वह परिधान ग्रहण करने में, कोई आपत्ति नहीं रही थी।

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