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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...


एक गेस्टहाउस में उन्हें रहने का ठिकाना मिल गया और उन्होंने थोड़ा सा भोजन किया। खाना खाकर वे आजाद मैदान की ओर टहलने चले गए। मैदान में उन्होंने देखा कि लोगों की भीड़ एक पंडाल की ओर चली जा रही है। आदत से मजबूर प्रो. गाइतोंडे के कदम भी पंडाल की ओर बढ़ चले। गरम भाषण चल रहा था, हालाँकि लोगों का आना-जाना जारी था; लेकिन प्रो. गाइतोंडे का ध्यान श्रोताओं की भीड़ की तरफ नहीं था। वे तो मंत्रमुग्ध से मंच की ओर ही ताके जा रहे थे। मंच पर एक मेज और एक कुरसी थी, जो खाली पड़ी थीं। 'यह क्या? अध्यक्षीय पद खाली पड़ा है।' इस दृश्य ने उन्हें भीतर तक हिला दिया। फिर जैसे लोहे का टुकड़ा चुंबक की ओर खिंचा चला जाता है वैसे ही वे भी कुरसी की ओर तेजी से खिंचे चले गए। वक्ता भाषण देते-देते बीच में ही रुक गया, जैसे उसे साँप सूंघ गया हो। लेकिन श्रोतागण चीखने-चिल्लाने लगे-

"कुरसी खाली करो!"
"इस भाषण का कोई चेयरमैन नहीं।"
"मंच से उतरिए, जनाब!"
'यह कुरसी केवल नाग की है, क्या तुम जानते नहीं?"

क्या बेवकूफी है? क्या किसी ने कभी ऐसा आम भाषण सुना है जिसमें कोई अध्यक्ष न हो? प्रो. गाइतोंडे ने माइक सँभाला और अपने विचार प्रकट करने लगे, "देवियों और सज्जनो, चेयरमैन के बगैर भाषण वैसे ही है जैसे डेनमार्क के राजकुमार के बगैर शेक्सपीयर का 'हेमलेट'। मैं आपको बताना चाहता हूँ कि"" लेकिन दर्शक सुनने के मूड में बिलकुल नहीं थे।

"हमें कुछ मत बताओ। अध्यक्ष की टीका-टिप्पणी, धन्यवाद ज्ञापन और लंबे-लंबे परिचय सुनते-सुनते हम तंग आ चुके हैं !" वे चिल्लाए।
"हम केवल वक्ता को सुनना चाहते हैं।"
'हम पुरानी परंपरा को बहुत पहले ही छोड़ चुके हैं।"
"मंच खाली रखिए, प्लीज!"

लेकिन गंगाधर पंत को 999 सभाओं में बोलने का अनुभव था और वे पुणे के गरममिजाज श्रोताओं को भी सफलतापूर्वक झेल चुके थे। उन्होंने बोलना जारी रखा।

जल्द ही उन पर टमाटर, अंडे और अन्य सड़ी-गली चीजें बरसने लगीं; पर वे बड़ी बहादुरी के साथ इस गड़बड़ी को ठीक करने में लगे रहे। अंत में श्रोताओं की भीड़ मंच पर चढ़ आई और उन्हें जबरन मंच से नीचे उतार दिया। और फिर भीड़ के बीच में गंगाधर पंत कहीं भी नजर नहीं आ रहे थे। मुझे केवल यही सब राजेंद्र को बताना है। मैं केवल यही जानता हूँ कि मैं सुबह के वक्त आजाद मैदान में पाया गया था। लेकिन तब मैं वापस उस दुनिया में था, जिससे मैं परिचित था। तब फिर मैंने वे दो दिन कहाँ बिताए, जब मैं वहाँ से लापता था?"

इस कहानी से राजेंद्र भी भौचक्का रह गया। उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सूझा।
'प्रोफेसर, ट्रक से टकराने से ठीक पहले आप क्या कर रहे थे?" राजेंद्र ने पूछा।
"मैं महाविपत्ति के सिद्धांत पर विचार कर रहा था और सोच रहा था कि इतिहास पर इसका क्या असर होगा।"
'ठीक मैंने भी ऐसा ही सोचा था।" राजेंद्र ने मुसकराकर कहा।

"इस तरह संतुष्ट भाव से मत मुसकराओ। अगर तुम सोच रहे हो कि केवल मेरा दिमाग चल गया था और मेरी कल्पना बेकाबू होकर दौड़ लगा रही थी तो देखो।"

इतना कहकर प्रो. गाइतोंडे ने सबूत पेश किया-पुस्तक से फाड़ा गया पन्ना।

उस छपे हुए पृष्ठ को राजेंद्र ने पढ़ा और पढ़ते-पढ़ते उसके चेहरे का रंग बदलने लगा। चेहरे से मुसकराहट गायब हो गई। उसकी जगह संजीदगी छा गई।

अब गंगाधर पंत की बात वजनदार हो गई थी। "लाइब्रेरी से निकलते वक्त मैंने बखर अपनी जेब में ही दूंस लिया था। खाने का बिल चुकाते वक्त मुझे इस गलती का अहसास हुआ। मेरा इसे अगली सुबह लौटा देने का इरादा था; पर ऐसा लगता है कि आजाद मैदान में संभ्रांत जनों की भीड़ में धक्का-मुक्की के दौरान पुस्तक गायब हो गई, केवल यही फटा पृष्ठ बच गया। खुशकिस्मती से इसी पन्ने पर सबसे मुख्य सुराग है।"

राजेंद्र ने पन्ना दोबारा पढ़ा। पन्ने पर लिखा था कि किस तरह विश्वासराव गोली से बाल-बाल बच गए और किस तरह मराठा सेना ने इस घटना का अच्छा शकुन मानते हुए लहर का रुख अपने पक्ष में मोड़ दिया।

"और अब इसे देखो।" गंगाधर पंत ने भाऊ साहब बखर की अपनी प्रति निकाली, जिसमें काम का पृष्ठ पहले से ही खुला हुआ था; उस पर कुछ इस तरह लिखा था-

".."और फिर विश्वासराव अपने घोड़े को भीड़-भाड़वाली जगह पर लाए, जहाँ आभिजात्य वर्ग के सैनिक लड़ रहे थे, और उन्होंने सैनिकों पर धावा बोल दिया, लेकिन उनके काम से ईश्वर नाराज हो गया, एक गोली आकर उन्हें लगी।"

"प्रो. गाइतोंडे, आपने मुझे विचारों की अच्छी-खासी खुराक दे दी है। इस सबूत को देखने से पहले मैं आपके अनुभव को कपोल-कल्पना ही समझ रहा था।

लेकिन अब मुझे लगने लगा कि तथ्य कल्पना से भी ज्यादा विचित्र हो सकते हैं।" "तथ्य! तथ्य क्या है ? मैं जानने के लिए मरा जा रहा हूँ।" प्रो. गाइतोंडे ने कहा।

राजेंद्र ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया और कमरे में चहलकदमी शुरू कर दी। वह अत्यंत मानसिक तनाव में लग रहे थे। आखिरकार वे मुड़े और बोले, "प्रो. गाइतोंडे, मैं आज ज्ञात दो वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर आपके अनुभव का सिर-पैर तलाशने की कोशिश करूँगा। अब यह सच्चाइयों के विषय में आपको संतुष्ट कर पाया या नहीं, आप ही फैसला कर सकते हैं; क्योंकि आप सचमुच में एक अद्भुत अनुभव से गुजरे हैं या यों कहें कि आपने महाविपत्ति का अनुभव किया है तो ज्यादा ठीक होगा।"

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