नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द) भैरवी (अजिल्द)शिवानी
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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास
कहीं भस्म पुती दो तप्त लम्बी बाँहों के घेरे ने यहीं बाँध लिया तो?
दीया बुझने से पहले चन्दन ने चिलम छीनने को दोनों हाथ बढ़ा दिए, “क्या कर रही
हो चरन, अब तुम नहीं पीओगी! चलो घर, मुझे डर लग रहा है!"
उसका गला इतना की कहकर स्वयं अवरुद्ध हो गया। चिलम छीनने को प्रसारित बाँहें
शून्य में लटककर रह गईं-मन्दिर की टूटी दीवार में खुदी, शिव की भव्य मूर्ति
में बनी दो दपदपाती, मत्त आँखों ने जैसे दो तीखे भालों से उसे पीछे हटा दिया।
यह मूर्ति कहाँ से आ गई? क्या यह तान्त्रिक मन्दिर भी उसे छलने लगा था या
अनचाहे नथुनों में घुस गया चरन की जादुई चिलम का धुआँ ही उसे यह सपने दिखाने
लगा था!
“खाली गाँजा ही थोड़े है इसमें!" चरन ने तभी ठठाकर कहा, “इसमें कुछ और भी
रहता है-कुकुरमुत्ते का विष! क्या समझीं? एक दम लो और बन जाओ रानी-पटरानी।
सोने के पेड़ों में लटकते हीरे के फल तोड़कर खाओ! वाह, वाह! तब ही गोपलिया
कहता है ना, 'जिसने न सूंघी गाँजे की कली, उस लड़के से लड़की भली!"
कैसी विलक्षण मूर्ति थी, बाप रे बाप! सिंहारूढ़ा पार्वती और मकरारूढ़ा गंगा,
एक ओर पत्थर की खुदाई में खुदा नागलोक, आधा शरीर मनुष्यों का, आधा नाग का,
हाथ जोड़े लम्बी कतार में चले जा रहे शिव के गण, कदम ऐसे उठे थे, जैसे अभी
पदचाप से मन्दिर को गुंजा देंगे-खट-खट, खट-खट! सिर के ऊपर स्वर्गलोक. विभिन्न
वाहनों पर आरूढ विभिन्न देवता. उनके बीच दस भुजाएँ नचाते हुए शिव की रौद्र
मूर्ति, और उस मूर्ति के कंठ में पड़ा सर्प का यज्ञोपवीत! देखकर ही चन्दन दो
कदम पीछे हट गई थी। यह तो उसी अवधूत का दुलारा सर्प लग रहा था। दीया बुझ गया
था, अँधेरे में चमकती चरन की लाल-लाल आँखें और दहकती चिलम के लाल
अंगारे-उन्हें ही देख पा रही थी चन्दन।
“जय गुरु, जय गुरु! लो, एक दम तुम भी लगाओ, फिर चल देंगे।" चरन ने न्यौता
दिया, पर चन्दन मूर्तिवत् खड़ी रही।
“खबरदार, नाहीं मत करना-शिव की प्रसादी है-देखो, ऐसे साँस खींचना!" उसने
नथुने भींचकर एक लम्बी साँस खींची। इस प्रदर्शन के बाद उसने चन्दन का हाथ
पकड़ा और बड़े प्यार से उसे अपने पास बिठा लिया। अपनी मुट्ठी में बँधी चिलम
उसने चन्दन के थरथराते होंठों से लगा दी।
"लो! लो, लगाओ दम, बहरी हो गई हो क्या? देखती नहीं अबेर हो गई है?" चरन ने
चिरौरी की।
वह धुआँ स्वयं ही चन्दन के नथुनों में घुस गया या चरन की अपलक घूरती लाल
अंगारों-सी दहकती उन आँखों ने कुछ ऐसा जादू डाला कि वह खुद ही एक दम लगा
बैठी।
खाँसी के विकट दौरे के साथ ही फिर उसे कोई अँगुली पड़कर अपने साथ नई उड़ान
में उड़ा ले चला। नींद में चलनेवाले किसी रोगी की तरह वह चरन के पीछे-पीछे चल
रही थी। दीर्घ स्थायी अनाहार की निष्ठुर प्रक्रिया ने जिन मांसपेशियों को अब
तक जटिलता की गाँठों में बाँध दिया था, वह स्वयं ही फटाफट खुलने लगीं। उस
अरण्य की निविड़ता के स्वप्न लोक को चीरती हुई चन्दन बढ़ती जा रही थी। जिस
नदी की अनजान गहराई में वह डरती-काँपती, कर्णधार-विहीन तरणी-सी डगमगाती चली
आई थी, उसी पर वह अब ऐसे गहरे आत्मविश्वास से चली आई थी, जैसे वह अज्ञात
जलराशि नहीं, घर के सामने का चिरपरिचित लॉन हो।
रास्ते-भर चरन कुछ बकर-बकर करती रही, लेकिन चन्दन उसकी बातों का शतांश भी,
सुनने की कोशिश करने पर भी, सुन नहीं पाई। चित्त न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा
था। इस बार चरन उसे किसी दूसरे ही पथ से लेकर आश्रम में पहुँच गई। माया भी
ठीक उसी अवस्था में बैठी झूम रही थीं, जिसमें वे उन्हें छोड़ गई थी।
“कहा था न मैंने?" चरन कहने लगी, “एक-दो दिन तक अब ऐसी ही बौराई-सी झूमती
रहेंगी-बिलकुल ताजा चरस पीसकर गोली चिलम में धरी थी। क्यों जी, तुम क्या एक
ही कश लेकर ढेर हो गईं? अभी तो एक दम घर पहुंचने की भी लेनी होगी। मैंने कह
जो दिया था, एक दम राह के भूत-प्रेतों को भगाने के लिए और दूसरी घर की चुडैल
को खदेड़ने के लिए। बस, अभी तैयार करे देती हूँ चिलम-फिर लगे दम, मिटे गम!
ठीक है न?"
खोई-सी दृष्टि से चन्दन उसे देखने लगी।
"बाप रे-तुम तो साक्षात योगमाया लग रही हो जी! कैसी नींद भरी है इन आँखों
में! रुको, सोने से पहले एक चुटकी तुम्हें और सुंघा दूं, जिससे तुम्हारा यह
आधा नशा दुश्मन न बन बैठे। एक कश खींचकर खटिया पकड़ना और फिर रात-भर मजे से
उन सबसे मिलती रहना, जिनकी बस याद ही बच रही है तुम्हारे पास!" हँसती-हँसती
चरन चली गई और थोड़ी ही देर में चिलम भरकर लौट आई।
आते ही उसने बैठी-बैठी झूमती-झामती माया दीदी को हाथ पकड़कर ऐसा लिटा दिया,
जैसे वह नन्ही बच्ची हों, पर दीदी लिटाते ही सीसे से भरी गुड़िया-सी फिर उठ
बैठी और तमाशा करने लगीं। गेरुआ धोती जाँघों तक उठाकर तालियाँ बजातीं, कभी
जोर-जोर से हँसती, कभी भेंगी दृष्टि चन्दन को देखकर गाने लगती :
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