नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
|
10 पाठकों को प्रिय 358 पाठक हैं |
पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
"बेटी, मेरी भी एक तेरी ही-सी बेटी थी, भगवान ने उसे जन्म के सातवें ही साल
अपने पास बुला लिया, मुझे तो देखकर यही लगता है कि मेरी मनसाबती ही फिर लौटकर
आ गई है।"
पर राजेश्वरी यह सब सुनकर भी आश्वस्त नहीं हुई। आए दिन प्रतिवेशियों के
'मिलन' में चन्दन बड़े प्रेम से न्यौती जाने लगी। 'मिलन' के उन्मुक्त वातावरण
को उसने स्वयं बहुत निकट से देखा था। जान-बूझकर ही वह कभी उसे लेकर दूर-दूर
तक घूमने चली जाती और कभी अपनी ननिहाल। ननिहाल में एक टूटे-फूटे मकान में
रहकर उसके दरिद्र मामा एक 'घट' चलाकर अपनी गुजर कर रहे थे। उस घर में अब और
कोई भी नहीं बचा था, मामी की बहुत पहले ही मृत्यु हो चुकी थी और मझले तथा
छोटे मामा प्रवासी बनकर कलकत्ता-बम्बई के ही हो गए थे। इधर राजेश्वरी की
बुद्धिमती प्रतिवेशिनी भी मन ही मन समझ गई थी कि उसे सुन्दरी पुत्री का उनके
घर आना-जाना पसन्द नहीं है।
एक दिन जान-बूझकर ही उस मुँहफट महिला ने राजी को खूब सुना भी दिया था, “राजी
बहन, मैं तो सोचती थी, तुम बचपन से ही हमारे समाज में जन्मी-पली हो, शायद
हमारे सरल स्वच्छन्द जीवन को निकट से देखकर परख चुकी होगी; पर देखती हूँ तुम
भी हमें नहीं समझ पाईं।" एक लम्बी साँस खींचकर बस वह फिर हँस-हँसकर कहती चली
गई थी, "हमारी जाति की मनमौजी मस्ती को सबने बदनाम ही किया, कोई भी हमें ठीक
से समझ नहीं पाया। अगर किसी ने समझा, तो वह थे विदेशी। हम शौक्याणियों का
स्वस्थ शरीर, हँसमुख चेहरों पर नित्य थिरकनेवाली हँसी देखकर ही परदेशी लोग
सन्देह से भड़क उठते हैं। हमें इस हँसी के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता?
बुरा मत मानना, राजी बहन!" उसने हँसकर राजी के हाथ पकड़कर कहा था, "हमारे घर
के मर्द, जब तीखी घाटियों में ऊन का व्यापार करने जान हथेली पर धरे घूमते
हैं, तब क्या हम अपनी मस्ती में डूबी उन्हें भूल जाती हैं? दुःख तो दो तरह से
सहा जाता है! एक चेहरा लटकाकर, मनहूसी में अपने को डुबाकर, और दूसरा
हँस-खेलकर, किस्से-कहानी कह, कताई-बुनाई में अपने दुःख को भुलाकर! किसी की
हिम्मत है, जो हमारे 'मिलन' में बैठी तुम्हारी पुत्री को कोई बुरी नजर से देख
ले? वह यदि मेरा रणधीर भी होगा तो मैं स्वयं उसकी आँखें निकाल लूँगी।"
ग्लानि से क्षुब्ध होकर राजी ने फिर चन्दन को कभी नहीं टोका। कभी-कभी लाठी
टेकते उसके वृद्ध पीताम्बर मामा स्वयं आकर भानजी की कुशल पूछ जाते। अपने
बहनोई द्वारा केश पकड़, घसीटकर घर लाई गई इस रूपवती भानजी को उस रात उन्होंने
भी तीन-चार झापड़ धर दिए थे। उसके बाद फिर वह उसे अब इतने सालों में देख रहे
थे। प्रौढा बनकर राजी का चेहरा बहुत कुछ उनकी मृत बहन से ही मिलने लगा था।
अपनी मूर्खता से इस छोकरी ने माँ-बाप का असमय ही पटरा बैठा दिया था। पर समय
कितनी तेजी से निकल जाता है, सोचने लगे थे पीताम्बरजी। जिसकी माँ उसके
वर-सन्धान के लिए उनका हाथ पकड़कर उन्हें विभिन्न दिशाओं में धकेल उठी थी, आज
वह स्वयं अपनी पुत्री के लिए वर ढूँढ़ने का आग्रह करती, वैसी ही व्याकुल बन
गई थी।
"मामा, अब मुझे इसी छोकरी की चिन्ता में रात-भर नींद नहीं आती।" कैसा आश्चर्य
था! ठीक अपनी माँ के वे ही शब्द दुहरा रही थी छोकरी! पीताम्बरजी की दबी हँसी,
भग्न दन्तपंक्ति से छलकती, सफेद मूंछों पर फैल गई। जी में आया, उससे पूछ लें,
“क्यों री, तेरी चिन्ता में जो तेरी माँ ऐसे ही रात-रात भर जगी रही थी, और
स्वयं तेरे ही अविवेक ने उसे ऐसे जगा-जगाकर एक दिन सदा के लिए सुला दिया था,
वह क्या तू इतनी जल्दी भल गई"-"जैसे ही हो, आपको इसके लिए अच्छा-सा घर-वर
ढूँढ़ना है। मेरी इच्छा तो यही है कि अगले फागुन तक मैं इसे ठिकाने लगा हूँ।"
किन्तु अगले फागुन तक न चिन्तातुरा राजेश्वरी को रुकना पड़ा, न मामा को ही।
झुकी कमर वर-सन्धान में और झुकी। जिस पुत्री के भविष्य के लिए वह अधपगली होकर
प्रायः पूर्ण मतिभ्रमावस्था को पहुँच रही थी, उसी पुत्री के रूप ने स्वयं ही
उसके लिए वर जुटा दिया, वह भी ऐसा कि कुछ पलों तक स्वयं राजेश्वरी को ही अपनी
पुत्री के सौभाग्य पर विश्वास नहीं हुआ।
धारचूला में आए माँ-बेटी को दो महीने हो चुके वे। मामा कहीं से एक-आध वर
ढूँढ़कर भी लाते तो अता-पता सुनकर ही राजेश्वरी का चेहरा लटक जाता। कोई वयस
में चन्दन के बाप से कुछ ही वर्षों छोटा होता तो कोई दुहेजू। अलमोड़ा में
राजेश्वरी की एक विधवा बुआ रहती थी, आज तक उसने कभी अपनी उस बुआ का स्मरण
नहीं किया था, पर इधर मामा ने ही बतलाया कि बुआ बड़े-बड़े घरों में पंजीरी,
मेथी के लड्डू और लवंगादि चूर्ण बनाकर फेरी लगाती हैं, बहुत सम्भव है कि वह
किसी योग्य पात्र को जुटाने में उसकी सहायता कर सके।
चन्दन अँगीठी से चिपकी बैठी थी उस दिन, उसे फिर देर तक इधर-उधर घूमने के लिए
अनुशासनप्रिया जननी ने कसकर डाँटा था। इसी से मुँह फुलाए वह कहीं से एक
जीर्ण-शीर्ण फिल्मी पत्रिका जुटाकर अपनी आँखें जुड़ा रही थी, और राजेश्वरी
अपनी उसी बुआजी को अपनी लम्बी स्मृति के लिए लाख-लाख बार क्षमा माँगती,
कुँआरी चन्दन के लिए किसी योग्य पात्र की सन्धान-याचना सहज भाषा में पिरोती
चिट्ठी लिख रही थी।
उस दिन कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। केवल 3,500 फुट ऊँचाई की वह घाटी, जिसे
हलद्वानी की तराई की ही भाँति गर्म होना चाहिए था, कभी-कभी गर्मियों में भी
आश्चर्यजनक रूप से हिमशिला-सी बन उठती थी। जेठ का महीना था, पर मौसम की
तुनुकमिजाजी देखकर लग रहा था कि अवांछित अतिथि बना पर्वतवासियों का वैरी, माघ
का महीना ही घाटी में उतरकर असमय ही नाचने लगा है। दिन-भर शिला वृष्टि की
तड़ातड़ ने पथरीली छत पर गोलाबारी की थी। अब आकाश शान्त था, किन्तु खिड़की के
पट सामान्य रूप से खुलते तो साँय-साँय करती हवा शरीर को सहस्र भालों से
कोंचने लगती। चन्दन ने उस दिन कह दिया था कि रात का खाना नहीं खाएगी, उसे अपच
हो गया है। चिट्ठी लिखते-लिखते कनखियों से ही, मुँह फुलाए बैठी पुत्री की
नब्ज पकड़कर राजी जान गई थी कि उसे कैसा अपच है। प्रतिवेशी परिवार के संग बैठ
आधी रात तक गप्पें न मारने से ही उसे यह अपच हो गया था। ठीक है, एक दिन भूखी
रहेगी तो कोई मर नहीं जाएगी छोकरी। अपच के लिए दी गई अनुशासन चूर्ण की चुटकी
ने ही चेहरे पर झुंझलाहट की रेखाएँ खींच दी थीं। उसने स्वयं भी कुछ नहीं
खाया। चाय का एक अधसेरी गिलास गटक, वह फिर केतली चूल्हे पर चढ़ाने जा रही थी
कि किसी ने द्वार खटखटाया। कौन हो सकता है इतनी ठंड में? बाहर प्रकृति ने एक
बार फिर ऊधमबाजी आरम्भ कर दी थी, पाव-पाव-भर के ओले पथरीली छत पर पटाखों-से
चटक रहे थे। द्वार की कुंडी इस बार बड़े जोर से खटकी।
|