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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


उस अनजान छोकरे ने ग्यारह बजे रात को एक ऐसा बेहूदा प्रस्ताव कर दिया था, पर वह एक अक्षर भी नहीं बोली। वैसे भी क्रोध आने पर, वह कभी मुँह से नहीं बोलती थी, उसकी आँखें ही सबकुछ कह लेती थीं।

उसका चेहरा तमतमा गया और आँखों से निकली तीव्र क्रोध की लपटों ने द्वार पर खड़े दुःसाहसी छोकरे को वहीं पूँज दिया। वह अचानक ठठाकर हँसने लगा और बोला, “ओह, समझ में आया, कैसी मूर्खता कर दी थी मैंने!" और फिर वह पटापट अपनी विचित्र वर्दी की लम्बी जिप को सरसराकर खोलने लगा। राजेश्वरी काँप गई। यह क्या? यह बेहूदा छोकरा क्या उसी के सामने नंगा हो जाएगा? हड़बड़ाकर वह द्वार बन्द करने लगी, पर तब तक खुली वर्दी, बाँस खोलकर ढहा दिए गए किसी छोटे तम्बू की ही भाँति नीचे ढहकर गठरी-सी बन चुकी थी। राजेश्वरी ने देखा, उसके सामने कोई लड़का नहीं, छरहरे शरीर की उस लड़के की-सी ही आकर्षक सूरत की एक साँवली हँसमुख लड़की खड़ी थी।

“अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है क्या आपको?" इस बार अपने और भी आकर्षक स्मित की प्रत्यंचा खींच, उसने अचूक निशाना साधा। वर्दी की मंजूषा में छिपी, एक से एक बढ़िया बाजीगरी के प्रसाधन निकालती, वह बातों के मनोहारी विभ्रम में उसे बाँधने लगी। अपने टर्टल नेक (Turtle neck) के स्वेटर के बीच से उसने इस बार किसी संपेरे की ही-सी मुद्रा में छिपी मोटी चोटी खींचकर अपने सुडौल वक्षस्थल के उभार पर लटका दी और ठीक जैसे मदारी कहता है; उसी मीठे अन्दाज में, वह चपला किशोरी चोटी हिलाती अपनी माँ की वयस की राजेश्वरी हो हँस-हँसकर छेड़ने लगी, "असली पदमनाग है, सरकार! गोरखपुर के जंगल से पकड़ा है, किसी को सूंघ भी ले तो अभागा वहीं तड़पकर जान दे दे। जय गुरु गोरखनाथ!"

इस बार पलंग पर चन्दन खिलखिलाकर हँस पड़ी, “क्या बेवकूफी कर रही हो अम्माँ! उन्हें अन्दर तो आने दो। देखती नहीं, ठंड से काँप रही हैं?"

वह बड़ी देर से जगकर धृष्ट प्रस्ताव का आरम्भ और मैलोड्रैमेटिक अन्त सुन रही थी।

कृतज्ञता से उसे देखती वह धृष्टा किशोरी राजेश्वरी के हाँ या ना कहने से पूर्व ही जमीन पर गिरी वर्दी उठाकर भीतर आ गई।

“अब आप ही बताइए, माँजी!" वह कहने लगी, “उतने सारे लड़कों के बीच में भला कैसे सो सकती थी? पर्वतारोही दल में मैं ही एकमात्र लड़की हूँ।"

'नाक कटकर झड़ नहीं जाती यह कहते?' राजेश्वरी ने मन ही मन दाँत पीसकर कहा, 'क्या हुआ था, जो इतने सारे पांडवों के बीच द्रौपदी बनकर आ गई?' पर मुँह से वह एक शब्द भी नहीं बोली।

“अम्माँ, तुम यहाँ सो जाओ, हम दोनों ऊपर के गोदाम में सो जाएँगी, वहाँ ओढ़ने-बिछाने को सब धरा ही है।"

और चन्दन उसे लेकर ऊन के गोदाम में ऐसी स्वाभाविकता से चली गई, जैसे वह उसकी सगी ममेरी-मौसेरी बहन हो। राजेश्वरी पलंग पर लेट तो गई, पर रात-भर उसके शंकालु स्वभाव का भूत उसकी छाती पर चढ़ा ही रहा।

'क्या पता छोकरा कोई सरदार हो?' पर दूसरे ही पल स्वयं उसका विवेक उसके सनकी मूर्ख चित्त की सहस्र धमनियों से धज्जियाँ उड़ा गया।

अपनी चौकन्नी दृष्टि से तो उस बेचारी को एकदम नंगा कर एक्स-रे उतार लिया और फिर भी तुम्हें सन्तोष नहीं हुआ? कोई सरदार किशोर चाहे कितनी ही भोली सूरत क्यों न हो, क्या विधाता-प्रदत्त उस सुडौल अंग-विन्यास के उतार-चढ़ाव को कहीं से उधार माँगकर ला सकता था?

गोदाम का कमरा सबसे ऊपर की मंजिल पर था और आधी रात को शक्की राजेश्वरी दबे पैरों जाकर, उस कमरे के बाहर, कान सटाकर खड़ी भी हुई थी। दो हमउम्र लड़कियाँ एकसाथ मिल जाएँ तो संसार की कौन-सी शक्ति उन्हें चुप रख सकती है? उनकी मैत्री चिर-पुरातन हो या चिर-नवीन, वे पल-भर में जिस आश्चर्यजनक स्वाभाविकता से घुल-मिलकर कच्चे गलों की हँसी से दीवारें ढहा देती हैं, वैसी ही हँसी सुन आश्वस्त होकर राजी अपने पलंग पर आकर सो गई। ठगनी नींद भी उसे छलती रही। फिर यह तो ठीक था कि दोनों इस रात के बाद शायद जिन्दगी-भर कभी नहीं मिल पाएँगी, पर उसने तो अपनी भोली लड़की को नई वहशी सभ्यता से एकदम ही अछूती रखा था और उस सभ्यता की छूत तो एक ही रात में लग सकती थी।

उसकी यह आशंका इस बार निर्मूल नहीं थी।

दूसरे दिन पर्वतारोही दल विदा हुआ तो दोनों, एक-दूसरे के बारे में बहुत कुछ जान चुकी थीं। चन्दन के साथ रात-भर सोनेवाली का नाम सोनिया था। न भाषा और व्यवहार में वह पहाड़ी थी, न रंग-रूप में, फिर भी वह उतनी ही पहाड़ी थी, जितनी चन्दन। वर्षों पूर्व, उसके दादा दिल्ली में जाकर बस गए थे। अब उसके पिता, वहाँ के समृद्ध व्यवसायी थे। वह स्वयं, माता-पिता की इकलौती पुत्री थी। पढ़ने में उसकी विशेष रुचि नहीं थी, इसीलिए वह चंडीगढ़ की किसी प्रसिद्ध गृहप्रशिक्षण संस्था में गृहशिक्षा का कोर्स कर रही थी।

"हाय क्या गृहशिक्षा के भी कॉलेज होते हैं?" भोली चन्दन, आज पहली बार, उस विचित्र प्रशिक्षण के विषय में सुन रही थी। गृहशिक्षा भी क्या सीखनी पड़ती होगी? यहाँ तो उसकी माँ ही ऐसी चलती-फिरती संस्था थी।

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