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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...


जल्द ही उनकी लिखी पुस्तकों के पाँच खंड उनकी मेज पर आ गए। उन्होंने पुस्तकें पढ़नी शुरू की। पहले खंड में सम्राट अशोक के काल तक का इतिहास था, दूसरे खंड में समुद्रगुप्त तक, तीसरे में मुहम्मद गोरी तक तथा चौथे खंड में औरंगजेब की मौत का इतिहास था। इस काल तक का इतिहास तो वही था जिसे वह जानते थे। हाँ, पाँचवें खंड में दर्ज इतिहास कुछ अलग ही था। पाँचवें खंड को दोनों छोरों से पढ़ते हुए गंगाधर पंत जब बीच में पहुँचे तो उन्हें वह दौर मिल ही गया जहाँ से इतिहास ने बिलकुल अलग मोड़ ले लिया था। पुस्तक के उस पृष्ठ पर पानीपत की लड़ाई का जिक्र था और यह लिखा गया था कि उस लड़ाई को मराठों ने बड़े आराम से जीत लिया था। अब्दाली को रौंद डाला गया था। वह जान बचाकर भागा तो विजयी मराठा सेना ने सदाशिव भाऊ और उनके नौजवान भतीजे विश्वासराव के नेतृत्व में काबुल तक उसका पीछा किया।

पुस्तक में लड़ाई के जमीनी दाँवपेंच के स्तर तक का वर्णन नहीं था। बल्कि इस लड़ाई के परिणाम का भारत में सत्ता-संघर्ष पर असर की विस्तार से चर्चा की गई थी। गंगाधर पंत बड़ी उत्सुकता से पढ़ रहे थे। लेखन शैली निस्संदेह उन्हीं की थी। पर वे उक्त वर्णन को पहली बार पढ़ रहे थे। उस लड़ाई में मिली जीत से मराठों के केवल हौसले ही बुलंद नहीं हुए, बल्कि उत्तर भारत में उनकी सत्ता भी स्थापित हो गई। बाहर खड़ी सारे घटनाक्रम को देख रही ईस्ट इंडिया कंपनी को भी लड़ाई के नतीजे समझ में आ गए और उसने अपनी विस्तार योजनाओं को अस्थायी तौर पर ताक पर रख दिया।

लड़ाई के बाद पेशवाओं के बीच भाऊ साहब और विश्वासराव का रुतबा काफी बढ़ गया। सन् 1780 में विश्वासराव ने पिता की सत्ता विरासत में हासिल की। गड़बड़ी फैलानेवाले दादा साहब को नेपथ्य में फेंक दिया गया, जहाँ से उन्होंने आखिरकार सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया।

ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए निराशाजनक बात यह थी कि मराठा शासक विश्वासराव के आगे उनकी एक नहीं चलती थी। विश्वासराव एवं उनके भाई माधवराव ने वीरता और राजनीतिक सूझ-बूझ को मिलाकर सुनियोजित तरीके से समूचे भारत पर अपना सिक्का जमा लिया। कंपनी का प्रभाव अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों-पुर्तगालियों व फ्रांसीसियों की तरह मुंबई, कोलकाता और चेन्नई के निकटवर्ती इलाकों तक ही सिमटकर रह गया।

राजनीतिक कारणों से पेशवाओं ने दिल्ली में मुगलों के कठपुतली शासन को जारी रखा। उन्नीसवीं सदी में पुणे में बैठे असली शासकों को यूरोप में तकनीकी युग के उदय होने के महत्त्व का भान हो गया था। उन्होंने भी विज्ञान व तकनीकी विकास के लिए अपने केंद्र स्थापित किए। यहाँ पर ईस्ट इंडिया कंपनी को अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर नजर आया। उन्होंने भी सहायता और विशेषज्ञता उपलब्ध कराने का प्रस्ताव रखा। उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया; लेकिन केवल इनके केंद्रों को आत्मनिर्भर बनाने तक।

बीसवीं सदी में पश्चिम से प्रेरित और भी ज्यादा परिवर्तन आए। भारत ने भी लोकतंत्र को अपना लिया था। तब तक पेशवा भी अपना सामर्थ्य खो बैठे थे और उनकी जगह लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए निकायों ने ले ली थी। दिल्ली की सल्तनत इस संक्रमण के दौर में बच गई थी। इसका बड़ा कारण यह था कि सल्तनत का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। दिल्ली के शहंशाह की हैसियत रबड़ की मुहर से ज्यादा नहीं रह गई थी, जो केंद्रीय संसद् द्वारा भेजी गई अनुशंसाओं पर लगाई जाती थी।

जैसे-जैसे गंगाधर पंत पढ़ते गए वैसे-वैसे वे उस भारत की सराहना करने लगे जिसे उन्होंने देखा था। यह एक ऐसा देश था जो कभी भी श्वेत लोगों का गुलाम नहीं रहा, बल्कि उसने अपने पैरों पर खड़ा होना सीखा और जानता था कि स्वाभिमान क्या चीज है। अपनी मजबूत स्थिति और विशुद्ध व्यावसायिक कारणों से भारत ने अंग्रेजों को मुंबई में इस उपमहाद्वीप के लिए इकलौती चौकी (आउटपोस्ट) बनाने की अनुमति दे रखी थी। सन् 1908 में की गई एक संधि के अनुसार यह पट्टा सन् 2001 तक चलना था।

गंगाधर पंत का माथा ठनक गया। कौन सा देश असली था—जिसे वह जानता था वह या वह, जिसे वह चारों ओर देख रहे थे।

पर साथ ही उन्हें लगा कि उनकी तमाम जाँच-पड़ताल अधूरी थी। मराठों ने लड़ाई कैसे जीती? जवाब जानने के लिए जरूरी था कि वे लड़ाई के विवरण को ही देखें।

उन्होंने फिर अपने सामने पड़ी किताबों और पत्रिकाओं को खंगालना शुरू किया। अंत में पुस्तकों के बीच उन्हें एक ऐसी पुस्तक मिली, जिसने उन्हें कुछ सुराग दिया। यह किताब थी-भाउसाहेबबांची बखर (बखार)।

हालाँकि ऐतिहासिक सबूतों के लिए वे कभी-कभार ही बखारों पर भरोसा करते थे, पर उन्हें पढ़ने में उन्हें आनंद आता था। कभी-कभार चित्रों-चार्टी, लेकिन मनमाने तरीके से लिखे गए विवरणों तले दबे सच के अंकुर भी मिल जाते। ऐसा ही सच का एक अंकुर उन्हें मात्र तीन पंक्तियों के विवरण में मिला कि विश्वासराव मौत के कितने करीब पहुंच गए थे-

और फिर विश्वासराव को भीड़ के करीब ले गए। वहाँ पर अभिजात वर्ग के सैनिक लड़ रहे थे। विश्वासराव ने उन पर धावा बोल दिया। उस दिन भगवान् उन पर दयालु था। एक गोली सनसनाती हुई कान को छूकर निकल गई, तिल बराबर भी गोली इधर-उधर होती तो उनकी जान जा सकती थी।"

कब शाम के आठ बज गए, पता ही नहीं चला। लाइब्रेरियन ने बड़ी शराफत से प्रोफेसर को याद दिलाया कि लाइब्रेरी बंद की जा रही है। तभी जाकर उनका ध्यान भंग हुआ। उन्होंने चारों ओर नजर दौड़ाई। बड़े से वाचनालय में केवल वही रह गए थे।

ओह! माफी चाहता हूँ श्रीमान, पर आपसे प्रार्थना है कि इन पुस्तकों को यहीं रखी रहने दें, ताकि कल सुबह मैं दोबारा इन्हें पढ़ सकूँ। सुबह लाइब्रेरी कितने बजे खुलती है ?"

"सुबह आठ बजे श्रीमान !" लाइब्रेरियन ने मुसकराकर बताया। धुन का पक्का अन्वेषक उसके सामने खड़ा था।

मेज छोड़ने से पहले प्रोफेसर ने कुछ नोट अपनी दाईं जेब में डाल लिये अनजाने में ही उन्होंने बखर को अपनी बाईं जेब में ठूस लिया।

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