लोगों की राय

नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

358 पाठक हैं

पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


ठीक इसी की उमर की थी वह। जब ऐसी ही एक उजली भोर के धुंधलके में घर से भाग आई थी और ठीक इसी कोने में खड़ी हाँफने लगी थी। भोली माँ को कैसे-कैसे छलावे की लच्छेदार बातों में भरमाकर वह उस दिन आ पाई थी, स्कूल की किसी मास्टरनी ने एक्स्ट्रा क्लास लेने हाईस्कूल की पूरी कक्षा को सुबह सात बजे बुलाया है, फिर वहीं सबको खाना मिलेगा और सब पढ़कर दिन डूबे लौटेंगी, आदि-आदि। बात असल में दूसरी थी, कुन्दन ने ही योजना का सूत्रपात किया था कि बहन और उसकी सहेली को लेकर वह काषार देवी जाएगा, वहीं उसका एक विदेशी चित्रकार मित्र भी रहता था। दिन-भर उसके बँगले में बिताकर पिकनिक भी मना ली जाएगी और मन्दिर के दर्शन भी हो जाएँगे। रामप्यारी ने बड़े से कटोरदान में नाश्ता भर, तीनों को एक ऐसे अप्रचलित मार्ग की बीहड़ सुरंग से विदा कर दिया था, जहाँ से लोग, कभी-कभार अरथी कंधे पर धरकर ही निकलते थे। दो मील का निरर्थक फेर लेते, तीनों काली मिट्टी की सुरम्य सड़क तक पहुँच पाए थे। मार्ग-भर, कुन्दन उसे काली सड़क की कालिमा का इतिहास बताता गया था। कैसे कुमाऊँ के लोहनियों ने यहाँ लोटकर होम किया था, इसी से होम करनेवालों का नाम सदा के लिए पड़ गया 'लोहमी' और सड़क हो गई जलकर खाक :

‘पर मैं बिरहन ऐसी जली-
कि कोयला भई न राख!'

कहता, वह उसके चेहरे के पास ही अपना हँसता चेहरा ले आया था। चन्द्री बार-बार जान-बूझकर ही पिछड़ गई थी, जिस एकान्त की दो प्रेम-विभोर हृदयों को कामना थी, उसके यथोचित प्रबन्ध की सूझ-बूझ शायद माँ के पेशे ने, चन्द्री की रक्तमज्जा में स्वयं ही बसा दी थी। वह कभी-कभी इतनी दूरी का फासला रखती पिछड़ जाती कि दोनों प्रणयी किसी चट्टान पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करते और हर फल्ग की दूरी पार कर चट्टान पर किया गया वह विश्राम राजेश्वरी के चेहरे को और भी सुन्दर बना देता।

आज सोती पुत्री को देख उसे ऐसा लगा, जैसे कैशोर्य के दर्पण में वह स्वयं अपना ही प्रतिबिम्ब देख रही है। कितनी-कितनी कही-अनकही बातें नवीन पल्लव-सी अंकुरित प्रेमी की मूंछों का प्रथम स्पर्श, और काली मिट्टी की लम्बी सड़क पर सदा-सदा के लिए अंकित हो गए दो जोड़ी अनुभवहीन पैरों के पदचिह्न सहसा उसकी बड़ी सूझ-बूझ से रची योजना को मिटाकर रख गए। वह जाए या न जाए, इसी उधेड़बुन में खड़ी स्मृतियों के सागर में डूब-डूबकर उतरा रही थी कि द्वार खोलकर हँसती-हँसती शान्ति खड़ी हो गई।

“लो, तुम तो एकदम फिटफाट होकर तैयार भी हो गईं, यहाँ ब्रश भी नहीं किया। डॉ. विष्ट, सुबह से ही कुछ लिखने-पढ़ने में लगी थीं। सोचा, तुमसे मिला दूँ, फिर तो आज चली ही जाएँगी। कुमाऊँ की इस प्रतिभाशालिनी महिला से तुम्हारा परिचय न कराती तो मन में एक ग्लानि ही रह जाती।-अरे, आप यहीं आ गईं? मैं तो राजेश्वरी को आप ही के कमरे में ला रही थी।..."

विदेशी जीन्स में, कटे केशगुच्छ का फुग्गा, बड़ी अदा से पीछे फेंकती, सिर से पैरों तक बिलकुल ही बदल गई चन्द्रिका, क्या उसका नाम सुनकर भी नहीं समझी? वह विदेशी मस्ती में झूमती, हाथ बढ़ाती राजेश्वरी की ओर बढ़ी और सहसा, किसी अदृश्य खड्ग की धार ने जैसे उसके बढ़े हाथ को कलाई से काटकर विलग कर दिया। शून्य में हाथ लटका और उसका मुँह आश्चर्य से खुला ही रह गया- “राजी-तू!"

उत्तर में राजेश्वरी हँसने लगी, किन्तु वह बिलखकर रोने भी लगती तो शायद उसका सफेद पड़ गया चेहरा उतना करुण नहीं लगता।

चन्द्रिका ने लपककर उसे बाँहों में भर लिया, “अरी, तू तो और भी दुबला गई है री!" वह उसे छेड़ती, दुलारती एक बार फिर पुरानी चन्द्रिका बन गई। "मैंने तो सुना था तूने किसी हलवाई की दुकान में अपने रूप की चाँदनी छिटका दी है। मैं तो सोच रही थी, तू इमरती, बालूशाही खा-खाकर खूब मुठिया गई होगी।" इतना कहते ही वह अपनी प्रगल्भता से स्वयं संकुचित होकर सहम गई। सखी का, श्रीहीन वैधव्य-मंडित चेहरा उसे उपालम्भ दे उठा।

शान्ति, हतबद्धि-सी खड़ी-खड़ी उस विचित्र मिलन को देख रही थी। कंठ-स्वरों के गँजने के व्याघात से बेखबर सो रही चन्दन भी जगकर पलंग पर ही बैठ गई थी। कौन होंगी ये? अम्माँ ने तो कभी उसे अपनी इस सहेली के बारे में कुछ नहीं बतलाया था, फिर भी वे जिस अन्तरंगता से उसकी माँ से लिपटीं, बार-बार पिछड़े दिनों की स्मृति में, आँखें पोंछ रही थीं, उसे देखकर लगता था, वह कभी उसकी माँ से घनिष्ठ मैत्री की डोर में बँधी रह चुकी थीं। कैसी ठसकेदार महिला थीं! लड़कों की-सी चुस्त काली पैंट, सतरंगी जर्सी और कटे केशगुच्छ की एक-एक तरंग जैसे गोंद से चिपकाई धरी हो।

"क्षमा कीजिएगा।" वह शान्ति की ओर मुड़ी और ठेठ विदेशी शिष्टाचार के ठसके में दुहरी होकर क्षमा माँगने लगी, “हम दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं, आपने दो-तीन बार शायद इसका नाम भी लिया था, पर मैं इतनी मूर्ख हूँ कि तब भी नहीं सोच सकी कि यह मेरी राजी भी हो सकती है।"

"अरे! यह क्या तेरी लड़की है?"

वह झपटकर, लजाती चन्दन को, बिस्तर से बाहर खींच लाई और दोनों बाँहों में थाम, हाथ-भर की दूरी पर धर, मुग्ध होकर उसका गुलाबी पड़ गया चेहरा देखने लगी, “ऐ शाबाश, कटोरे पर कटोरा बेटा, बाप से भी गोरा-ऐसी ही कुछ पहेली भी है न? राजी, मैं तो आज तक सोचती थी कि तू ही संसार की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी है, पर यह तो आसानी से किसी भी मिस यूनिवर्स को चुटकियों में उड़ा देगी।"

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book