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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3736
आईएसबीएन :9788183616621

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


"ला तेल ठोंक दूं," उसने कहा।

"नहीं-नहीं, तेल मत डालना अम्मा, मुझे अभी ट्यूशन पर जाना है," पड़े-पड़े ही उसने ऐसे छलबल से आँसू पोंछ लिए जैसे अम्मा न देख पाए। वह उठकर बैठी तो गोदी जान गई कि लड़की को कहीं गहरी चोट लगी है।

"तुम कहाँ गई थीं अम्मा?" उसने प्रकृतिस्थ होने की चेष्टा की।

"तेरे बाबू का श्राद्ध आ रहा है, कई दिनों से उन्हें सपने में देख रही हूँ। एकदम वस्त्रहीन आकर इसी कमरे में खड़े हैं।"

इसी कमरे में बाबू ने प्राण त्यागे थे। तब यही कमरा उनका था, उनकी मृत्यु के बाद यह कमरा स्वयं ही कुमुद का बन गया था। पहले तीनों भाई-बहन एक ही कमरे में सोते. थे। अब वह अकेली इस कमरे में सोती थी। उमा माँ के साथ सोती थी, इतनी बड़ी होकर भी। अम्मा के साथ सोने की उसकी बचकानी आदत नहीं गई थी। लालू का कमरा अब गृह के सीमान्त पर था, वहाँ से रात्रि के गमन, आगमन की उसे विशेष सुविधा प्राप्त रहती। दीवारों पर टँगी बेहूदी तस्वीरें, चलचित्र-तारिकाओं के धृष्टता से मुस्कराते चेहरे, बेतरतीबी से फैली किताब, कापियाँ, कमरे की दुव्यवस्था ही किशोर स्वामी के फक्कड़ स्वभाव का परिचय देने को पर्याप्त थीं। प्रायः ही समय निकाल, कुमुद भाई का कमरा ठीक कर जाती, पर दूसरे दिन जाती तो फिर उसे वैसा ही अव्यवस्थित मिलता। कई बार उसे डाँट-फटकार चुकी थी, एक बार उसे खूटी पर टँगी उसकी जीन्स की जेब में दो अधफॅकी सिगरेटें मिलीं तो वह बौखला गई थी-“देखो अम्मा," क्रोध से काँपती कुमुद ने दोनों टुकड़े माँ के सामने पटक दिए थे। लालू वहीं पर बैठा खाना रहा था।

"शर्म नहीं आती तुझे, हड्डी-पसली एक कर तुम्हें खिला रही हूँ, अभी इण्टर भी पास नहीं किया और नशा-पानी शुरू कर दिया? वाह, एक दिन शायद बोतल भी मिलेगी कमरे में! बोलता क्यों नहीं।"

थाली दूर पटक लालू तनकर उसके सामने खड़ा हो गया था, भाई की यह अबाध्यता देखकर वह सन्न रह गई थी। यही लालू कभी उससे थर-थर काँपता था-

"हाऊ डेयर यू...तुम्हें मेरे कमरे में जाकर मेरी जेब टटोलकर जासूसी करने का क्या हक है? मैं सिगरेट पीता हूँ और सौ बार पियूँगा-तुम कौन होती हो टोकने वाली? क्या तुमसे कभी एक अठन्नी भी माँगी है मैंने?"

“अच्छा! बताऊँ कौन होती हूँ मैं!" क्रोध से थर-थर काँपती कुमुद ने तीन-चार चाँटे तड़ातड़ उसके तमतमाए चेहरे पर जड़ दिए थे और फिर अम्मा पर बरस पड़ी थी-“यह सब तुम्हारा लाड़-दुलार है अम्मा, सिर पर चढ़ाकर तुम्हीं ने बिगाड़ा है इसे। आज इसकी इतनी हिम्मत बढ़ गई कि मुझसे पूछता है-तुम कौन हो मेरी जेब टटोलनेवाली? तुम सुन ले रे लालू! एक बार नहीं, सौ बार टटोलूँगी तेरी जेब..."

“आई है बड़ी जेब टटोलनेवाली-मैं भी देख लूँगा," लालू ने जोर से चीखकर कहा और एक लात मारकर थाली को और दूर पटक दिया।

वही स्वर सुन गृहकलह का आनन्द लेने एकमात्र दीवार के व्यवधान को फाँद, उनकी प्रतिवेशिनी गंगाधर की माँ गौरी आ गई-"क्यों लड़ रहे हो दोनों भाई-बहन, क्या हो गया गोदी दीदी!'

"कुछ नहीं, कुछ नहीं, आओ बैठो गौरी, बच्चे हैं, उस पर भी पीठ पीछे के भाई-बहन! इसी से दोनों में ठनती रहती है। चाय पिओगी गौरी? केटली चढ़ी है..."

लालू भन्नाकर होंठों-ही-होंठों में बड़बड़ाता अपने कमरे में चला गया था और 'अम्मा, मैं ट्यूशन पर जा रही हूँ', कह कुमुद बिना चाय पिए ही तीर-सी निकल गई थी।

गौरी दीवार से कान लगाए सब कुछ सुन चुकी, फिर भी किसी निर्मम दारोगा की भाँति, उसे सदा घटना स्थल पर पहुँच, छोटी-छोटी बातों को कुरेदना बड़ा अच्छा लगता था। एक तो स्वयं उनका बिगडैल-बिदका बेटा, इस वर्ष हाई स्कूल में दसवीं बार फेल हुआ था, आज तक गोदी दीदी के इस पुत्र की वह पास-पड़ोस में प्रशंसा ही सुनती आई थी, सचमुच ही जब तक छोकरे का बाप नहीं मरा था, तब तक हमेशा अव्वल पास होता था, अपने अकर्मण्य पुत्र को वह प्रायः ही इस पड़ोसी-परिवार की सन्तान की प्रतिभा से दहलाती रहती थी-'एक हमारी गोदी दी के बच्चे हैं, आहा, बाहर-भीतर जाते नमस्कार, पैर छूना, उस पर तीनों वजीफा पाते हैं और एक तू है करमजला...'

आज अपने कानों से इस गृह की दुर्गति सुन गौरी का हृदय आनन्द से बल्लियों उछलने लगा था-अरे गोदी दी, मुझसे क्या छिपाओगी! पर इतना सुन लो, अब कौन सिगरेट नहीं पीता, आजकल के छोकरे तो माँ के गर्भ से सिगरेट फूंकते चले आते हैं।"

फिर अपनी रसिकता पर वह स्वयं ही पुलकित होकर हँसने लगी।

“पर जो भी कहो गोदी दी, तुम्हारी बड़ी लड़की तो साक्षात् लक्ष्मी है, जैसा ही रूप वैसा ही गऊ स्वभाव। कहीं लड़का-बड़का देख रही हो, क्या?"

"नहीं गौरी, वह शादी को राजी हो तो लड़का भी देखू! कहती है-उमा के लिए वर ढूँढो, मेरे लिए लड़का नहीं ढूँढ़ना होगा!"

अचानक गौरी की चुंधियाई आँखें एक कुटिल चमक से चमकने लगीं। उसने अपनी कुबड़ी पीठ पर झटके से आँचल खींचा और बड़ी आत्मीयता से पलटा, गोदी के और नजदीक सटा लिया-"कहीं खुद ही तो कोई जातबेजात का लड़का नहीं ढूँढ़ लिया? हो सकता है, तब ही अपने लिए लड़का ढूँढ़ने के लिए मना कर रही हो?"

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