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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...


इस अनोखे मैच के खत्म होने के बाद एक और अनोखी घटना हुई। जैसे ही आखिरी विकेट गिरी, प्रमोद पैवेलियन की ओर भागा। इससे पहले कि उत्साहित भारतीय दर्शक, उत्तेजित खबरनवीस और टी.वी. कैमरामैन उसके निकट भी पहुँच पाते, वह बाहर खड़ी कार में बैठा और वहाँ से खिसक लिया।

प्रमोद कहाँ चला गया, किसी को नहीं पता। भारतीय टीम का मैनेजर, पुलिस और अखबारवाले पागलों की तरह उसकी तलाश करने लगे; पर उसका कुछ पता नहीं चल सका। अगले दिन किसी अज्ञात आदमी ने 'फ्लीट स्ट्रीट' अखबार के दफ्तर में फोन किया और भारतीय लहजे में गुमशुदा खिलाड़ी के बारे में सूचना दी- "मैं सुरक्षित हूँ, मेरी चिंता मत करो। मैं 24 घंटे के भीतर लौट आऊँगा।"

क्या यह संदेश असली था या कोई मजाक कर रहा था? पहचान के तौर पर फोन करनेवाले ने पुलिस को क्रॉयडॉन में एक जगह का पता बताया, जहाँ रंगनेकर की शर्ट पाई जाने वाली थी। पुलिस ने वह जगह ढूँढ़कर शर्ट बरामद भी कर ली। वह सचमुच रंगनेकर की ही शर्ट थी।

इसी बीच अखबारों में प्रमोद रंगनेकर की लाजवाब गेंदबाजी के कसीदे पढ़े जा रहे थे–'भारतीय काला जादू ?' 'बेहतरीन गेंदबाजी या पूरब का सम्मोहन?' और 'रंगनेकर आउट लेकर्स जिमलेकर'-जैसी सुर्खियाँ अखबारों में छाई हुई थीं। यहाँ तक कि 'टाइम्स' ने भी रंगनेकर के जादुई करिश्मे पर अपने संपादकीय में प्रशंसा के पुल बाँध दिए। साथ ही अखबार ने यह भी माना कि खेल के दौरान और खेल के बाद की घटनाओं से वह हैरान-परेशान है।

विज्डन ने तुरंत ही अपने क्रिकेट इतिहास में एक और कीर्तिमान जोड़ दिया।

अगले दिन प्रमोद बो स्ट्रीट पुलिस थाने में मिल गया, लेकिन गहमागहमी का जो ज्वार आया था वह अब पूरी तरह उतर चुका था। उसे टेस्ट मैच में घटी एक भी घटना याद नहीं थी या उसके बाद जो कुछ हुआ वह भी उसे याद नहीं था। जबकि उसका दिमाग पूरी तरह ठीक था। लेकिन फिर भी वह इस बात को मजाक मान रहा था कि उसने टेस्ट मैच में इतनी जोरदार भूमिका निभाई थी।

"मैं अगर बाएँ हाथ से गेंदबाजी करूँ तो एक बच्चे को भी आउट नहीं कर सकता।" उसने शांत भाव से कहा। उसकी बातों में सच्चाई झलक रही थी। 13 दिसंबर, 2005 की तारीख मैं कभी भी नहीं भूलूँगा। अपना नाश्ता-पानी खत्म कर मैं जरूरी काम से बाहर निकलने ही वाला था कि फोन की घंटी घनघना उठी।

"जॉन, ये तुम्हारे लिए है। फोन करनेवाला अपनी पहचान नहीं बता रहा, पर कहता है कि बहुत अहम बात है।" ऐन ने कहा। मैंने मन-ही-मन गाली दी- अब मैं अपने काम पर निश्चित ही देर से पहुँचूँगा।

"हाँ, जॉन आर्मस्ट्रांग बोल रहा हूँ।" यथासंभव विनम्र होते हुए मैंने कहा। 'सुप्रभात जॉन! तुम्हें मेरी आवाज सुनकर हैरानी होगी। मैं अजीत सिंह बोल रहा हूँ, अजीत सिंह!

अजीत सिंह ! इतने साल बाद! अब चिढ़ने की बजाय मुझे आश्चर्य हो रहा था और मैं सुनता गया-"क्या मैं आज रात तुमसे मिल सकता हूँ? बहुत जरूरी काम है, करीब साढ़े आठ बजे?" लगता था कि वह अपना कार्यक्रम मुझ पर थोप रहा था।

मैंने सख्त लहजे में कहा, "रात के खाने पर आओ। ऐन अपनी पकाई करी से मुझे मार डालना चाहती है। आओ, दोनों मिलकर शिकार बनें।"

'पक्का, धन्यवाद!" अजीत ने कहा। वह फोन रखने ही वाला था कि अचानक उसे कुछ याद आया। उसने कहा, "और जॉन, मुझे उम्मीद है कि अगर मैं छुरी और काँटे के बजाय अपने हाथों से खाऊँ तो ऐन और तुम बुरा नहीं मानोगे।"

छुरी और काँटे का जिक्र क्यों? इससे पहले कि मैं पूछ पाता कि क्या वह वास्तव में गंभीर है, अजीत ने फोन रख दिया।

करी बनाकर ऐन बहुत खुश थी। उसने कुछ भारतीय मिठाइयों का भी स्वाद लेना चाहा। उसे अपनी पाकशाला में छोड़कर मैं जल्दी से ट्रेन पकड़ने दौड़ा। दिन भर मेरा ध्यान अजीत पर ही लगा रहा और उससे होनेवाली मुलाकात के बारे सोचता रहा। वह मुझे क्या बताना चाह रहा था?

कैंब्रिज में स्नातक स्तर पर प्रमोद और अजीत मेरे साथ थे। कॉलेज की एक सीढ़ी के आस-पास हमारे कमरे थे। मुझे और प्रमोद को क्रिकेट में अच्छी-खासी दिलचस्पी थी और अपनी पहली गरमी के बीतते-बीतते हम दोनों को विश्वविद्यालय टीम में चुन लिया गया। अजीत के साथ मेरे संबंध कुछ अलग ही किस्म के थे। हम दोनों भारतीय दर्शन पर अकसर लंबी-लंबी चर्चाएँ करते थे। सुबह के समय तो अकसर हम दोनों की बातचीत घंटों तक चला करती थी। इन चर्चाओं की बदौलत ही मैं भारतविद् के रूप में अपनी आजीविका बना सका। लेकिन अजीत भौतिकीविद् था। गणित में तीसरे साल की परीक्षा में 'मैथ्यू पुरस्कार' जीतने के बाद उसने भौतिकी विषय चुना। यहाँ पर भी उसने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। तीन साल बाद मैंने कैंब्रिज छोड़ दिया था, लेकिन वह कैवेंडिश में अनुसंधान कार्य और बाल करने लगा। कभी-कभार हम मिलते थे और हमारे बीच पत्र-व्यवहार भी होता था। मुझे याद है कि उसे 'स्मिथ पुरस्कार' मिलने पर मैंने उसको पत्र लिखा था। पर बाद में हमारा संपर्क धीरे-धीरे कम होने लगा। मुझे पुरातत्त्व अन्वेषणों के लिए भारतीय उपमहाद्वीप की कई बार यात्रा करनी पड़ी और आखिरकार, लंदन में संग्रहालय क्यूरेटर की नौकरी मिल गई, जहाँ मैं आज भी हूँ।

अजीत हमेशा से ही एकांतप्रिय व्यक्ति था। मुझे शक होता है कि मेरे अलावा उसका कोई और मित्र भी था। पाँच साल पहले जब हम आखिरी बार मिले थे, तब अजीत कॉलेज फैलोशिप छोड़कर इंग्लैंड में ही एक अनुसंधान संस्थान में काम करने लगा था। हालाँकि उसने कभी बताया नहीं, लेकिन मुझे यकीन है कि उसका काम कुछ अलग ही किस्म का था।

तो क्या आज रात वह मुझे अपने काम के बारे में बताने जा रहा था? ठीक साढ़े आठ बजे दरवाजे की घंटी बज उठी। अजीत को पहचानने में मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। वह पहले से कहीं अधिक दुबला-पतला हो गया था भी कुछ सफेद होने लगे थे। इन सबके अलावा उसमें एक और मामूली सा परिवर्तन आया था, जिसे मैं भाँप सकता था-आज की तमाम घटनाओं के बाद मैं इसका सबूत भी दे सकता था। लेकिन ईमानदारी की बात यह है कि हमारी मुलाकात के वक्त मैं सही-सही नहीं बता सकता था कि उसमें क्या परिवर्तन आया था।

उसके बातचीत करने के अंदाज से मुझे सुकून मिला। जहाँ तक मेरे प्रति उसके नजरिए का संबंध था, वह जरा भी नहीं बदला था।

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