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नारी विमर्श >> चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

चल खुसरो घर आपने (अजिल्द)

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3736
आईएसबीएन :9788183616621

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अन्य सभी उपन्यासों की भाँति शिवानी का यह उपन्यास भी पाठक को मंत्र-मुग्ध कर देने में समर्थ है


तीसरे दिन अम्मा रात की गाड़ी से अड़ोस-पड़ोस की नजर वचा, स्वयं उसे बड़े मामा के पास पहुँचाने पहाड़ चली गई थीं। लालू भी बहन की दुर्दशा देख, सहमकर कमरे से दो दिन तक बाहर ही नहीं निकला। लम्बी आयल और निम्नमुखी मूंछों वाले, उसके कई मित्र उसे बुलाने आए तो कुमुद ने कठोर स्वर में उनसे कह दिया, "लालू नहीं है, पहाड़ गया है।" उन छोकरों को देख उसके हाड़-मज्जा जल जाती थी। कैसे वह उसकी फीस जुटाती थी और कालेज गई तो पता लगा दो महीने से फीस ही नहीं जमा की गई थी। पिछली परीक्षा में केवल एक ही विषय में वह पास हुआ था। जब वह उससे रिजल्ट-कार्ड की बात पूछती, तब वह कहता--"दीदी इस बार रिजल्ट-कार्ड किसी को नहीं मिला।" कैसे बाबूजी ने उसे पेट काटकर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाया था, उसकी यूनिफार्म, उसकी महँगी किताबें, जूते-मोजे, रूमाल-टाई सबको जुटाने में बेचारे बाबूजी को अपने दरिद्र परिवार का शोषण करना पड़ता था, पर जब लालू उसके मित्रों से या स्वयं उनसे धड़ल्ले से अंग्रेजी में बहस करता तब उनका सीना गर्व से तन जाता। वही अंग्रेजी स्कूल की शिक्षा और मित्रों का अस्वाभाविक परिवेश उसे ले डूबा। स्कूल के मित्रों में से अधिकांश सम्भ्रान्त समृद्ध परिवारों के कुलदीपक थे या फिर इंजन-ड्राइवर या अनाथ-मिशन के दत्तक पुत्र-थे। लालू आरम्भ से ही अम्मा का लाइला था, उन्हीं के लाड़-दुलार ने उसे बिगाड़ा भी था। एक बार उसने गिटार लेने की जिद की तो अम्मा अपने कान की तरकी बेचकर उसके लिए गिटार खरीद लाई। बाबूजी को जब पता चला, तब घर में महाभारत मच गया था-"ठीक है बनाओ साले को भाँड-मीरासी, हमारा क्या!" छिपकर वह पिछवाड़े के रास्ते से. साँप-सा रेंगता, हजरतगंज के किसी गिटार-स्कूल में गिटार सीखने जाता है और अम्मा ही उसकी फीस भरती है, यह सब दोनों बहनें जानती थीं, फिर भी दोनों ने कभी बाबूजी से उसकी चुगली नहीं खाई।

बाबूजी की मृत्यु के तीसरे ही महीने से भाई की गतिविधियाँ देख कुमुद का माथा ठनक गया था। उसके कपड़े वही धोती थी, इधर एक विचित्र कड़ई दुर्गन्ध उन कपड़ों से आने लगी थी। तब क्या अभागा गाँजा-चरस पीने लगा था?

"दीदी," एक दिन उमा ने फुसफुसाकर उससे कहा-“लालू को मैंने आज कहाँ देखा जानती हो? रोबर्स के पास..."

"वह क्या है री?" उसने आश्चर्य से पूछा।

"वही तो लखनऊ के चरसी छोकरों का अड्डा है, वहीं सिगरेट में चरस रखकर पीते हैं..."

"तू क्या करने गई थी वहाँ," कुमुद ने उमा के हाथ जोर से पकड़कर उसे झकझोर दिया।

“आह छोड़ो दीदी, क्या करती हो, मेरी एक सहेली मुझे सौफ्टी खिलाने ले गई थी..."

"देख उमा, मैंने तुझे लाख बार समझाया है तू किसी के साथ ऐसे नहीं जाएगी-तेरा मन सौफ्टी खाने को ही करता है तो मुझसे कह, मैं ले चलूँगी तुझे।"

“वाह रे, मैं क्या अकेली गई थी? मीरा थी, निकी थी, लता थी..."

"कोई हो, मैंने जो कहा और जो कह रही हूँ, उसे कान खोलकर सुन ले! आज से जहाँ जाना होगा, मुझसे कहकर जाएगी, समझी?"

उमा का मुँह फूल गया था, बिना बहन के आदेश का समर्थन किए, वह मुँह फेरकर सो गई। यही गुण था उस लड़की में, जहाँ करवट बदली, वहीं गहरी नींद में डूब जाती थी-एकदम निष्पाप शिशु-से सुन्दर बहन के चेहरे को देख, उसे अपने शंकालु चित्त पर स्वयं ग्लानि हो आई थी। उसकी सखी नीता बनर्जी कह रही थी-“कुमुद, सुना है कुँवारी अध्यापिका कुछ अधिक ही शक्की होती हैं, हममें भी शायद यह अवगुण आ गया, मैं तो लड़कियों की कापियाँ बीच-बीच में टटोलती रहती हूँ। कहीं कोई प्रेमपत्र तो नहीं छिपाकर लाईं।"

किन्तु उसकी शंका क्या निर्मूल थी? बाबूजी के सहपाठी रघुवरदत्त पांडे ही उसके भाई के कालेज में बड़े बाबू थे। उन्हीं से भाई की प्रगति का लेखा-जोखा लेने वह पहुँची तो अनायास ही छोटी बहन की अशोभनीय प्रगति का सूत्र स्वयं हाथ में आ गया, "बेटी, समझ में नहीं आता कि धरणीधर का बेटा, ऐसा कैसे निकल गया। दो दिन तो मैंने इसे अपनी आँखों से सिनेमा की टिकट की लाइन में खड़ा देखा, मुझे देखकर भले ही छोकरे ने मुँह फिरा लिया था, पर मेरी नजर से कौन आज तक बच पाया है? मैं जानता हूँ कि सक्सेना के हरामखोर जनाने छोकरे की संगत ने ही इसे डुबाया है, पर उसका बाप है आई.ए.एस., एक न एक दिन अपने इस निकम्मे छोकरे को भी अपने ओहदे के बल पर किसी नौकरी पर टिका देगा, पर यह क्या खाकर उसकी बराबरी करेगा? गाँजे का दम यह लगाता है, चरस यह पीता है, क्या तुमने और तुम्हारी माँ ने इसे छुट्टे साँड़-सा ही छोड़ दिया है? कभी यह नहीं पूछा कि इतनी रात को कहाँ से आता है? क्योंकि मैंने इसे कई बार रात नौ बजे निशातगंज में मनहूस छोकरों के साथ देखा है।"

"पूछा क्यों नहीं कक्का , पर वह बेहद ढीठ हो गया है। हमें कुछ समझता ही नहीं..."

"एक बात और कहूँगा कुमुद," एक क्षण को रघु कक्का गम्भीर हो गए थे, जैसे सोच रहे हों कि जिस अप्रिय सत्य का प्रसंग छेड़ने वह जा रहे थे, उसे अभी कहना उचित होगा या नहीं। क्या यह लड़की, जो अमानवीय साहस से पिता की मृत्यु के पश्चात् एक प्रकार से अकेली ही परिवार को ठेल रही थी, यह दो धक्के एक साथ सह पाएगी? कहीं बेचारी एकदम टूट तो नहीं पड़ेगी?

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