नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द) चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)शिवानी
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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है
“क्या कक्का, आप चुप क्यों हो गए? कुछ और किया है क्या लालू ने?" उसने अधैर्य
से पूछा था।
“नहीं-लालू ने और कुछ नहीं किया, पर कुमुद, तुम्हें अपनी छोटी बहन की गतिविधि
पर भी ध्यान देना चाहिए, तुम दिनभर नौकरी करती हो। सुना है लौटकर फिर ट्यूशन
करने चली जाती हो। उमा कहाँ से दिन डूबे लौटती है, यह खबर रखती हो?"
"वह तो म्यूजिक कालेज जाती है कक्का, बड़ी जिद करने लगी कि नाच सीखेगी तो
मैंने कहा ठीक है चली जाए। लौटते-लौटते देर हो जाती है। वह बस में आती है।"
“नहीं, बस में नहीं आती!' रघु कक्का के दोनों ओंठ उत्तेजना से काँप रहे थे।
"मैंने देखा उसे अभी पिछले बुधवार को एक गली से लौट रहा था, काली ऐम्बेसडर
कार में उमा बैठी थी, मैं तुमसे नहीं कहता, पर जो कार चला रहा था, उस लफंगे
का चेहरा मुझे अच्छा नहीं लगा। जमाना बहुत बुरा आ गया है बेटी, तुम हमारे
समाज को जानती हो। पहाड़ी समाज को, भगवान ने चार आँखें दी हैं, दो चेहरे पर
और दो पीठ में। किसी और ने देख लिया तो अँधेर हो जाएगा। फिर तुम्हारी अम्मा
मुझे उसकी कुण्डली दे गई है कि दद्दा को भेज दूं। अब सगा भतीजा है मेरा,
जान-बूझकर कैसे मक्खी निगल लूँ। तुम हमारे दद्दा को देख चुकी हो, लड़का
रुड़की से इंजीनियरी पास है, पर अभी भी घर आता है तो कान में जनेऊ डालकर बाप
से पूछता है- 'बाबू निबट आऊँ?'
कुमुद का चेहरा फक हो गया था। यह क्या कह रहे थे रघु कक्का ! पर उस
अल्पभाषी-हित-चिन्तक, पिता के मित्र को वह जानती थी, ऐसी-वैसी बात वह कभी
नहीं कह सकते थे-“ठीक है कक्का, मैं आज ही से उमा पर कड़ी निगरानी रखूगी," कह
वह उनके पैर छू गुस्से में भरभराती घर पहँची तो देखा घर में ताला पड़ा है।
अपने पर्स में वह हमेशा एक डुप्लीकेट चाबी रखती थी, सिर दर्द से फटा जा रहा
था, नाना चिन्ताएँ उसके मस्तिष्क में घन की-सी चोटें किए जा रही थीं। किसके
साथ गई थी उमा, कौन हो सकता है वह? अम्मा ने भी तो एकदम आँखें मूंद ली थीं।
वह अकेली क्या-क्या करे? राशन, नून, तेल, लकड़ी से लेकर बाबूजी की पेंशन,
फीस, मकान का किराया, बिजली का बिल। यह भी कैसा अन्याय था अम्मा का! कमाती,
खटती, मरती वह थी, सारा लाड़-प्यार अम्मा उमा-लालू पर ही उड़ेलती-“उमा की
सलवार फट गई है, उमा के लिए कोई अच्छा-सा टॉनिक लेती आना, भूख नहीं लगती है
उसे, एक ही फुल्का खाकर उठ जाती है, इसी से हर वक्त चिड़चिड़ाती रहती है-कम
कूवत गुस्सा बहुत!" हँसकर अम्मा ने कनखियों से कमाऊ बड़ी पुत्री की ओर देखा
और उसकी गम्भीर मुखमुद्रा देखते ही पैंतरा बदल लिया था। वह समझ गई थी कि छोटी
के प्रति उसे चिन्तातुर देख बड़ी प्रसन्न नहीं हुई है। चटपट वह प्रसंग बदल,
तराजू के दोनों पलड़ों को बड़े धैर्य से एक सीध में साधने की हास्यास्पद
चेष्टा करने लगी थी-“तूने भी तो खाना एकदम कम कर दिया है री! इतना दिमागी
बोझा उठाती है और न एक बूंद दूध पीती है, न तुझे कोई फल ही खाते देखती हूँ।
मैं कहती हूँ एक अंडा ही खा लिया कर!"
मन-ही-मन भोली अम्मा के अपटु प्रसंग-परिवर्तन को देख उसे हँसी भी आई थी।
किन्तु उस दिन उसका सारा क्रोध अम्मा पर ही उतरा था। वह काम से बाहर रहती थी
तो अम्मा तो दिन-रात घर पर ही रहती थीं। उन्होंने क्यों नहीं देखा उमा को!
मान लिया वह यह कहकर ही जाती थी कि वह म्यूजिक कालेज जा रही है। पर यह किसकी
काली कार में लौट रही है, क्या यह भी नहीं देख सकती थीं अम्मा?
अम्मा मन्दिर से लौटी तो देखा कुमुद के कमरे की बत्ती जल रही है। बिना उससे
कुछ कहे अम्मा सीधे चौके में घुस गई थीं, मन-ही-मन वह अपनी तेजस्वी पुत्री से
बहुत डरती थीं। कहेगी कुछ नहीं, पर अपनी चुप्पी से ही पूँजकर रख देगी लड़की!
वैसे वह उसके कालेज से लौटने के समय सदा घर पर ही रहती थीं, वह जानती थीं कि
दिनभर की थकी-माँदी कुमुद को घर आते ही चाय का गर्म प्याला अवश्य चाहिए।
जल्दी-जल्दी एक-आध टोस्ट खा वह फिर ट्यूशन पर निकल जाती। लौटती तो झोले में
सब्जी लाकर उसे थमा देती, ठीक जैसे उसके बाबू दफ्तर से लौटने में ले आया करते
थे। स्वभाव, गाम्भीर्य, समझ सब कुछ ही तो लड़की ने बाप का पाया था। उन्हें भी
घर आने पर उसकी ही उपस्थिति की कामना सदैव रहती-“देखो कुमुद की अम्मा, तुम
दिनभर जहाँ मन चाहे जाओ, पर मैं दफ्तर से लौटूं तो ऐसा न हो कि तुम घर न
मिलो।" वही हाल कुमुद का भी था। इसी से, वह हमेशा घर ही पर रहती थी, किन्तु
सुरेश की अम्मा ने जिद की और वह भी सुपर मार्केट चली गईं। सुना, वहाँ बड़ा
सस्ता कपड़ा आया था। पितृपक्ष आसन्न था, एक जोड़ा धोती लानी थी। कब से कुछ
रुपये बचाकर उसने गोलख में रखे थे, उस दिन खोलने लगी तो देखा गोलख रिक्त था।
पूरे पच्चीस रुपये थे, किसी ने बड़ी सफाई से रुपये निकाल, उसी दक्षता से ढकने
की कीलें ठोंक दी थीं। यह किसके हाथ की सफाई थी, वह समझ गई, गहन क्षोभ से
उसकी आँखें छलछला आईं। पिछले तीन दिनों से वह लगातार, कुमुद के बाबू को सपने
में देख रही थी-उदास, पीड़ित आँखें, वस्त्रहीन नग्न पति को, सपने में सिरहाने
खड़ा देखकर वह सिहर उठी थी-
"हाय राम, कुमुद के बाबू, नंगे कैसे खड़े हो? अभी बच्चे आते होंगे..."
पर वह एक शब्द भी नहीं कहते। बस आहत, बुभुक्षित दृष्टि से उसे देखते ही रहते,
जैसे बिना मुँह बोले, आँखों ही आँखों में उससे कुछ माँग रहे हों।
पति की कंकाल-सी नग्न काया को, उसने फिर लगातार दो दिनों तक देखा था। कौन-सा
ऐसा दुख, कौन-सा अभाव था उन्हें? पंडितजी ने उस दिन गरुड़-पुराण में सुनाया
था कि उस लोक में सुख ही सुख हैं, दिन-रात गोधूलि की आभा, पुष्पों का सिरहाना
और मलयानिल के झोंके। तब उनका चेहरा इतना उदास क्यों था? फिर एकाएक वह रहस्य
स्वयं सुलझ गया। धनाभाव के कारण वह पति की जीवितावस्था में पुत्र के गले में
जनेऊ की डोर नहीं डाल सकी थी, क्रिया-कर्म किया था जेठ ने, वह ही उनका
श्राद्ध भी करते थे, तब क्या कृपण जेठ ने पति के श्राद्ध में वस्त्र-दान नहीं
दिया? उसी धोती के लिए यत्न से जोड़ी गई विरल धनराशि भी क्या उस अभागिनी के
भाग्य में नहीं थी! 'नाश हो उस चोर का, हाथ-पैरों में कोढ़ फूटे!' पर फिर उसी
क्षण गाली की गोली किधर जा रही है देख, सहमकर अपना श्राप पुनः कंठ में खींच,
वह अपने ठाकुरजी के सिंहासन के सामने औंधी हो गई थी-"नहीं-नहीं, भगवान, उसे
क्षमा करना प्रभु! अज्ञानवश ही उसने ऐसा किया होगा। बड़े-बड़े आदमियों के
लड़कों में उठता-बैठता है, उसका भी तो मन करता होगा. बुरा भला खाने को! उसे
क्षमा कर देना भगवान. बच्चा है बेचारा...' वही धोती जोड़ा खरीदने, फिर उसे
सुरेश की अम्मा से पच्चीस रुपये उधार लेने पड़े थे। आड़े वक्त उसकी वही
रिश्ते की देवरानी काम आती थी। कुमुद को सब समझाकर कहेगी तो उसका गुस्सा
स्वयं ही उतर जाएगा। चौके से चाय बनाकर वह कुमुद के कमरे में गई तो देखा,
बत्ती बुझाकर कुमुद पलंग पर औंधी पड़ी थी। वह कप लेकर चुपचाप उसके सिरहाने
खड़ी हो गई। ऐसे अँधेरे कमरे में तो वह कभी नहीं लेटती थी, क्या बहुत नाराज
हो गई थी उससे?
"कुमुद ले बेटा, चाय पी ले, तबीयत ठीक नहीं है क्या?" अम्मा का
वात्सल्य-विगलित कंठ स्वर सुनते ही कुमुद की आँखें छलछला उठीं-
"यहीं रख दो अम्मा, सिर में बहुत दर्द है," तकिए में ही मुँह फँसाए वह वैसी
ही पड़ी रही। पुत्री की दुबली देह देख, गोदी का जी न जाने कैसा हो गया। कैसी
सुन्दर थी उसकी बेटी! छूने से मैली होती थी, पर इधर नित्य ही भाग-दौड़ ने
चेहरे पर स्याही फूंककर रख दी थी।
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