कहानी संग्रह >> रोमांचक विज्ञान कथाएँ रोमांचक विज्ञान कथाएँजयंत विष्णु नारलीकर
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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...
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वायरस
बाल्टीमोर में जॉन्स हॉकिंस यूनिवर्सिटी का खुशनुमा कैंपस। कैंपस में ही एक
मामूली सी दिखनेवाली इमारत और इस इमारत में है स्पेस टेलीस्कोप साइंस
इंस्टीट्यूट, जिसे सन् 1981 में बनाया गया था। इस इंस्टीट्यूट ने हबल स्पेस
टेलीस्कोप को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई थी। अनेक बार टालने के बाद
आखिरकार सन् 1990 में हबल टेलीस्कोप को अंतरिक्ष में छोड़ा गया था। स्पेस
टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट अब 75 साल का हो चुका है और हबल श्रृंखला में
तीसरी पीढ़ी के टेलीस्कोप एच.एस.टी. III के विकास में जुटा हुआ है। सन् 1609
में गैलीलियो ने खगोलशास्त्र का टेलीस्कोप से परिचय कराया था, जिससे
ब्रह्मांड को देखने के कार्य में क्रांति आ गई थी। पहले हबल टेलीस्कोप को
बनाते समय भी वैज्ञानिकों ने आशा प्रकट की थी कि इससे भी वैसी ही क्रांति आ
जाएगी। उम्मीद को याद कर जूलियो रैंजा के चेहरे पर मुसकान आ जाती थी। वास्तव
में हबल टेलीस्कोप अंतरिक्ष के अनेक रहस्यों का पर्दाफाश करने में एक बड़ा
उपकरण साबित हुआ। इसके आकार और तकनीकी की तुलना में गैलीलियो का एक इंच का
टेलीस्कोप बच्चा लगता था और आज एच.एस.टी. ||| तुलना करने पर 1990 का हबल
टेलीस्कोप भी बाबा आदम के जमाने का लगता है। तकनीकी की तीव्र गति यात्रा के
कारण ही यह मुमकिन हो पाया है।
रैंजा अपने टर्मिनल के सामने बैठा हुआ था। टर्मिनल, जो एक बड़े परदे की तरह
था, की-बोर्ड पर एक कमांड द्वारा ही तुरंत उसको कार्यालय के रूप में बदला जा
सकता था। इस परदे की सफाई और रेजलूशन के आगे पिछली सदी के अंत में उपलब्ध
सबसे अच्छे मॉनीटर भी शरमा जाएँ। की-बोर्ड पर कुछ और बटन दबाकर रँजा
एच.एस.टी. III से संपर्क कर सकता था और इस वक्त वह ठीक यही कर रहा था। उसका
उद्देश्य था बृहस्पति के आस-पड़ोस में घट रही घटनाओं को वास्तविक रूप में
देखना।
दोपहर बाद करीब तीन बजे का वक्त था। 'रात्रिकालीन आकाश' की धारणा अंतरिक्ष
टेलीस्कोपों के आगमन से इतिहास बन चुकी थी। अब खगोलीय प्रेक्षणों के लिए रात
का इंतजार नहीं करना पड़ता था। दिन हो या रात, किसी भी वक्त प्रेक्षण कर सकते
थे, क्योंकि टेलीस्कोप वायुमंडल से ऊपर अंतरिक्ष में ऐसी जगह पर लगाया गया था
जहाँ हमेशा अँधेरा रहता था। केवल सूर्य के आस-पास ही रोशनी का छोटा सा घेरा
नजर आता था। उतनी ऊँचाई पर वायुमंडल की गैसों और धूल-कणों का अभाव रहता है,
जो वायुमंडल की रोशनी को छितरा देते हैं और जिसके कारण आसमान नीला नजर आता
है। इस तरह यह प्रेक्षक के लिए फायदे की बात थी।
रैंजा का टर्मिनल फोटोनिक तकनीकी से चलता था। इस तकनीकी ने बीसवीं सदी की
इलेक्ट्रॉनिक तकनीक को काफी हद तक विस्थापित कर दिया था। इलेक्ट्रॉनों की
तुलना में फोटॉन से काम लेना कहीं अधिक सुविधाजनक था। एक बार आप जान जाएँ कि
इनसे कैसे काम लिया जाता है, तो ढेर सारी सूचनाएँ पल भर में एकत्रित कर सकते
थे। रैंजा के आगे कॉपी के आकार का टर्मिनल बॉक्स आधी सदी पहले आनेवाले
सुपर-कंप्यूटरों के मुकाबले कहीं ज्यादा कार्यकुशल था। 'बीप-बीप', टर्मिनल से
आनेवाले खतरों के संकेतों से रैंजा की नींद उड़ गई। भारी इतालवी खाना खाने से
वह कुछ उनींदा-सा हो रहा था। कंप्यूटर उसे यू.एफ.ओ. की मौजूदगी के बारे में
चौकन्ना कर रहा था। यू.एफ.ओ. यानी उड़नेवाली अनजानी चीजें, यह उसका अपना
प्रोग्राम था जो संकेत भेज रहा था। एक समय था जब कोई अनुभवी प्रेक्षक आसमान
में असाधारण वस्तु को केवल देखकर ही पहचान सकता था, जो आम आदमी की नजर में
नहीं आती। ऐसे ही प्रेक्षकों ने बिलकुल सही पहचाना था कि आसमान में
अस्पष्ट-सी दिखनेवाली चीज असल में धूमकेतु था या कोई चमकदार धब्बा अथवा असल
में कोई फटता हुआ सितारा! लेकिन मनुष्य की आँखों और उनकी पहचानने की शक्ति की
भी सीमाएँ होती हैं, जिन्हें यांत्रिक, इलेक्ट्रॉनिक और अब फोटोनिक डिटेक्टर
आसानी से पार कर सकते हैं। इसलिए रैंजा ने एक डिटेक्टर प्रणाली स्थापित की
थी, जो किसी ऐसे यू.एफ.ओ. को भी खोज निकाले, जिसे सबसे अच्छी तरह प्रशिक्षित
मानव प्रेक्षक भी न देख सके।
बीप-बीप कर आनेवाले संकेत बता रहे थे कि आसमान में कोई अनजाना सा घुसपैठिया
है। रैंजा ने कमांड दी- 'सर्च डी डी।' (SEARCH DD) इस कमांड से कंप्यूटर
सक्रिय हो गया और आसमान में घुसपैठिए की तलाश करने लगा। जल्द ही जूलियो के
सामने परदे पर दिख रही आसमान में एक खिड़की खुल गई। उस चौरस खिड़की के भीतर
घुसपैठिए की तलाश कर ली गई थी। अब जूलियो ने 'एम' वाला बटन दबाया, यानी कि
घुसपैठिए को बड़ा करके दिखाओ। चौरस खिड़की ने फैलकर पूरे परदे को घेर लिया,
लेकिन उसके भीतर वैसी ही एक छोटी खिड़की और खुल गई।
जूलियो ने दोबारा बटन दबाया। उसके चेहरे पर जिज्ञासा के भाव साफ झलक रहे थे।
बटन दबाते ही दूसरी खिड़की भी पूरे परदे पर फैल गई। अब परदे पर एक-दूसरे की
ओर मुँह किए चार तीर नजर आने लगे। इनमें एक पूरब- पश्चिम वाले तीरों की जोड़ी
थी और दूसरी उत्तर-दक्षिणवाले तीरों का फर्क इतना था कि चारों तीरों का मुँह
एक-दूसरे की ओर था। इनके बीचोबीच कोई चीज रह-रहकर चमक रही थी। कंप्यूटर ने
अपनी पूरी ताकत के साथ यू.एफ.ओ. को खोज निकाला था। इसे चारों तीरों के बीच
कहीं होना चाहिए था।
मगर वह चीज अभी भी जूलियो की नजरों से ओझल थी। अब इसे बनावटी तरीकों से
चमकदार बनाना था, ताकि वह नजर आ सके। उसके की-बोर्ड पर एक ओर उपकरण लगा था।
उपकरण को चालू करते ही परदे पर एक रंगीन तसवीर उभर आई। जूलियो जानता था कि
तसवीर में रंग कैमरे के फोटोग्राफ की तरह असली नहीं हैं। तसवीर साफ भी नहीं
दिख रही थी। वे रंग असल में तीव्रता के सूचक थे। अगली कमांड में जूलियो के
सामने कुछ अंक प्रकट हुए, जिनसे वह चमक की गणना कर सकता था।
उस अनजानी वस्तु की स्थिति बृहस्पति के दूसरे और तीसरे चंद्रमा के बीच में
पता चली थी। क्या वह चीज बृहस्पति का ही एक और चंद्रमा था, जो बहुत छोटा होने
के कारण अंत तक देखा नहीं गया था या कोई क्षुद्र ग्रह था, जो बृहस्पति के
गुरुत्वाकर्षण में फँस गया? रैंजा का मन एक तीसरी संभावना पर भी विचार कर रहा
था कि शायद वह चीज कोई छोटा सा धूमकेतु है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं,
जिनमें सूरज की ओर गमन करते धूमकेतु बृहस्पति के गुरुत्वाकर्षण में फँस जाते
हैं या अपना रास्ता बदल लेते हैं।
जूलियो ने कंप्यूटर पर सभी ज्ञात धूमकेतुओं की जाँच-पड़ताल की, पर यह
यू.एफ.ओ. उनमें नहीं मिला। इसका क्या मतलब है कि जूलियो ने कोई नया धूमकेतु
खोज निकाला?
कॉमेट रैंजा या कॉमेट जूलियो? किसी भी नतीजे पर पहुंचने से पहले उसे किस चीज
की बारीकी से जाँच-पड़ताल करनी पड़ेगी, इसलिए उसने कंप्यूटर को निर्देश
दिया-'मॉनीटर डीडी।' अब टेलीस्कोप अगले 24 घंटे तक यू.एफ.ओ. के मार्ग पर
कड़ाई से नजर रखेगा और शायद इस तरह वह बृहस्पति के नए चंद्रमा, जिसे जूलियस
कहा जाए या एक छुद्र ग्रह एस्टीरॉयड रैंजा या कॉमेट जूलियो खोज निकाले?
रैंजा को नतीजों का बेसब्री से इंतजार होने लगा। इन तीनों में से कोई भी चीज
निकली तो उसका नाम खगोलशास्त्रियों के इतिहास में दर्ज हो जाएगा। फिलहाल उसके
दिमाग में कोई चौथी संभावना नहीं थी, जो कि वास्तव में सच होने जा रही थी,
हालाँकि वह इसे कपोल-कल्पना ही मानता।
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