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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


पुत्री सोनिया, तीन-चार बोर्डिंग स्कूलों से अधूरी शिक्षा की ही पोटली बाँधकर, खोटे सिक्के-सी घर लौट आई थी। जिस स्कूल में दोनों भाई पढ़ते थे, वहाँ की ऊँची शिक्षा का बहुत बड़ा महत्त्व था। वार्षिक किस्तों में दी गई ऊँची फीस, साधारण वर्ग के माता-पिता नहीं चुका सकते थे, किन्तु जो चुका सकते थे, उन भाग्यशालियों के पुत्रों के लिए यह एक प्रकार से भविष्य का सुनहला जीवन बीमा था। टी-गार्डन की वे नौकरियाँ, जहाँ सुरा और सुन्दरी दोनों का अभाव नहीं रहता, या फिर बर्मा शेल, किसी विदेशी फर्म के राजसी ग्रास, उद्योगपतियों का मंत्रिपद-सबकुछ इन प्राक्लन छात्रों के लिए स्वयं यह सुख्यात पब्लिक स्कूल, जुटाकर उनके करतल पर रख देता।

इसी से रुक्मिणी के बड़े पुत्र चन्द्रगुप्त को, ऊँची नौकरी जुटाने में विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ा। वैसे तो रुक्मिणी, बहू भी अपने ही समाज की लाई थी, किन्तु अपने समाज का वह चमकता सोना भी खोटा ही निकला। स्वयं रुक्मिणी ने ही, भावी पुत्र-वधू को ठोंक-पीटकर छाँटा था। जिन पुत्रों को उसने विदेशी स्कूलों में पढ़ाया था, विदेशी भाषा में ही हँसना, बोलना और खिलखिलाना सिखाया था, जिनकी 'राम' को 'रामा' और 'सीता को 'सिता' पढ़नेवाली शैशवावस्था की त्रुटि को वह अपने ऊँचे तबके की होंठरँगी गतयौवनाओं को बड़े गर्व से सुनाया करती थी, उन्हें भला हिन्दी स्कूलों की पढ़ी लड़कियाँ कभी पसन्द आ सकती थीं? इसी से उसकी पहली शर्त थी कि उसके गृह की देहरी लाँघने के पूर्व कन्या को अपनी कनवेंट शिक्षा का प्रवेशपत्र दिखलाना होगा। उसकी बड़ी बहू ने यह शर्त बड़ी सुगमता से पूरी कर दी थी। वह शिमला के 'तार हॉल' की पढ़ी थी, जो रुक्मिणी की शर्त में पूरा-पूरा ठीक उतरता था। दूसरी शर्त थी, लड़की सुन्दर अवश्य हो। सुमीता इस शर्त की हर्डल को भी बड़ी सुगमता से फाँद गई थी। लड़की असाधारण रूप से सुन्दरी न होने पर भी आकर्षक थी, यह ठीक था कि उस आकर्षण में कुछ अंश उसके पिता के वैभव का था, कुछ उसकी ऊँची शिक्षा का और कुछ स्वयं उसकी प्रसाधनकला में निपुण अंगुलियों का।

किन्तु विवाह के छठे ही महीने, रुक्मिणी जान गई कि उसकी दोनों शर्तों को पूरा करने पर भी बहू के पिता उसको किसी वाचाल चतुर दुकानदार की ही भाँति ठग गए थे। गुस्सा, सुमीता की नाक पर रहता, बिगडैल घोड़ी की भाँति वह दुलत्ती झाड़ती, कभी-कभी आधी रात को चन्द्र को कमरे से बाहर निकाल देती। ताश की महफिल से उठकर आती तो रुक्मिणी देखती, उसका कभी तेज-तर्रार बेटा, दुम दबाए पिटे कुत्ते-सा ही कारीडोर में बैठा पुस्तक पढ़ रहा है।

"क्यों रे, इतनी ठंड में तू यहाँ क्यों है? अपने कमरे में क्यों नहीं पढ़ता?"

"ओह मम्मी, मैं जहाँ चाहूँ वहाँ पढ़ नहीं सकता?" उसका गाय-सा सीधा बेटा हँस-हँसकर माँ को भुलाने की चेष्टा में उसे गुदगुदाने की व्यर्थ चेष्टा करता। “असल में सुमीता को रोशनी में नींद नहीं आती, इसी से यहाँ पढ़ रहा हूँ।"

पर धीरे-धीरे रुक्मिणी सब समझ गई। बहू उसी के सामने, जीन्स और जर्सी में कठपुतली-सी सजी-धजी सिगरेट फूंकती रहती, पर वह कह ही क्या सकती थी? क्या स्वयं उसी का किया उसके सामने नहीं आ रहा था। जब वह देर-देर तक ताश खेलकर लौटती तो देखती, न जाने कब से उसका पति, उसकी अनुपस्थिति में ही बिना खाए-पिए पलंग पर सो रहा है। न जाने कितने लम्बे व्यावसायिक दौरों की क्लान्ति, विदेशी राराय, भटियारखाने का असंयम और गृहिणी की उदासीनता, उसे बेहोशी में डुबाकर, दूसरे दिन दस बजे तक, अचेतन निद्रा में सुलाए रखती। अब तो दोनों पति-पत्नी, एक-दूसरे की उदासीनता को बड़ी स्वाभाविकता से ग्रहण कर चुके थे। बहू से, वह कुछ कहती भी तो किस मुँह से? दिन-रात विदेश घूम-घूमकर सुमीता कुछ और भी धृष्ट बन गई थी। न उसे सास का भय था, न ससुर की लज्जा। एक पुत्र पति के ही स्कूल में पढ़ रहा था और पुत्री स्वयं उसके स्कूल में। कभी-कभी उनकी स्पोर्ट की छुट्टियाँ होने पर, सुमीता धूप का चश्मा लगाए अपनी बहुमूल्य साड़ियों की छटा बिखेरती, उन अभिभावकों की भीड़ में अकड़कर बैठ जाती, जिनके बच्चे भी उसी के बच्चे की भाँति विदेशी दूध के डिब्बों से स्तनपोषी न रह, 'फैरेक्स' से अपना अन्नप्राशन धन्य कर चुके थे।

कभी-कभी, सास-बहू में कोल्ड वार चलती तो छोटा पुत्र विक्रम भाभी का ही पक्ष लेता।

“तू क्यों नहीं कहता उस बेशरम से?" रुक्मिणी ने, विक्रम को एक दिन फटकारकर कहा था, "तेरे डैडी के सामने, जीन्स पहने घूमती है बेहया!"

"तो क्या हो गया मम्मी, नंगी तो नहीं घूमती, मैं तो सोचता हूँ, जीन्स हिन्दुस्तानी बहुओं की नेशनल-ड्रैस बना दी जानी चाहिए। कम से कम टखनियाँ तो ढंकी रहती हैं। फिर मम्मी, जब तुम्हारी सोनिया, जीन्स पहनकर डैडी के सामने घूम सकती है, तब भला भाभी क्यों नहीं घूम सकतीं?"

रुक्मिणी, फिर कह ही क्या सकती थी? इधर, जब से उसके बैठकखाने में, घनी मूंछों के नीचे, अपनी कत्थे-सनी मुस्कान बिखेरता, नरेन्द्र आने लगा था, तब से उसका यह मुँहफट बेटा, जैसे और भी मुँहफट बना, बिना बात के बगावत की झंडी दिखा रहा था। नरेन्द्र रुक्मिणी के दूर के रिश्ते से ममेरा भाई था। किन्तु विक्रम की घाघ सूझ-बूझ को यह दूर का रिश्ता अधिक दिनों तक छल नहीं सका। बड़े अधिकार से उसके नित्य-प्रयोजन के प्रसाधनों को व्यवहार में लानेवाला, बिना किसी के न्यौते ही घर में आ गया यह दूर के रिश्ते का मामा, उसके सर्वांग में आग लगा देता। कभी विक्रम की इलैक्ट्रिक शेवर लेकर अपना चेहरा चिकना बनाता, वह अंजुली-भर उसका विदेशी ऑफ्टर-शेव-लोशन अनाड़ी की भाँति पोतता, बेसुरी अंग्रेजी झाड़ता, विक्रम को झुंझला देता। कभी-कभी विक्रम उसे माँ के ही सम्मुख झिड़क देता, पर उसकी खाल क्या साधारण मानव की खाल थी? वह अपने गैंडे की खाल पर थोड़ा ओडीकोलीन छिड़कता उसे और चिढ़ाने लगता।

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