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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


उसके आने की खबर पाने पर, एकसाथ ही, उसके पिता के परिचित कई मित्रों की पूरी टोली, उससे मिलने चली आई थी। कितने गाल, कुटियाल और नबियाल, बुदियाल बुजुर्गों की स्नेहपूर्ण आँखें, अपने प्रिय 'पोदपंचा' (बड़ा व्यापारी) की पुत्री को देखकर गीली हो गईं।

“याद है राजी, तू कैसे हमारे यहाँ से चुरा-चुराकर 'छर्तस्या' (सुखाया नमकीन गोश्त) ले जाया करती थी और एक दिन ‘पोदपंचा' ने तुझे पकड़कर खूब पीटा था-और याद है राजी, जब मेरी 'कंच' (चाँदी की कटोरी) में तूने रुक्मिणी के साथ 'च्याक्ती' पी ली थी और नशा चढ़ने पर आधी रात तक नाचती रही थी?" सब याद था उसे! रुक्मिणी थी उसकी सुन्दरी शौक्याणी सहेली। वह उसे लेकर एक बार अपने कुँआरे छोटे मामा के साथ 'तपोवन' के रामकृष्ण आश्रम में क्या लेने गई थी और दुष्ट मामा ने, मालूशाही गा-गाकर रुक्मिणी को रुला दिया था।

'बाबा माँगी दी छैं
माँगी दे
सुनपता शौके की चेली-'

(ऐ मेरे पिता, मेरे लिए सुनपता शौक की बेटी का रिश्ता माँग दो।)

थोड़ी दूर चलकर फिर वह अन्तरा अलापता :
'बेटा काँ देखी
काँ सुंणी त्वीलै-
सुनपता शौके की चेली-
शौक देशा जोहारा देखी
बाकरूँ का ग्वाला देखी

बागश्यारा का म्याला देखी
सुनपता शौक की चेली-'

(अरे मेरे बेटे, तूने इस सुनपत शौक की सुन्दरी लड़की को कहाँ देख-सुन लिया? भला शौक की बेटी से उसके कुमय्या बेटे का विवाह कभी हो सकता है?)

इस बार रुक्मिणी का चेहरा क्रोध से तमतमा उठता और श्याम मामा फिर मूंछों पर ताव देते गाने लगते-मैंने तो उस लड़की को शौक जोहार में देखा है, बागेश्वर के मेले में देखा है और देखा है बकरियों के झुंड को हाँकते!

रुक्मिणी रो पड़ी थी, और कुछ दिनों तक उसने राजी के 'मिलन' की बैठक में आना स्वयं ही बन्द कर दिया था। पर राजेश्वरी का तो उसके बिना एक पल भी सार्थक नहीं था। चावल, गेहूँ और जौ की बनी उस गृह की अपूर्व 'च्याक्ती' की घूट वह आज भी नहीं भूली थी। कपड़ों से मढ़कर, उबले अनाज की हंडिया में, 'बलमा' की खमीरी टिकिया डालकर कैसे स्वादिष्ट 'सोमौ' बनाई जाती है, और फिर कैसे वही मीठा रस छानकर बनती है 'दारू!' कैसी 'जुगली' की धार से, टप-टपकर टपकती बूंद से, जो पहली बोतल भरती है वही 'बॅडी' कहलाती है, यह सब राजी अनायास ही सीख गई थी।

'एक अंग्रेज साहब तो एक बार हमें इसी पहली बोतल के पाँच सौ रुपये दे रहा था।" रुक्मिणी ने उससे कहा था, पर बाबू ने उसे खूब डाँट दिया-'तुम्हारे बाप-दादे भी इसकी एक छूट लेकर सीधे पैर नहीं रख पाएँगे साहब, यह क्या तुम्हारे देश की भेंडी है?'

उसी बहुचर्चित घूँट की चोरी से गुटकी गई 'कंच' भरी बैंडी ने राजी को आधी रात तक नचाया था। आज उसकी वह सखी रुक्मिणी, धारचूला की नेपाली घाटी में जाकर, सदा के लिए सो गई थी। आसपास अब भी तीन-चार शौक भाटिया परिवार बसे थे, पर वहाँ भी राजेश्वरी की अनुसन्धानी दृष्टि ने दो-तीन तरुण चेहरे देख लिए थे, इसी से उसने चन्दन को एक बार फिर बन्दिनी बना दिया। इन परिवारों के उन्मुक्त मनमौजी जीवन से वह ररिचित थी। स्वयं उसका अतीत, जिसके स्नेह-सौजन्य की स्मृतियाँ अब भी सूम के धन की भाँति सेते, उसके साथ-साथ चला आ रहा था, उससे जैसे वह पुत्री को वंचित रखना चाहती थी। पर लाख कड़ाई बरतने पर भी वह सयानी लड़की को क्या कमरे में बन्द कर सकती थी? फिर उद्दाम यौवन की तरंगों को आज तक कौन कमरे में बन्द कर सका है? वह गाल मौसी की स्नेहपूर्ण छोटी-छोटी आँखों का सामान्य आमन्त्रण पाते ही, कभी-कभी माँ से बिना पूछे ही भाग जाती। उसे चिन्ता पुत्री के ऐसे पलायन की नहीं थी, चिन्ता थी तो उसी मौसी के हृष्ट-पुष्ट विदेश से लौटकर काठमांडू में ऊँची नौकरी पा गए पुत्र रणधीर की उपस्थिति की। दुर्भाग्य से वह भी छुट्टी लेकर, घर आया हुआ था। यह क्या उसकी करम-जली का दुर्भाग्य था, जो उसके कहीं जाते ही पास-पड़ोस के जवान छोकरे उसकी रूपवती पुत्री के इर्द-गिर्द भौंरों-से मँडराते, लम्बी छुट्टी लेकर घर आ जाते थे?

वैसे राजेश्वरी की यह कपोलकल्पना मात्र थी। रणधीर सिंह बेचारा क्या जानता था कि उसके पड़ोस में कोई उर्वशी पंख लगाकर अचानक आकाश से उतर पड़ी है। जिस दिन माँ-बेटी आईं, उस दिन बन्द घर की चाबी थमाने वह स्वयं ही आया था। यही नहीं, चन्दन को बार-बार देखता, वह अपने उजले दाँतों को स्वच्छ हँसी में चमकाता दो-तीन बार आकर पूछ भी गया था कि उन्हें किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं है। उसकी माँ अपनी बीमार बड़ी बहन को दिखाने अलमोड़ा ले गई है और लौटने पर वह निश्चय ही उनके आराम का यथोचित प्रबन्ध कर देंगी। उसका कहना ठीक था। उस उदार स्नेही महिला ने अपनी जाति के एक-एक अदब कायदे कंठ किए थे, फिर राजेश्वरी फटाफट उसकी भाषा बोल सकती थी। किसी भी अज्ञात अपरिचित व्यक्ति को यदि अनायास ही वश में किया जा सकता है तो वह उसकी भाषा के वशीकरण से, पहले ही दिन उसने माँ-बेटी के लिए अपने 'मिलन' के द्वार खोल दिए।

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