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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...


भारतीय परंपरा के अनुसार थालियों में भोजन परोसा गया। यह भी ऐन की कलात्मक मेहमाननवाजी का एक प्रयास था। भोजन के दौरान अजीत थोड़ी-बहुत बातचीत को छोड़कर पूरे समय खामोश रहा। लेकिन इससे मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि खाने की टेबल पर बैठकर अजीत बातों पर कम, खाने पर ज्यादा ध्यान देनेवाला व्यक्ति था। लेकिन उसका खाने का तरीका देखकर मुझे कुछ आश्चर्य जरूर हुआ।

उसके सनकपूर्ण सुझावों पर हम सभी ने छुरी और काँटे छोड़कर हाथ से खाना शुरू किया; लेकिन हाथों से खाते हुए अजीत को देखकर उतना ही अजीब लग रहा था जितना किसी पश्चिमी व्यक्ति को हाथों से भारतीय खाना खाते देखकर लगता है। मैंने और ऐन ने इस पर उसे टोका। लेकिन अजीत के पास उसका भी जवाब था-"पतनोन्मुख पश्चिम में इतने साल रहने के बाद हाथ से खाने की मेरी आदत छूट गई है।" उसकी इस सफाई से ऐन तो संतुष्ट लग रही थी, पर मेरे मन में अब भी शक था।

अजीत के अजीबोगरीब व्यवहार के बारे में मेरा शक भोजन के उपरांत तब और पक्का हो गया जब मेरा सात वर्षीय बेटा केन एक पुस्तक ले आया।

"अंकल, आपने मेरे पिछले जन्मदिन पर यह पुस्तक भेजी थी, परंतु आप इस पर दस्तखत करना भूल गए थे। क्या आप अब इस पर दस्तखत कर देंगे?"

हकीकत भी यही थी। पहले साल अजीत की प्रयोगशाला से केन के लिए एक पुस्तक आई थी। उस पर लिखा था-'केन को उसके सातवें जन्मदिन पर'। मैं जानता हूँ कि यह अजीत की ही लिखावट थी। अपने खास अंदाज में अजीत ने केन का जन्मदिन याद रखा, लेकिन अपना नाम लिखना भूल गया।

अजीत ने पुस्तक अपने हाथों में ली और सरसरी तौर पर उसे देखा। फिर सिर हिलाते हुए पुस्तक केन को लौटा दी।

'मुझे दुःख है, केन! आज मेरी आँखें मुझे परेशान कर रही हैं, इसलिए मैं अभी दस्तखत नहीं कर सकता।"

'छोड़ो भी! अपना नाम लिखने के लिए तुम्हें अपनी आँखों पर जोर डालने की जरूरत है!" केन की तरफ से मैंने विरोध जताया।

"लेकिन मेरे डॉक्टर ने मुझे इस दशा में कुछ भी पढ़ने या लिखने के लिए साफ तौर पर मना किया है। समझौते के तौर पर केन, जब मैं अच्छा हो जाऊँगा तो दोनों पुस्तकों पर दस्तखत कर दूंगा।"

अजीत की आवाज में दृढ़ता थी, इसलिए मैंने और केन ने ज्यादा दबाव नहीं डाला। एक और उपहार की पेशकश से केन संतुष्ट था। पुस्तकों में उसकी अच्छी-खासी दिलचस्पी थी। लेकिन मुझे अजीत की प्रतिक्रिया उसके स्वभाव के विपरीत लगी।

'अजीत, अब शायद तुम मुझे बता सकते हो कि तुम आज रात यहाँ क्यों आए?'' अपने अध्ययन-कक्ष में उसे आरामकुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए मैंने पूछा। मैं अपने भीतर उमड़ रही जिज्ञासा को दबाने की कोशिश कर रहा था। मैंने उसे एक गिलास पोर्ट वाइन पीने को दी। अब हम बिलकुल अकेले थे और मुझे उससे कुछ महत्त्वपूर्ण बात सुनने की उम्मीद थी।

"जरा सब्र करो!" अजीत के चेहरे पर आराम भरी मुसकराहट थी। उसने अपने ब्रीफकेस में से धीरे से एक पैकेट निकाला और उसे सावधानीपूर्वक खोला। पैकेट में से नृत्य मुद्रा में गणेशजी की एक सुंदर प्रतिमा निकली। हिंदुओं के देवता गणेशजी का सिर हाथी का और शेष शरीर मनुष्य का है। बुद्ध की मूर्तियों की तरह गणेशजी की ज्यादातर मूर्तियाँ भी पालथी मारकर बैठी मुद्रा में मिलती हैं; लेकिन यह मूर्ति नृत्य मुद्रा में थी, जो सामान्य रूप से नहीं मिलती है। मैं तुरंत ही पहचान गया, क्योंकि एक ऐसी ही मूर्ति संग्रहालय के ब्रिटिशकालीन भारत वर्ग में मौजूद थी। यह मूर्ति मराठा शासकों की थी, जिनका ब्रिटिश शासन स्थापित होने से पूर्व भारत के अधिकांश भागों पर नियंत्रण था। गणेशजी पेशवा शासकों के महत्त्वपूर्ण देवता थे और मेरे संग्रहालय में रखी उनकी मूर्ति मराठों के किले शनिवारवाड़ा से लाई गई थी, जिस पर सन् 1818 में पुणे में एल्फिंस्टन की सेना ने कब्जा कर लिया था। मूर्ति के संग्रहालय तक पहुँचने की लंबी कहानी है। मूर्ति देखकर मेरी पहली प्रतिक्रिया यह थी-मैंने अजीत से पूछा कि उसे मूर्ति की प्रतिकृति कहाँ से मिली?

ध्यान से देखो! क्या यह सचमुच में एक प्रतिकृति है?" अजीत के चेहरे पर भड़कानेवाली मुसकान तैर रही थी। मैंने मूर्ति को अपने हाथों में लेकर अच्छी तरह उलट-पलटकर देखा। सचमुच यह मूर्ति उसी कारीगर द्वारा बनाई गई थी जिसने मेरे संग्रहालय में रखी मूर्ति बनाई थी। तभी अचानक मुझे एक बड़ा फर्क नजर आया। पहली नजर में मैं इस अंतर को क्यों नहीं देख पाया?" गणेशजी के हस्तीमुख में सूँड दाईं ओर मुड़ी हुई थी, जबकि ज्यादातर मूर्तियों में सूँड बाईं ओर मुड़ी होती है।

इस खास पहलू से मेरे हाथ में रखी मूर्ति न केवल संग्रहालय में रखी मूर्ति से भिन्न हो गई थी बल्कि अपनी दुर्लभता के कारण कहीं अधिक मूल्यवान् भी हो गई थी। मैंने यह बात अजीत को बताई।

"सचमुच, मैं दोनों मूर्तियों को तुलना के लिए अगल-बगल रखकर देखना चाहता हूँ।" अजीत की आवाज में आश्चर्य से ज्यादा आनंद का पुट था।"क्योंकि तुम्हें यह मूर्ति इतनी बेशकीमती लगी, तो क्या मैं इसे तुम्हारे संग्रहालय को भेंट कर सकता हूँ?"

इस उदार मन से दिए गए तोहफे के लिए मैंने उसका धन्यवाद किया और वादा किया कि उसे संग्रहालय के ट्रस्टियों की ओर से एक औपचारिक प्रशस्ति- पत्र भी दिलवाऊँगा; लेकिन मैं अपनी जिज्ञासा दबा नहीं सका और पूछ बैठा, "इस मूर्ति की क्या कहानी है ? तुम्हें यह कहाँ से मिली?"

"यह सब कभी फुरसत में बताऊँगा। फिलहाल तो तुम्हें हैरान होते देखकर मैं खुश हूँ। जॉन, क्या मैं तुमसे एक सवाल पूछ सकता हूँ ? तुम मुझे अच्छी तरह जानते हो। तुम्हारे विचार से मेरे शरीर पर पहचान चिह्न क्या है ?" मैं इस तरह अचानक विषय-परिवर्तन होने से अचकचा गया। अलबत्ता जवाब मुझे मालूम था।

"तुम्हारे बाएँ हाथ का अंगूठा दाएँ हाथ के अंगूठे से करीब आधा इंच छोटा है।"
'क्या तुम इसकी कसम खा सकते हो?"
'सचमुच!"
अजीत ने अपने दोनों हाथ मेरे सामने फैला दिए। सचमुच उसका एक अंगूठा दूसरे से छोटा था। पर बाएँ नहीं बल्कि दाएँ हाथ का अंगूठा छोटा था।

मैं कितनी देर असमंजस की स्थिति में रहा, पता नहीं; क्योंकि जब मुझे होश आया तो मैंने पाया कि हाथ में ब्रांडी का गिलास लिये अजीत बेचैनी से मुझे घूरे जा रहा था।

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