नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
उसे अचानक कमरे में देखकर वह समझ गए कि राजेश्वरी उन्हें नम्रतापूर्वक
धकियाने-सी चली आई है। चन्दन को न देखा होता तो वे शायद चाय पीकर अपना रास्ता
नाप लेते, पर अब अनजाने ही उनके पैरों में बेड़ियाँ पड़ गई थीं।
“माँजी!" उनका वही अगुआ खड़ा होकर हँसता हुआ राजेश्वरी की ओर बढ़ आया। कुछ
उसके सुस्पष्ट अंग्रेजी के उच्चारण ने और उसके बचकाने चेहरे की लुनाई ने उसकी
याचना को और भी आकर्षक बना दिया, "लगता है, आज रात का कष्ट हमें आपको और देना
ही पड़ेगा। देखिए न, मौसम कैसा पैंतरा बदल रहा है।" सरासर बोले जा रहे सफेद
झूठ का खोखलापन स्वयं छोकरे की दुष्ट हँसी में मुखर हो उठा था। आकाश एकदम साफ
था, छत पर पानी तो दूर, ओस की बूंद भी नहीं टपक रही थी।
"हम यहाँ एकदम अनजान हैं।" उसने पारसी थिएट्रिकल कम्पनी के किसी छोकरे
अभिनेता के ही चातुर्य से दयनीय कंठ-स्वर को लड़कियों की भाँति कँपा लिया,
“वैसे तो उत्तराखंड के कमिश्नर साहब ने स्वयं हमें एक चिट्ठी दे दी है।" उसने
अपनी जेब से एक मोटा लिफाफा भी निकालकर दिखा दिया, जिससे राजेश्वरी को
विश्वास हो सके वे कोई उठाईगीरों की पार्टी नहीं है। “जहाँ-जहाँ इन्सपैक्शन
हाउस हों, वहाँ-वहाँ हमारे लिए खोल दिए जाएँ-पर आप ही बताइए, संसार के किस
इन्सपैक्शन हाउस में ऐसी बढ़िया चाय मिल जाती?"
राजेश्वरी उस चतुर वाचाल किशोर की डिप्लोमेसी देखकर मुग्ध हो गई। उसने कुछ
नहीं कहा, केवल उसे देखकर मुस्कुराती खड़ी रही। उसी स्मित के आश्वासन से
प्रोत्साहित होकर छोकरे का टेप रिकार्डर फिर चालू हो गया, "खाने की आप चिन्ता
न करें, हमारे साथ आज की ही नहीं, पूरे दो महीने की खुराक, डिब्बों और
विटामिन की गोलियों के रूप में साथ चल रही है। सोने के लिए हमारे पास
स्लीपिंग बैग्स हैं। सुबह उठते ही हम चल देंगे।" याचना ऐसी शिष्ट भाषा में की
गई थी, और याचक का बचकाना चेहरा ऐसा प्यारा भोला-सा था कि राजेश्वरी के 'हाँ'
या 'ना' कहने का प्रश्न ही नहीं उठता था, वैसे उस भोले चेहरे से स्वामी की
जेब में बोतल में जो 'गंगाजल' भी साथ-साथ चल रहा था। अनादि संस्कारशीला
राजेश्वरी तो उसे निश्चय ही गरदनिया देकर बाहर निकाल देती, पर वह तो उस चेहरे
की माया से ही बँध गई थी। उसकी उजली हँसी, उसे ऐसे ही एक कैशोर्योज्ज्वल तरुण
की हँसी का स्मरण दिलाती, उसके कलेजे में एक मीठी टीस-सी उठा गई थी। बारह
लड़के रात-भर यहाँ रह भी गए तो कौन-सा उसका दीवानखाना घिस जाएगा! न होगा तो
एकसाथ बारह जोड़ी जूतों के साथ आ गई धूल ही तो झाड़नी पड़ेगी?
“आप लोग शौक से सोएँ, मैं सुबह बहुत तड़के उठ जाती हूँ, आपको जाने से पहले
चाय पिला दूंगी।" चतुरा राजी ने स्पष्ट कर दिया कि वह तड़के ही उन्हें चाय
पिलाकर विदा कर देगी।
“धन्यवाद, धन्यवाद!"
कई कंठों से गूंजते धन्यवाद के पुष्पहारों से लदी-फंदी वह अपने कमरे में लौट
आई तो देखा चन्दन पीठ फेरकर सो रही है।
"चन्दन!” उसने पुकारा, पर वह सचमुच ही गहरी नींद में डूब गई थी, यही उस लड़की
का सबसे बड़ा गुण था, चाहे कितनी ही डाँट-फटकार पड़तीं, रात होते ही वह सबकुछ
भूल-भाल, तकिए पर सिर रखते ही बच्ची-सी नींद में लुढ़क पड़ती। उसकी यह
बाल-सुलभ निद्रा, माँ के चित्त में शत्रु से छिपे अमूर्त भय को लाठी लेकर
खदेड़ देती थी। यदि सचमुच ही वह पंचशर से बिंधी होती तो क्या ऐसी चैन की नींद
में डूब सकती थी? उसने द्वार पर चिटकनी लगा दी और बेखबर सो रही पुत्री को एक
ओर खिसकाती उसके साथ सो गई।
दीवानखाने से उमड़ती हँसी का स्वर तैरता आ रहा था और जो जनशून्य गृह, शाम से
छह ही बजे से, भाँय-भाँय कर काटने को दौड़ता था, वह आज ऐसा गुलजार था, जैसे
कोई बारात का जनवासा उतर आया हो। बेटी सो रही थी, पर माँ की आँखों में नींद
नहीं थी। उसे अपना बियाबान घर, आज बचपन में पढ़ी गई स्वार्थी दानव के बगीचे
की कहानी का स्मरण दिला रहा था, जहाँ हर सूखे पेड़ की टहनियाँ, बच्चों के
चढ़ते ही फल-फूलों से लदी, लहलहाने लगी थीं। एक बार उसके जी में आया, वह पिता
के गोदाम में धरे कम्बलों के ढेर उठाकर अतिथियों को दे आए। बेचारे पहाड़ की
ठंड से अनभ्यस्त लड़के जाड़े में थुरथुरा रहे होंगे। पर फिर दूसरे ही क्षण
उसके सनकी चित्त ने उसे सावधान कर दिया, 'बहुत आराम दे दिया तो कल देर तक
सोते रहेंगे।
वह करवट बदलकर सोने की तैयारी कर रही थी कि द्वार पर किसी ने दस्तक दी। सोई
चन्दन को एक ओर धकेलती वह साड़ी सम्हालती उठी और द्वार के आधे पट खोलकर खड़ी
हो गई। निश्चय ही उस पर्वतारोही दल का लड़का कुछ ओढ़ने-बिछाने के लिए माँगने
आया होगा। उसका अनुमान ठीक था।
सिर से पैर तक, मिरजई से ढंका, उन्हीं बारह लड़कों में से एक लड़का हँसकर
कहने लगा, “क्षमा कीजिएगा माँजी, मुझे असल में आपसे बहुत पहले ही कह देना
चाहिए था-कैन आई स्लीप विद योर डॉटर?"
राजेश्वरी यदि उतनी गम्भीर और वैसी धैर्यवती संयमी महिला न होती, तो शायद एक
मुक्का मारकर, वहीं उस बेहूदे छोकरे की बत्तीसी उसके पेट में डाल देती, पर वह
एक लम्बे अर्से से कॉलेज की प्रिंसिपल के पद पर रहती चली आई थी। उसकी
लड़कियों की कॉलेज-बस पर, पथराव के साथ, खुशबूदार नीले गुलाबी लिफाफे
फेंकनेवाले, सीटियाँ बजाकर अश्लील रिमार्क कसनेवाले, ऐसे बीसियों छोकरों से
उसका दिन-रात पाला पड़ता रहता था। फिर सरकारी नौकरी से पूर्व वह कई प्राइवेट
स्कूल-कॉलेजों में भी काम कर चुकी थी, उन स्कूलों के कुछ मैनेजर भी, किसी अंश
में उन बेहूदे सीटी बजाने वाले छोकरों से कम नहीं थे। अपने क्रोध को उसने
उन्हीं परिस्थितियों में जीतकर ऐसा पालतू बना लिया था कि उसके गाल पर कोई
चाँटा मार भी देता तो अब वह हँसकर बड़ी स्वाभाविकता से अपना दूसरा गाल बढ़ा
सकती थी।
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