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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...

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अनदेखा रास्ता


नौकरशाही के ऐसे फरमान देखकर मैं पागल हो जाता हूँ।" अपने मित्र की ओर एक चिट्ठी उछालते हुए मेजर दलजीत सिंह सौंध चीखा। मित्र ने चिट्ठी खोली। चिट्ठी खोलते ही सबसे पहले उसकी नजर भारत सरकार के तीन शेरोंवाले निशान पर पड़ी, जो लाल रंग में चिट्ठी के ऊपर छपा था। जाहिर है, चिट्ठी भारत सरकार के किसी महकमे द्वारा भेजी गई थी। रक्षा विभाग की तरफ से आई इस चिट्ठी में अंग्रेजी में छपा छोटा सा संदेश था- आपसे अनुरोध है कि आप 21 अप्रैल, 2010 को सुबह 11 बजे तक इस कार्यालय में बुलाई गई बैठक में उपस्थित होने की कृपा करें। आपकी यात्रा के टी.ए.डी.ए. का इस विभाग के नियमों के अनुसार भुगतान किया जाएगा। अगर आप अधोहस्ताक्षरधारी को अपने आगमन की पूर्व सूचना दे सकें तो हमें सुविधा होगी।'

मित्र ने मुसकराते हुए पूछा, "तो इसमें क्या खराबी है ?" हालाँकि उसे जवाब मालूम था, जिसे दलजीत ने ज्वालामुखी की तरह उगल दिया, "वे चिट्ठी को सीधे-सपाट शब्दों में क्यों नहीं लिखते? कौन मुझसे अनुरोध कर रहा है ? कौन मेरी सूचना का स्वागत करेगा?"

"दलजीत, यही वह पहला सबक है जो विभिन्न प्रशासनिक सेवाओं में हमारे नौकरशाहों को सिखाया जाता है कि भूल जाओ कि तुम कौन हो"तुम अपने विभाग के लिए लिख रहे हो। कभी भी प्रथम पुरुष एकवचन में मत लिखो, वरना लिखे हुए वक्तव्यों के लिए तुम्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा। अगर कोई अफसर तुम्हें बुलावा भेजे और आने-जाने का खर्च दे तो कोई ऑडिटर उससे पूछ सकता है कि सरकारी पैसे को उड़ानेवाला वह कौन होता है ? या किसने उसे यह अधिकार दिया? इसलिए सबसे अच्छा तरीका है कि बातों को घुमा-फिराकर लिखा जाए, जिससे तुम्हारी कोई जिम्मेदारी न बने और मौज-मस्ती भी हो जाए।" मित्र ने दलजीत के विचारों से सहमत होते हुए कहा। पर वह भी जानता था कि अब उस मशीनरी को बदलने के लिए बहुत देर हो चुकी है, जिसे 'सरकार' कहा जाता है, जो ऊपर से नीचे तक निकम्मेपन की पर्याय बन चुकी है।

"ठीक है!" दलजीत ने हथियार डाल दिए, "लेकिन फिर हमारी शिक्षण संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में भी अफसर उसी ढर्रे पर क्यों चलते हैं ?"

"यह तो अंग्रेजों की छोड़ी हुई विरासत है, दोस्त!"
'जो पिछले साठ साल में और भी ज्यादा फल-फूल गई है।"
'सरकार को अपने हाल पर छोड़ दो; पर तुम दिल्ली जा रहे हो या नहीं?" मित्र ने पूछा।

"यह तथाकथित अनुरोध असल में एक फरमान है। मैं अभी, इसी वक्त इंटरनेट पर अपनी यात्रा के लिए टिकट बुक कराता हूँ।" हालाँकि दलजीत को सरकारी भाषा से चिढ़ थी, पर वह इसे अच्छी तरह समझता था।

कुँवारों के फ्लैट में पसरा माननीय विलियम मॉनक्रीफ फुरसत में नाश्ते का मजा ले रहा था। साथ ही वह 'द टाइम्स' में पत्रोंवाले स्तंभ को पढ़ भी रहा था। एटन और कैंब्रिज में पढ़ाई पूरी कर वह रॉयल एयर फोर्स में शामिल हुआ और वहाँ उसने बहादुरी के लिए एक मेडल भी जीता। पर अब चूँकि दुनिया ऐसी व्यवस्था की ओर बढ़ रही थी जिसमें लड़ाइयाँ कम से कमतर होती जा रही थीं, लिहाजा उसने आर.ए.एफ. को जल्द ही अलविदा कह दिया। इस तरह एक अर्थ में वह ब्रिटेन के बेरोजगारों की जमात में शामिल हो गया था। क्योंकि उसे अपना मनपसंद काम नहीं मिल सका- ऐसा काम जिसमें रोमांच हो, इसलिए कभी- कभार वह सोचा करता कि काश, वह भी डेढ़ सदी पहले विक्टोरिया के इंग्लैंड में पैदा हुआ होता!

पाठकों के पत्र पढ़ने के बाद उसने नौकरियों के स्तंभों पर नजर दौड़ाई। उसे आशा थी कि एक-न-एक दिन उसे उसमें कोई ऐसा विज्ञापन जरूर दिखेगा, जो उसे साहस और रोमांच की दुनिया में ले जाएगा।

और शायद वह दिन आज आ ही गया था! एक छोटे से बक्से में छपे विज्ञापन में लिखा था-'रोज-रोज एक ही ढर्रे से ऊब गए हैं? साहस, रोमांच और चुनौती की तलाश में हैं ? लिखिए बॉक्स नं. 3457।'

विलियम को 99 प्रतिशत पूर्ण विश्वास हो गया कि यह काम जरूर किसी सनकी का है, जिसके पास 'टाइम्स' में इश्तहार छपवाने के लिए अथाह पैसा है। लेकिन वह 1 प्रतिशत जोखिम उठाने को तैयार था कि कहीं यह इश्तहार असली हुआ तो? आखिर आवेदन करने में उसकी जेब से क्या जा रहा है ? केवल डाक टिकट का पैसा, जो वह आसानी से खर्च कर सकता था।

तो इस तरह माननीय विलियम मॉनक्रीफ अपनी टेबल पर पहुँचा और अपना कीमती नोट पेपर खींचकर बाहर निकाला।

डॉ. कार्टर पैटरसन ने अपनी कार अपने अपार्टमेंट परिसर में जमीन के नीचे बने कार पार्किंग में पार्क की और उसमें ताला लगाकर लिफ्ट की ओर दौड़ पड़े। लिफ्ट में उन्होंने अपनी मंजिलवाला बटन दबाया और जैसे ही लिफ्ट ने चलना शुरू किया, उन्होंने अपनी घड़ी पर निगाह डाली। उस समय शाम के 5.50 बजे थे।

अपार्टमेंट में घुसते ही उन्होंने अपना टेलीविजन चालू किया। टेलीविजन पर अपने तीखे तेवरों और रूढ़िवादी विचारों के लिए मशहूर कमेंटेटर किसी कार्यक्रम को समेट रहा था-".."अगर हमारे वैज्ञानिक अपने हवाई किलों से निकलकर जमीनी हकीकत पर आ गए होते तो ऐसी हालत पैदा ही नहीं होती।" इसका क्या मतलब था? क्या सीनेट ने उलटा फैसला लिया है ? क्या उसे अपने अन्य साथियों के साथ जीनेटिक इंजीनियरिंग पर नए-नए परीक्षण करने से मना कर दिया जाएगा? कार्टर यह जानने को बेचैन था। अब वह अपनी कार में लगे खराब रेडियो को गालियाँ देने लगा कि उसके कारण वह रास्ते में खबरें सुन ही नहीं पाया। अब उसे कुछ देर और इंतजार करना पड़ेगा, जब तक कि टी.वी. समाचारों में मुख्य समाचार नहीं दिखाते हैं। अब वह उन विज्ञापनों को गाली बकने लगा जो कमेंटेटर के हटते ही टेलीविजन पर दिखाए जाने लगे। आखिरकार समाचार-वाचिका मुख्य समाचारों के साथ बुलेटिन को समेटने लगी।

"सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने घोषणा की है कि मध्य-पूर्व में वार्ता एक कदम आगे बढ़ी है। दक्षिण कैलिफोर्निया में आग पर काबू पा लिया गया है। सीनेट में तमाम जीनेटिक इंजीनियरिंग परीक्षणों को तब तक रोकने के पक्ष में 70 और विपक्ष में 30 मत पड़े, जब तक कि कांग्रेसीय कमेटी पूरे हालात की समीक्षा नहीं कर लेती है। मैंकियो का विजय अभियान जारी है...।"

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