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नारी विमर्श >> भैरवी (अजिल्द)

भैरवी (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :121
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3737
आईएसबीएन :9788183610698

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पति-व्रता स्त्री के जीवन पर आधारित उपन्यास


माँ की यह प्रिय शिवस्तुति कौन गाने लगा था यहाँ? वह चौंककर इधर-उधर देखने लगी, तब ही देखा चरन, चाँदी का छत्र हिलाती, झूम-झूमकर गा रही थी-

मृगाधीश चर्माम्बर मुंडमालं।

बारहवीं शताब्दी के बने उस मन्दिर की स्थापत्य कला में, पालवंशीय राजाओं की सुरुचि की छाप थी। मूर्तियों के सुघड़ आकार, जीवन्त हाव-भाव, लास्य कटाक्ष, वस्त्रों की सुस्पष्ट भाँज-सबके निर्माण में बंगाल के मूर्तिकारों ने जैसे छेनी तोड़कर रख दी थी-काले राजमहल पर खुदी पार्वती की वह मूर्ति वास्तव में दर्शनीय थी। प्रसारित दक्षिण करतल पर स्थित था भव्य शिवलिंग, एक ओर सिंहवाहन को दुलारते मुस्कुरा रहे थे नन्हें कार्तिकेय और दूसरी ओर मूषकारूढ़ गजानन अपने गजदन्त से माँ का आँचल पकड़े ठुमक रहे थे। चारों ओर बंगाल के शिल्पियों के प्रिय कदली वन की झूमती चौकोर पत्तियाँ, पार्वती के माथे के ऊपर चँवर-सा इला रही थी।

“यह धूनी यहाँ निरन्तर जलती रहती है-हमारे गोसाईं के गुरु की धूनी है यह! तब ही तो रोज इसे जलाने आती हूँ। चलो, तुम्हें उनकी साधना की कोठरी दिखा लाऊँ!"

चक्करदार सीढ़ियों का एक गुच्छा का गुच्छा पार कर चरन उसे इमामबाड़े के से एक जालीदार खरोखे में ले गई। जालीदार मेहराब से नीचे बह रही नदी की धारा दीख रही थी। बाँस के वन से आती साँय-साँय करती हवा से, पहाड़ के सरल स्कन्धस्पर्शी वातास का कैसा अद्भुत साम्य था! एक खूटी पर रुद्राक्ष की कंठी झूल रही थी, दूसरी छूटी पर लटका था एक रिक्त काला कमंडलु।

"वह देखो, गोपलिया की दुकान! ऐसी दीख रही है, जैसे छूते ही हाथ में आ जाएगी, वैसे होगी कोई एक मील! हाय राम, वहाँ तो तीन-तीन चिताएँ जल रही हैं जी! आज क्या बशीरहाट का पूरा गाँव ही मुआ जलने के लिए जुट गया है। लगता है, आज लौटती बखत भी वहाँ चाय नहीं मिलेगी।"

पास ही धरी शीशी से चरन ने तेल निकाला, रुई की बत्ती बनाकर यत्न से जलाई, फिर दोनों हाथ जोड़कर छूटी पर टँगी रुद्राक्ष की माला के सामने खड़ी हो गई। जालीदार मेहराब के भीतर जल रहा प्रदीप नन्ही जालियों के असंख्य छिद्रों से प्रकाश की किरणें छोड़ने लगा। गरबा नृत्य करती गुर्जर कन्याओं के ज्योतिपुंजवाली जालीदार हाँड़ियों की याद ताजा करनेवाले इस आलोकित झरोखे में विधाता की गढ़ी दो अप्रतिम प्रतिमाएँ दमक रही थीं-एक दुबली-पतली, लम्बी, गौर-वर्णा और दूसरी काली-चमकती पुष्ट भरे-भरे हाथ-पैरों की नंगी नेपाली खुकरी-सा नाचती, पल-पल में प्रकृति के बदलते रूप के साथ अपनी रूपछटा बदलती-वनकन्या!

“चलो!" वह रुद्राक्ष के एक दाने को अपने कृष्णललाट से छुआकर चन्दन की ओर मुड़ गई, “धूनी में एक लकड़ी लगा आऊँ, फिर लौट चलेंगे!" चरन उसे एक बार फिर दीर्घ परिक्रमा कराती एक दूसरी ही कोठरी में ले गई, जहाँ लकड़ियों का एक विराट स्तूप खड़ा था। उनमें से चरन ने एक मोटी-सी लकड़ी खींचकर निकाली। चन्दन के मन में उठती जिज्ञासा को उसने फिर अपनी अलौकिक घ्राण-शक्ति से सूंघ लिया, “क्यों जी, यही सोच रही हो न, कि कौन इस बीहड़ जंगल में वह लकड़ियाँ पटक गया। शिवरात्रि को यहाँ बड़ा भारी मेला लगता है। हिन्दू-मुसलमान सब हैं इस भोले के भक्त। सुन्दर वन के जंगलों में तो सुना है आज भी मजदूर हमारे गोसाईं के गुरु के ही नाम का जोर-जोर से जप करते जाते हैं। शेर भी दुम दबाकर भाग जाता है, उस वन-फकीर के नाम से। यहाँ चढ़ावे में चढ़ती हैं धूनी की लकड़ी और धतूरे का फूल-बस! ये ही दो चीजें माँगते हैं हमारे भोलानाथ! एक बार तो कलकत्ते के एक सेठ ने दस गाड़ी लकड़ी एकसाथ डलवा दी थीं।" मोटी लकड़ी को धूनी में लगाकर चरन ने हाथ पोंछे। फिर वह आँचल की गाँठ खोलने लगी।

"थोड़ी देर सुस्ताकर अब चल देंगे। पहले तो मैं दिन डूबे पर लौटती थी। लगाई एकदम और बस फिर नींद ही नींद। सब सरम्जाम लाई हूँ साथ
में, ऐसी बात नहीं है!"

उसने अपने आँचल में बँधी नन्ही-सी चिलम निकाली और मूर्ति के पीछे हाथ डालकर एक पुड़िया निकाल, चिलम में उँडेलकर हँसने लगी, “नित्य भोले की प्रसादी का एक दम यहाँ लगाती हूँ, दूसरा घर पर। यहाँ का दम रास्ते के भूत-प्रेतनियों के डर को भगाता है और घर पर लगाया गया दम वहाँ की चुडैल को बेदम कर देता है। पर इधर जब से शक्ति मंडल को बाघ खींच ले गया, तब से जल्दी घर भागना होता है!"

भरी चिलम को धूनी के अंगारों से दहकाकर, उसने 'जय शिव गुरु' की हुंकार भरकर, शिवलिंग में छुआया, फिर अपने माथे पर, फिर दोनों हाथों की मुट्ठी में चिलम साधकर वह एक दम कश खींच खाँसती-खाँसती दुहरी हो गई। देवालय की घृतजोकी शिखा, क्रमशः मन्दी पड़ती जा रही थी। चरन को मानो हिरिया का दौरा पड़ गया।

"जय बम, जय बम, बमलहरी, बम बबम बबम बम बमलहरी" कहती हुई वह झूमती-गाती-हँसती जा रही थी। एक कंठ से निकली विकृत बमलहरी, सहसा देवालय की विचित्र ढंग से बनी दीवारों से टकराकर शतकंठों में गूंजने लगी।

अब चन्दन क्या करे?

चिओं के धुएँ में डूबे रास्ते, नरमांस-लोभी भूखे और चालाक बाघ से मुठभेड़ की आशंका, अनजाने सर्पिल पथ की सुदीर्घ परिक्रमा, चांडाल की हिंस्र, तीव्र अन्तर्भेदी दृष्टि की स्मृति, इधर अन्धकार में कंठ तक डूब गए अनजान देवालय में गाँजे-चरस के नशे के साथ अनजाने आकाशों में विचरण करती प्रगल्भा सहचरी!

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