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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...


काले आसमान की तसवीर बदलती रहती है, क्योंकि धरती सूर्य का चक्कर काटती है और सूर्य भी अपनी जगह पर स्थिर नहीं रहता। सूर्य ही क्यों, ध्रुवतारा भी अटल नहीं है और ग्रहों तथा उनके उपग्रहों को क्या कहा जाए, जो उन्हीं पुराने सितारों के बीच चलते-फिरते नजर आते हैं। और धूमकेतु ?

किसी भी शौकिया खगोलविद् की तरह दत्ता दा की भी दबी हुई इच्छा थी कि वे भी एक दिन किसी नए धूमकेतु को खोज निकालेंगे; क्योंकि धूमकेतु नए भी हो सकते हैं। जैसा कि वे सौर मंडल के दूर-दराज के कोनों से आते हैं। ग्रहों की तरह धूमकेतु भी सूर्य का चक्कर लगाते हैं, लेकिन उनकी कक्षाएँ बहुत ही अनियमित होती हैं, इसलिए जब कोई धूमकेतु सूर्य के निकट आता है तो इसकी लंबी सी पूँछ मिल जाती है जो सूर्य की रोशनी में चमकती हुई दिखाई देती है। उसके बाद धूमकेतु अँधेरे में कहीं लुप्त हो जाता है तथा वर्षों या कई बार तो सदियों तक नहीं दिखता।

दत्ता दा को याद है कि 1986 में जब हैली धूमकेतु दिखाई दिया था तो चारों ओर कितनी उत्तेजना फैल गई थी! यह धूमकेतु 76 साल में एक बार सूर्य के निकट आता है। वह जानते थे कि इससे भी लंबी परिक्रमा अवधिवाले धूमकेतु भी अस्तित्व हैं। और ऐसा कोई धूमकेतु, जिसका कोई इतिहास दर्ज न हो, नया माना जाएगा और खोजकर्ता के नाम पर उसको नाम दिया जाएगा तो दत्ता दा की दबी हुई इच्छा थी—'दत्ता धूमकेतु' को खोज निकालना।

लेकिन आठ इंच के दिव्या के साथ ऐसा होने की कितनी संभावना थी? पेशेवर खगोलविदों के पास तो भीमकाय टेलीस्कोप होते हैं और एक-एक चीज को दर्ज करनेवाली इलेक्ट्रॉनिक गैजिटरी भी। उनके आगे तो दिव्या टेलीस्कोप बच्चा था।

लेकिन दत्ता दा आशावादी थे। वे जानते थे कि जो पेशेवर खगोलविद् हैं वे अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के अनुसार ही काम करते हैं, यानी लकीर के फकीर हैं। वे धुंधले तारों को देखेंगे, बादलों जैसी आकाशगंगाओं को देखेंगे और बहुत दूर स्थित किसी फटते हुए तारे को देखेंगे। हो सकता है कि वे धूमकेतु जैसी किसी मामूली चीज को नजरअंदाज कर दें, जिसकी कि उन्हें देखने की बिलकुल भी उम्मीद न हो। सच तो यही है कि शौकिया खगोलविदों ने ही अकसर नए-नए धूमकेतुओं को खोजा था, जिन्हें पेशेवरों ने नजरअंदाज कर दिया था। और दत्ता दा को ऐसा लगता था कि आज की रात बहुत बड़ी रात होने जा रही है।

उन्हीं पुराने सितारों के बीच दत्ता दा ने एक धुंधले से अजनबी को खोज निकाला। वह अजनबी ही था। दत्ता दा ने अपने पास रखे चार्टी से उसका मिलान किया। दिव्या के शीशों की जाँच की कि कहीं उन पर मैल तो नहीं जम गया है और टॉर्च की रोशनी में अपने जेबी कैलकुलेटर पर जल्दी-जल्दी कुछ गणनाएँ की। भले ही वे घर-गृहस्थी के कामों में अनाड़ी और भुलक्कड़ हों, लेकिन अपने प्रेक्षणों के मामले में वे सूक्ष्म-से-सूक्ष्म चीजों का ध्यान रखते थे।

सचमुच कोई गलती नहीं थी। वे जिस चीज को देख रहे थे वह पहले वहाँ नहीं थी और किसी नए धूमकेतु की तरह ही लगती थी। फिर भी वे दो बजे रात तक उसकी जाँच करते रहे।

धीरे-धीरे रात बीत गई और पूर्वी आकाश में भोर का उजाला फैलने लगा। अब तारों को देखना संभव नहीं था। दत्ता दा के रोमांच का ठिकाना नहीं था। उनसे कुछ दूरी पर ही दक्षिणेश्वर मंदिर में लोगों की चहल-पहल शुरू हो गई। फिर बेलूर मठ में भी लोगों का आना-जाना चालू हो गया। जल्द ही कोलकाता की बजबजाती शहरी जिंदगी शुरू हो जाएगी और आसमान में क्या हुआ, इसकी किसी को परवाह नहीं रहेगी।

दत्ता दा ने दिव्या को किट में रखा और छत से नीचे आ गए। क्या उन्हें यह बड़ी खबर सुनाने के लिए इंद्राणी को जगाना चाहिए? उन्होंने गहरी नींद में सोती पत्नी के शांत चेहरे को देखकर उसे छेड़ना ठीक नहीं समझा। वे जानते थे कि उन दोनों का जीवन चलाने के लिए वह दिन भर कितनी कड़ी मेहनत करती है। इसलिए दत्ता दा चुपचाप अपने बिस्तर पर लुढ़क गए।

और जल्दी ही उनके संतुष्टि भरे खर्राटे कमरे में गूंजने लगे।

दो दिन बाद आनंद बाजार पत्रिका' में सनसनीखेज खबर छपी-
'कोलकाता निवासी ने नया धूमकेतु खोजा'
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)

कोलकाता के उत्तरी उपनगर के निवासी श्री मनोज दत्ता का दावा है कि उन्होंने एक नया धूमकेतु खोजा है। पिछली दो रातों से उन्होंने इस धूमकेतु को देखा है और उसकी स्थिति के बारे में बंगलौर स्थित 'इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स' को सूचित कर दिया है। आई.आई.ए. के पास कवलूर में 90 इंच का एक टेलीस्कोप है, जो एशिया में सबसे बड़ा है। इस टेलीस्कोप ने भी दत्ता की खोज की पुष्टि की है, जो उनके शौकिया खगोलविद् के जीवन में सबसे बड़ी उपलब्धि होने जा रही थी। अपने मित्रों और प्रशंसकों के बीच 'दत्ता दा' के रूप में लोकप्रिय श्री दत्ता का अनुमान है कि अगले कुछ महीनों में धूमकेतु नंगी आँखों से दिखने लगेगा। अपनी इस खोज का सारा श्रेय वे अपने आठ इंच के टेलीस्कोप 'दिव्या' को देते हैं।

उसके बाद केवल एक हफ्ते के भीतर ही 'दत्ता धूमकेतु' को सारी दुनिया में इसी नाम से मान्यता मिल गई।

आई.आई.ए. ने उन खोजों की पुष्टि की और सारी दुनिया की वेधशालाओं को सूचित कर दिया कि नए धूमकेतु को खोजने में मान्य प्रक्रिया अपनाई गई है। लिहाजा नए धूमकेतु का नाम उसके खोजकर्ता के नाम पर रख दिया गया। इसके साथ ही अंतर्मुखी दत्ता दा दुनिया भर में मशहूर हो गए, जो उन्हें पसंद नहीं था। स्वागत और बधाई समारोहों का लंबा सिलसिला चालू हो गया, जिनमें दत्ता दा को मन मारकर उपस्थित होना पड़ता। इन समारोहों में प्रायः ऐसे लोग ही होते जिन्हें धूमकेतु के बारे में कुछ भी पता नहीं होता और जो खगोलशास्त्र को ज्योतिष विद्या समझकर लंबे-लंबे भाषण झाड़ते थे। ऐसे ही एक समारोह से लौटते समय दत्ता दा निराशा में बड़बड़ाए, "काश, मैंने इस धूमकेतु को नहीं खोजा होता!"

उन्हें आश्चर्य हुआ कि इंद्राणी देवी भी उनकी इस इच्छा से सहमत थीं- "मैं भी चाहती हूँ, पर मेरे चाहने का कारण कुछ और है। मैं जानती हूँ कि क्यों आपके मुँह से ये शब्द निकले। आपको भीड़-भाड़ भरे समारोह से घृणा है। है कि नहीं?"

"बिलकुल ठीक, यह जरूरी है कि मुझे जो सम्मान और मान्यता मिल रही है, वह मुझे अच्छी लगती है और मैं अपने मित्रों एवं शुभचिंतकों का आभारी हूँ। पर क्या तुम नहीं सोचती कि हम भारतीय ऐसी चीजों में अति कर देते हैं ? विज्ञान हो, खेलकूद या कला हो-अच्छे काम की प्रशंसा तो होनी ही चाहिए; लेकिन इसमें परिप्रेक्ष्य को भुला नहीं देना चाहिए।"

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