नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
बड़े लाड़ से उसने सखी की लजाती छुईमुई बन गई बिटिया का माथा चूमा और बड़े
अधैर्य से हाथ की घड़ी देखती कहने लगी, "डेम इट! ऐयर पैसेज बुक न किया होता
तो आज तुझे छोड़कर कभी नहीं जाती। ऐ राजी, चल न मेरे साथ रुद्रपुर।" फिर
अचानक, अपने प्रस्ताव की धृष्टता से स्वयं ही सहमकर, पल-भर को चुप हो गई।
किस दुःसाहस से वह उसे अपने साथ रुद्रपुर चलने का न्यौता दे रही थी?
ब्रिगेडियर भाई के तराई फार्म की लहलहाती फसल, द्वार पर बँधे हाथी-से
ट्रेक्टर, पाँच पुत्र और उसकी स्थूलांगी पत्नी को देखकर, यह क्या सुखी होगी?
"चल न, मेरे जाने से पहले एक मिनट के लिए मेरे कमरे में तो चल। आई होप यू
वोन्ट माइंड।" एक बार उसने झुक झुककर, अपनी टेनेंट और सखी की पुत्री से क्षमा
माँगी, फिर राजेश्वरी को अपने साथ खींच ले गई।
विदेश से लौटकर, चन्द्रिका जैसे बढ़ती वयस को पीछे धकेलती और भी चपल डगें
धरने लगी थी।
कमरे में पहुँचकर, उसने अपने लिए एक कुर्सी खींच ली और खाली पलंग पर धरा अपना
विदेशी हल्का सूटकेस हटाकर राजेश्वरी को हाथ पकड़कर बैठा दिया। कुर्सी पर
बैठते ही, उसने अपना सुनहला सिगरेट-केस निकाल लिया और एक सिगरेट जलाकर फूंकने
लगी।
"छिः छिः चन्द्रिका!" जन्मजात संस्कारों की सिहरन से, ब्राह्मण कुल की पुत्री
की रीढ़ काँप उठी। “तू क्या सिगरेट भी पीने लगी है?" उसने कहा।
“ओ सिली।" चन्द्रिका जोर से हँसी और उस खोखली हँसी ने सुन्दर चेहरे का
मुखौटा, उतारकर दूर फेंक दिया। रँगे केश, नुची भौंहें, चिपकाई गई पलकें और
निरंतर लिपस्टिक के प्रहार से, सूखे पपड़ी पड़े अधर, कितनी थकी और अधेड़ लग
रही थी चन्द्रिका! “यह पूछ कि क्या नहीं पीने लगी हूँ! जिस समाज में अब रहने
लगी हूँ, वहाँ सिगरेट तो दुधमुंहे बच्चे माँ का दूध छोड़ते ही पीने लगते हैं
और सयाने कुल्ला भी करते हैं तो शराब से!"
राजेश्वरी उसे फटी-फटी आँखों से देख रही थी। दोनों एक ही वयस का माइलस्टोन
थामे खड़ी थीं, किन्तु दोनों चेहरों में कितना अन्तर था! एक चेहरे को संयम और
सच्चरित्रता के तेज ने ऐसा चमका दिया था कि वयस के दस वर्ष स्वयं ही घटकर रह
गए थे, उधर असंयम की स्याही से स्याह बना दूसरा चेहरा, एक ऐसी थकी अधेड़
महिला का था, जो किसी भी पुरुष के स्कन्धों का सहारा पाते ही दुलक सकती थी।
"क्यों राजी, क्या दद्दा के लिए कुछ भी नहीं पूछोगी?"
राजेश्वरी चुप रही, फिर भी उसकी चुप्पी से उदंड चन्द्रिका नहीं सहमी। उसकी
ठंडी हथेलियों को सहलाती, वह फुसफुसाने लगी, “तू तो कुछ नहीं पूछती, पर इस
बार उससे मिली तो उसने अम्माँ की कुशल पूछने से पहले तेरी ही कुशल पूछी। तू
कहाँ है, तूने क्या सचमुच ही किसी हलवाई से शादी कर ली है? तेरा पति कैसा है,
क्या तू मुझे चिट्ठी भी लिखती है? आदि-आदि और-एक तू है कि झूठे मुँह से ही
उसकी कुशल नहीं पूछती। वह तुझे भूला थोड़े ही है! इसी से तो पी-पिलाकर, लिवर
एकदम चौपट कर लिया है बदजात ने! एक दिन, अपने बड़े लड़के को देर से घर लौटने
के लिए खूब डाँट रहा था। मैंने अकेले में छेड़ दिया, 'क्यों दद्दा, लड़के को
तो मेरे सामने ही ऐसे डाँट दिया कि रुआँसा हो गया, पर क्या अपना लालकुआँ भूल
गए?'
"हँसने लगा, बोला, 'उसे कभी भूल सकता हूँ, चन्द्री! मेरा बस चले तो उस स्टेशन
का नाम बदलकर रख दूं ताजमहल।"
राजेश्वरी एक शब्द भी बिना कहे उठ गई। अपने उठने की मुद्रा से ही, उसने बिना
कुछ कहे भी स्पष्ट कर दिया कि वह अब गड़े मुर्दे उखाड़ने
के मूड में नहीं है। दोनों सखियाँ, मन-ही-मन एक ही बात सोच रही थीं।
राजेश्वरी क्या अब पहले की राजेश्वरी रह गई है? नहीं तो दद्दा का नाम सुनकर
क्या निर्विकार मुद्रा में बैठी रह सकती?-सोच रही थी चन्द्रिका।
उधर चन्द्रिका की बेहया वेशभूषा, फकाफक सिगरेट फूंकना और अनवरत बकर-बकर से
राजेश्वरी उठकर जाने को व्याकुल हुई जा रही थी। जिस अतीत की डोरी, कटी पतंग
की डोरी-सी ही उड़कर शून्य क्षितिज में विलीन हो गई थी, उसे फिरकर खींच भी
लेगी तो हाथ क्या लगेगा? शायद यह नुची-फटी पतंग-सा ही फटे यथार्थ का टुकड़ा।
चतुरा राजेश्वरी ने हँसकर, उसकी बातों का प्रसंग ही पलट दिया, “तू शायद यह
भूल गई है, चन्द्री, कि मैं अब एक विवाहयोग्य कन्या की माँ हूँ। इसी से तो
पहाड़ आई हूँ, ताकि देखभालकर कोई लड़का ढूँढ़ सकूँ।"
"जैसा तूने अपने लिए ढूँढ़ा था या जैसा तेरी माँ ने तेरे लिए ढूँढ़ा था।"
चन्द्रिका जान-बूझकर, उसकी बखिया उधेड़ने पर तुली थी।
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