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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3736
आईएसबीएन :9788183616621

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


एकाएक कुमुद की माँ का चेहरा विवर्ण हो गया था। यह बात तो उस सहृदया जननी के दिमाग में, स्वप्न में भी कभी नहीं आई थी! कहीं सचमुच ऐसा ही तो नहीं था? “आजकल, हमारी लड़कियाँ, क्या हमारी-तुम्हारी जैसी रह गई हैं, गोदी दी? अब देवीदत्त जी की लड़की नहीं भाग गई उस मुसल्टे के संग? अब देवीदत्त जी के खटराग को कौन नहीं जानता, गोदी दी। जरा-सा कच्चे-पक्के खाने पर तकरार हुई तो इनके बाप इनकी बारात ही बिना बहू लिए लौटा लाए थे! आज उन्हीं की लड़की ने बाप का नाक कटाकर रख दी तो क्या कर लिया उन्होंने? सुना ईद के दिन नया जोड़ा पहने, अमीनाबाद में घूम रही थी बेहया! हमारे इन्होंने आँखों से देखा, उस पर हिम्मत देखो नकटी की, इन्हें देखा तो बोली-'बड़े कक्का आदाब! ये तो बेचारे गऊ हैं, गऊ, चुपचाप सिर झुकाए चले आए, मैंने कहा, 'मैं तुम्हारी जगह होती तो ईंटा-गुम्बा उठाकर मारती हरामजादी के सिर पर और कहती-ले आदाब!"

कुमुद अपने कमरे में बैठी सब सुन रही थी, मन-ही-मन वह क्रोध से बलबला रही थी। उमा होती तो अब तक गौरी चाची को खब जली-कटी सुना आती-"अपनी नन्दी की बात क्यों भूल रही हो चाची, वह भी तो तुम सब के मुँह पर कालिख पोतकर-महेश सेठ के साथ बम्बई भाग गई थी! तमने कैसी-कैसी बातें गढ़कर, सबको भुलावे में डालने की कोशिश की थी कि दूरदर्शन के किसी नृत्य-कार्यक्रम में भाग लेने बम्बई गई है, पर कौन नहीं जानता कि सूखा-सा मुँह लिए बद्री कक्का उसे ढूँढ़ने गए और पन्द्रहवें दिन पकड़कर ले भी आए। फिर तुमने उसे क्या एक भी दिन घर से बाहर निकलने दिया था? न जाने किस जादुई सुरंग से अपने बेटे के पास दुर्गापुर भेज दिया और हफ्ते ही भर में, उसका विवाह पक्का कर तीसरे महीने एक दूहेजू से फेरे फिरवा पिथौरागढ़ भेज दिया था!"

किन्तु आज तो उमा ने उसे किसी से कुछ कहने के योग्य ही कहाँ रखा था। उसकी प्रवंचना सुन वह स्तब्ध रह गई थी। कौन हो सकता था, उसे काली एम्बेसडर में घुमानेवाला! फिर उमा, जिसके भोले चेहरे से अभी कैशोर्य की दूधिया चमक ठीक से मिटी भी नहीं थी। वही उसे बीच-बीच में टोकती रहती थी-“उमा, यह कौन-सा तरीका है चुन्नी ओढ़ने का, इतनी हँसती क्यों है? जब देखो तब खी-खी..." पर उमा तो चिकना घड़ा थी, उस पर असर ही कहाँ होता था-"दीदी तुम्हारी यह कोटा-डोरिया पहन लूँ आज? प्लीज? दीदी आज, हमारे कालेज में सोशल है..." नहीं वह डपट देती-"साड़ी का सत्यानाश कर धर देती है तू, फिर साड़ी पहनकर बहुत बड़ी लगती है..."

"ओह समझ गई..." अविवेकी क्रोध की तरंगें, उसके सुन्दर चेहरे को एक पल को विकृत कर देतीं- "तुम जलती हो मुझसे, तुम नहीं चाहती मैं बड़ी ल[...अच्छी लगूं...तुम क्या सोचती हो, एक तुम ही साड़ियाँ खरीद सकती हो? देख लेना एक दिन तुमसे भी चौगुनी साड़ियाँ खरीदकर दिखा दंगी तुम्हें!" और वह गुस्से में भुनभुनाती, बिना कपड़े बदले ही अपने सोशल में चली गई। तब क्या कुमुद का कार्पण्य ही उसे उस मार्ग पर खींच ले गया था?

जिस दिन वह उसके काली एम्बेसडर-भ्रमण के बारे में सुनकर आई, उसी दिन उमा ने लौटने में बड़ी देर कर दी थी। कुमुद ट्यूशन से लौटी तो देखा चिन्तातुर अम्मा बरामदे में खड़ी हैं।

"क्या हुआ अम्मा, लालू नहीं आया क्या?"

"नहीं लालू को तो मैंने अभी उमा को ढूँढ़ने भेजा है। पता नहीं, कहाँ चली गई लड़की!"

"क्या, उमा अभी तक नहीं लौटी?" कुमुद को उसी दिन मिली चेतावनी और सहमा गई। रघु कक्का के शब्द, उसके कानों में बजने लगे-“तुम्हें अपनी छोटी बहन की गतिविधि पर भी ध्यान देना चाहिए, बेटी!"

"रुको अम्मा, मैं अभी उसकी सहेली मीरा को फोन कर पूछती हूँ, कहीं वहीं तो नहीं चली गई। वह फोन कर लौटी तो अम्मा बरामदे में ही खड़ी थीं। उसे देखते ही बड़ी आशा से लपकी-"क्या हुआ फोन मिला?"

"हाँ" कुमुद अपने स्वर की अशिष्टता को नहीं रोक पाई थी “फोन मिला, पर वह नहीं मिली..."

"ऐसा तो कभी नहीं करती!" अम्मा ने अनुपस्थित छोटी पुत्री के दुर्बल पक्ष को सबल कर प्रस्तुत करने की चेष्टा की तो कुमुद का सारा गुस्सा निरीह अम्मा पर ही उतरा था-"ऐसा कभी नहीं करती, यही कह-कहकर तो तुमने उसे सिर पर चढ़ा लिया है अम्मा, अब भुगतो, जानती हो आज रघु कक्का क्या कह रहे थे।"

"चल भीतर चल बेटी। वह अभागी गौरी, यहीं कहीं कान लगाए, बिल्ली-सी देख रही होगी," अम्मा उसे हाथ पकड़कर भीतर खींच ले गई थीं, फिर दोनों कमरे में बड़ी देर तक, बिना कुछ कहे चुपचाप बैठी रहीं। लालू भला ऐसा अवसर कभी चुका सकता था? वह बहन को ढूँढ़ने के बहाने निश्चय ही अपनी चांडाल चौकड़ी के साथ कहीं निकल गया होगा।

साढ़े नौ बज गए थे। किससे कहेंगी? क्या करेंगी अब? पड़ोसियों से कुछ कहना व्यर्थ था-एक तूफान खड़ा हो जाएगा! पत्ता भी खटकता तो माँ-बेटी चौकन्नी होकर, खिड़की पर खड़ी हो जातीं, किसी स्कूटर-कार के निकट आने का आभास दोनों को उद्विग्न कर एक साथ कई बार खिड़की पर खड़ी कर चुका था, किन्तु दूसरे ही क्षण सड़क निःस्तब्ध हो जाती।

"जानती हो अम्मा!" कुमुद ने भर्राए गले से कहा-"रघु कक्का कह रहे थे, वह उसे दो दिन किसी के साथ काली कार में आते देख चुके हैं। तुमने भी कभी देखा क्या?" कठोर दृष्टि से उसने माँ की ओर देखकर पूछा था।

"काली कार? नहीं तो।"

पर कुमुद को लगा, उसकी सरला अम्मा की उस डरी सहमी 'नहीं' में भी एक विवश स्वीकृति है। हाँ उसने देखा है और यही कारण था कि आज छोटी पुत्री की अनुपस्थिति उसे नाना भयावह कल्पनाओं से सहमा रही थी।

अचानक द्वार की कुंडी खटकी और माँ-बेटी दोनों एक साथ तीर-सी लपकी थीं-

"क्षमा कीजिएगा, कुमुद जोशी क्या इसी मकान में रहती हैं?" उस वर्दीधारी पुलिस के कर्मचारी को देखते ही अम्मा का चेहरा विवर्ण हो गया था। "कोई एक्सीडेंट हो गया है क्या?" अम्मा ने काँपते गले से पूछा।

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