नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
"लो, चाय पी लो।" शान्ति चाय का प्याला लेकर आई तो वह ऐसी चौंकी, जैसे चोरी
करती, रँगे हाथों पकड़ ली गई हो।
शान्ति ने उसे चाय थमाई, फिर अपना प्याला लेकर कुर्सी पर बैठ गई।
“यहाँ रहने का बस यही आनन्द है, राजेश्वरी!" वह चाय की चुस्कियाँ लेती कहने
लगी, “बहुत ही सामान्य किराये में यह फर्निश्ड कोठी मिल गई-दरी, गलीचे, सोफा
सबकुछ। सुना है, किसी राजा साहब ने अपनी मिस्ट्रेस के लिए बनवाई थी, पर जिसके
भाग्य में आवास का सुख लिखा होता है, उसी को मिलता है। है न? कोठी बनी
मिस्ट्रेस के लिए, मिली हेड मिस्ट्रेस को।" और वह अपने अनूठेपन पर स्वयं
न्यौछावर होती, हँसती-हँसती उठ गई, “देखू तुम्हारी बेटी कहाँ घूम रही है? उसे
भी चाय का एक प्याला पिला दूं, राजेश्वरी"-वह चलती-चलती एक बार मुड़कर कहने
लगी, “जब तुम्हारी चिट्ठी मिली कि तुम अपने समाज में, चन्दन के लिए लड़का
ढूँढ़ने आ रही हो तब तुम्हारी दकियानूसी पर मुझे बड़ा गुस्सा आया, खुद तो
वैधव्य की ठोकर खाकर तुम स्वावलम्बी बन सकीं, अबोध पुत्री को क्या पूरी
शिक्षा भी नहीं दोगी? मुझे बड़ा अचरज-सा हुआ था। अभी तो लड़की ने इंटर किया
है, छोटी-सी लड़की-फिर आजकल तो इंटर में आकर लड़कियों के दूध के दाँत टूटते
हैं। सोचने लगी, क्या दिमाग फिर गया है राजी का, जो इस कच्ची उम्र में उसके
विवाह की सोच रही है? पर आज तुम्हारी बिटिया को देखा तो तुम्हारी समझदारी की
दाद ही देनी पड़ रही है।"
"क्यों?" एक बार फिर राजेश्वरी के शंकालु स्वभाव का सजग शत्रु गर्दन उठाने
लगा।
“पगली!" वह हँसकर कहने लगी, “दामी हीरे को क्या समझदार संसारी गाँठ में
बाँधकर रखते हैं? जितनी जल्दी अपने इस अनमोल रत्न को किसी सुप्रतिष्ठित बैंक
में जमा कर सको, उतना ही अच्छा है। मैंने, तुम दोनों के लिए ऊपर का कमरा ठीक
करवा दिया है। यहाँ तो सुबह छह ही बजे कमरे में धूप आकर जगा देती है।"-भूल कर
रही थी शान्ति।
ठीक साढे छह बजे धूप आती थी उस कमरे में और कभी-कभी उस धूप से भी पहले आकर
कोई उस कमरे के सुदर्शन सोनेवाले को गुदगुदाकर जगा देती थी।
"आजकल तो मकान-मालकिन स्वयं आई हुई हैं। उसने कहा और राजेश्वरी की बस, जैसे
उसे मद्दरवाली के घुमावदार मोड़ों पर, एकसाथ सौ बार तेजी से घुमा गई।
"वैसे मकान-मालकिन की लड़की हैं डॉ. चन्द्रिका विष्ट, टोरॉन्टो में ही
माँ-बेटी बस गई हैं। माँ वहीं हैं, ये इस बार घर की देखभाल करने और भाई से
मिलने चली आई हैं। कल वापस चली जाएँगी। बड़ी ही मिलनसार महिला हैं; जैसी ही
सुन्दरी हैं, वैसी ही विदुषी। थारू-भोटिया उत्सवों पर डॉक्टरेट ली है।"
एकसाथ कई हथौड़ियाँ राजेश्वरी की कनपटी पर घन की-सी चोट करने लगीं-तो क्या
कुन्दन सिंह भी यहाँ था? इन्हीं सोलह कमरों में से किसी एक में? क्या उसके
चित्त में भी कैशोर्य के उस दौर्बल्य की खरोंच का निशान बचा होगा? क्या पता,
लड़कपन की उस छलाँग की, अब स्मृति ही शेष हो?
किन्तु क्या वह लड़कपन था? किन्तु यदि वह लड़कपन ही था तो क्यों आज भी उन्नीस
वर्षों के अन्तराल को पार करने पर अब भी उसका प्रौढ़ कलेजा, धड़कता, मुँह को
आ रहा था? क्यों तकिये में गड़ाए गए चेहरे का, एक-एक कपोल दहकती भट्टी बन रहा
था? क्यों अब भी, वह उसी रात की-सी दुःसाहसी छलाँग लगा प्रेमी की बाँहों में
सिमट जाने को विवेकशून्य अभिसारिका-सी व्याकुल हो उठी थी?
रात-भर, कंठ में अटक गई कुनैन की गोलियों की ही भाँति, वर्षों की भूली-बिसरी
स्मृतियाँ, उसके मुँह का स्वाद कड़वा कर गईं। जो चन्द्रिका कभी उसे प्राणों
से भी प्रिय थी, जिससे मिलने वह माता की कठोर धमकी की बड़े दुःसाहस से
अवहेलना करती खूटा उखाड़कर भागी हुंडेल बछिया-सी ही भागती थी, आज उसकी ही
सम्भावित मुठभेड़ का भय उसे सहमाने लगा। अचानक उसके दिमाग में बिजली-सी
कौंधती, एक नई योजना झटका दे गई। क्यों न दिन निकलने से पहले ही वह स्वयं ही
कहीं घूमने का बहाना कर निकल पड़े? शान्ति तो कह ही रही थी कि आठ बजे की बस
नहीं भी मिली तो डॉ. विष्ट, दस बजे की बस से तब भी निकल जाएँगी। चटपट उठकर वह
तैयार हो गई।
न जाने कितने वर्षों से वह काषार देवी के दर्शन को ललक रही थी। आज उसी दूरी
को नापकर जब वह घर लौटेगी, तब तक मकान-मालकिन निश्चय ही विदा हो चुकी होगी।
आश्वस्त होकर वह उठी और खिड़की खोलकर बाहर देखने लगी। उजाला आकर पूरे बरामदे
में फैल गया था। खिड़की बन्द थी, इसी से क्या वह भुलावे में रह गई? पलटकर
उसने पास की पलंग पर बेखबर सो रही बेटी को देखा। थके सलोने चेहरे पर सूर्य की
मन्द आभा फैल गई थी। कितनी बार उठ-उठकर वह उसके चिड़िया के-से छोटे अधरपुट
स्वयं बन्द कर देती थी- 'मुँह से साँस लेना अच्छा नहीं होता चन्दन, मुख बन्द
क्यों नहीं करती?' वह लाख बार टोकती, किन्तु बहुत पतली गढ़ी गई यूनानी नाक के
सुघड़ नथुनों से साँस लेते ही उसके नन्हें होंठ फिर खुल जाते, जैसे पाटल की
मुँदी कली हों। आज भी दोनों हाथ छाती पर धरे मुँह खोल वह ऐसी ही गहरी नींद
में डूबी थी कि उसे कोई काटकर फेंक भी देता तो शायद वह न जान पाती। ऐसे में,
उसे क्या बिना जगाए ही छोड़ जाना ठीक होगा? चुलबुली चन्द्रिका कहीं उससे
मिलने आई और पुत्री को ही जगाकर, कुछ अंड-बंड बक गई तब? वह सिरफिरी, कुछ भी
कर सकती थी। क्या पता, उसे और कुन्दन को लेकर कुछ मजाक ही कर बैठे? वैसे वह
मन-ही-मन अपनी मूर्ख आशंका के खोखलेपन को स्वयं समझ रही थी। ऐसी बचकानी बात
भला चन्द्रिका, उसकी पुत्री से अपनी पहली ही मुलाकात में कभी कह सकती थी?
किन्तु पग-पग पर चोट खाया राजेश्वरी का दुर्बल चित्त, पागलखाने में बिजली के
झटकों से सहमाए गए किसी रोगमुक्त रोगी के चित्त की भाँति, सामान्य निर्मूल
आशंका से ही त्रस्त हो उठता था। क्यों न उसे भी जगाकर, वह अपने साथ ले चले?
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