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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...

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धूमकेतु


दिसंबर के महीने में अमावस की काली रात थी। खिड़की से आता ठंडी हवा का झोंका इंद्राणी देवी की नींद उड़ाने के लिए काफी था। उनींदी अवस्था में उन्होंने बगलवाले तकिए को टटोलकर देखा। हालाँकि सच्चाई उन्हें पता थी, दत्ता दा अपने बिस्तर पर नहीं थे।

फिर उन्होंने दरवाजे की ओर देखा। अब उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया, क्योंकि दरवाजा पूरा खुला हुआ था।

"तो वह फिर उसी कमबख्त दिव्या से यारी निभाने गए हैं। कम-से-कम दरवाजा बंद करने का ध्यान तो रखना चाहिए था।" इंद्राणी देवी ने बड़बड़ाते हुए अपनी नाराजगी जताई; पर वे अपनी मुसकान को भी नहीं दबा पाईं। जानती थीं कि उनके पति घर-गृहस्थी की समस्याओं से पूरी तरह बेखबर हैं। क्या उनके डॉक्टर ने उन्हें ठंड से बचने के लिए सावधानी बरतने को नहीं कहा था? लेकिन वे इतने भुलक्कड़ थे कि उन्हें स्वेटर पहनने का भी ध्यान नहीं रहता, जो कि बगल में कुरसी पर पड़ा रहता था। याद भी कैसे रहता, उन पर तो दिव्या का जादू चढ़ा था!

इंद्राणी देवी ने शॉल लपेटा और सफेद पुलोवर उठाकर सीधे छत का रुख किया। उद्देश्य था अपने पति और दिव्या के बीच कबाब में हड्डी बनना। छत पर उन्होंने पाया कि वे दोनों आँखों में आँखें डाले बैठे हैं। कम-से- कम दत्ता दा तो दिव्या की आँखों में डूबे हुए थे।

इंचों में दिव्या की कमसिन फिगर 8.64 थी-यानी अपर्चर आठ इंच और फोकल लेंग्थ 64 इंच।

जब से दत्ता दा को यह टेलीस्कोप मिला, उनके रोमांच का ठिकाना नहीं है। उन्होंने इसे नाम दिया-दिव्या चक्षु।आखिर वह इस ब्रह्मांड को इनसानी आँखों से बेहतर जो देख सकता था। लेकिन इंद्राणी देवी को टेलीस्कोप अपनी सौत के समान लगता था, जिसने उनके पति को फंसा लिया था। इसलिए वे इसे 'दिव्या' कहती थीं और उसका यही नाम प्रचलित हो गया।

लेकिन दत्ता दा के लिए तो दिव्या साकार हो चुके एक सपने की तरह था। शौकिया खगोलविद् होने के नाते उनका सपना था कि उनके पास भी ढेर सारे पैसे हों, जिनसे वे एक अच्छा टेलीस्कोप खरीद सकें। उनकी यह भी इच्छा थी कि उनके पास ढेर सारा वक्त हो कि वे भी सातों आसमानों तक देख सकें। नौकरी से रिटायर होने पर उनके ये दोनों सपने साकार हो गए। अब उनके पास टेलीस्कोप खरीदने के लिए काफी पैसा था और तारों को देखने के लिए बहुत सारा वक्त भी। टेलीस्कोप को उन्होंने अच्छी तरह अपनी छत पर लगा दिया और अब वे काली लंबी रातों में टिमटिमाते तारों को देर तक निहारते रहते। कम-से-कम इंद्राणी देवी का तो यही मानना था।

"लो, यह स्वेटर पहन लो। क्या तुम चाहते हो कि नवीन बाबू कल तुम्हें बिस्तर से उठने से ही मना कर दें?"

दत्ता दा ने स्वेटर पहन लिया और वापस मुड़कर टेलीस्कोप में अपनी आँखें गड़ा दी। हालाँकि इंद्राणी देवी जानती थीं कि उनकी बातों से दत्ता दा के कानों पर जूं नहीं रेंगेगी। फिर भी वे ताना मारने से खुद को नहीं रोक सकी, "वही पुराने सितारे।"

वही पुराने सितारे! अगर दत्ता दा इस ताने को सुन भी लेते तो भी वे इसका जवाब नहीं दे पाते। कोई संगीत-प्रेमी क्यों बार-बार पुराने राग को सुनना चाहता है, जिसे बार-बार बजाया जा रहा हो? कोई कला पारखी क्यों उसी पुरानी तसवीर को घंटों यों ही निहारता रहता है ? लेकिन दत्ता दा जानते थे कि उनके सिर पर तना काला आकाश हमेशा एक जैसा नहीं रहता।

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