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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...

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साहसिक कार्य


पुणे-मुंबई मार्ग पर जीजा माता एक्सप्रेस सरपट दौड़ी जा रही थी। उसकी रफ्तार डेक्कन क्वीन से भी तेज थी। पुणे के बाहरी इलाकों में कोई औद्योगिक क्षेत्र नहीं था। चालीस मिनट के भीतर ही पहला स्टॉप लोनावाला आ गया। उसके बाद पड़नेवाला घाट भी उसके लिए जाना-पहचाना था। करजत में अल्प विराम के बाद ट्रेन और भी तेजी से दौड़ने लगी। और कल्याण स्टेशन भी दहाड़ते हुए पार कर गई।

रेलगाड़ी में सफर कर रहे प्रो. गाइतोंडे का दिमाग रेलगाड़ी से भी तेज चल रहा था। मुंबई में एक कार्ययोजना को अंजाम देने का खाका उनके मन में बन चुका था। एक इतिहासकार के नाते वे महसूस करते थे कि इस पर उन्हें पहले ही सोचना चाहिए था। योजना के अनुसार उन्हें किसी बड़े पुस्तकालय में जाकर इतिहास की किताबों को खंगालना था। वही सबसे पक्का तरीका था, यह पता लगाने का कि किन रास्तों से गुजरकर समाज आज के हालात में पहुँचा है। अंत में उनकी योजना थी पुणे लौटकर राजेंद्र देशपांडे के साथ विस्तार से बातचीत करने की, जो निश्चित तौर पर घटनाओं को समझने में उनकी मदद कर सकता था। यानी वे यह मानकर चल रहे थे कि इस दुनिया में राजेंद्र देशपांडे नाम का कोई व्यक्ति है ! एक लंबी सुरंग के पार रेलगाड़ी रुक गई। यह 'सरहद' नाम का कोई स्टेशन था। एक वरदीधारी एंग्लो-इंडियन रेलगाड़ी में यात्रियों के परमिट जाँच रहा था।

"यहाँ से ब्रिटिश राज शुरू होता है। मुझे लगता है कि आप पहली बार जा रहे हैं ?" साथ बैठे खान साहब ने पूछा।

"हाँ।" उनका जवाब सचमुच में ठीक था। गंगाधर पंत इससे पहले कभी मुंबई नहीं आए थे। उन्होंने भी खान साहब से सवाल किया, "और खान साहब, आप पेशावर कैसे जाएँगे?"

"यह रेलगाड़ी विक्टोरिया टर्मिनस तक जाती है। मैं आज रात ही सेंट्रल (मुंबई) से फ्रंटियर मेल पकड़ेंगा।"

"यह कहाँ तक जाती है और किस रास्ते से जाती है?"

"मुंबई से दिल्ली, फिर लाहौर और अंत में पेशावर। बहुत लंबा सफर है। पेशावर तक मैं परसों पहुँचूँगा।"

उसके बाद खान साहब देर तक अपने कारोबार के बारे में बताते रहे। गंगाधर पंत को भी उनकी बातें सुनने में आनंद आ रहा था। इस तरह से उन्हें भारत के जीवन के बारे में जानकारी मिल रही थी, जो बिलकुल अलग था। अब रेलगाड़ी उपनगरीय रेल यातायात के बीच से गुजर रही थी। रेलगाड़ी के नीले डिब्बों के पीछे ये शब्द लिखे थे—'जी बी एम आर'।

"ग्रेटर बॉम्बे मेट्रोपोलिटन रेलवे।" खान साहब ने बताया, "देखिए, प्रत्येक डिब्बे पर छोटा सा यूनियन जैक बना हुआ है। यह हमें याद दिलाता है कि हम ब्रिटिश राज में हैं।"

दादर के बाद रेलगाड़ी की गति धीमी पड़ने लगी। आखिरी स्टेशन वीटी पर जाकर रेलगाड़ी रुक गई। स्टेशन असाधारण रूप से साफ-सुथरा दिख रहा था। स्टेशन पर काम करनेवाले कर्मचारियों में ज्यादातर एंग्लो-इंडियन और पारसी लोग थे। कुछ एक ब्रिटिश अफसर भी थे।

स्टेशन से बाहर निकलने पर गंगाधर पंत ने स्वयं को एक शानदार इमारत के सामने पाया। इमारत पर लिखे अक्षर उन लोगों को उस इमारत के बारे में बताते थे जो मुंबई की इस पहचान से अपरिचित थे-

ईस्ट इंडियन हाउस
हेडक्वार्टर्स ऑफ दि
ईस्ट इंडिया कंपनी।

इस तरह के सदमों के अभ्यस्त हो चुके प्रो. गाइतोंडे को इसकी जरा भी उम्मीद नहीं था कि सन् 1857 की घटनाओं के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी तो अपना बोरिया बिस्तर बाँधकर जा चुकी थी-कम-से-कम इतिहास की पुस्तकों में तो यही लिखा है। लेकिन फिर भी कंपनी यही थी। न केवल थी बल्कि फल-फूल भी रही थी। यानी इतिहास ने दूसरा ही रास्ता अपना लिया था, वह भी शायद 1857 से पहले ऐसा कब और कैसे हुआ? यही तो उन्हें पता लगाना था। जिस सड़क पर वे चल रहे थे उसे हॉर्न बी रोड नाम से पुकारा जाता था। उस सड़क पर बनी दुकानें और कार्यालयों की इमारतें भी बिलकुल अलग दिख रही थीं। ओ.सी.एस. बिल्डिंग की मीनार विक्टोरियाई इमारतों से ऊँची उठी थी। हैंडलूम हाउस की इमारत भी नहीं थी। उसके बजाय वुट्स और वुलवर्थ डिपार्टमेंट स्टोर थे, लॉएड्स बर्लेज और अन्य ब्रिटिश बैंकों के शानदार कार्यालय थे, ठीक वैसे ही जैसे इंग्लैंड में किसी शहर के रईसाना इलाके में होते हैं।

होम स्ट्रीट के साथ वे दाईं ओर घूम गए तथा फोर्ब्स बिल्डिंग में प्रवेश कर गए।

वहाँ बैठे अंग्रेज रिसेप्शनिस्ट से उन्होंने कहा, "मैं विनय गाइलना से मिलना चाहता हूँ।"

रिसेप्शनिस्ट ने टेलीफोन की सूची में ढूँढा, स्टाफ लिस्ट खंगाली और फर्म की तमाम शाखाओं में काम करनेवाले कर्मचारियों की डायरेक्टरी भी छान मारी। अंत में सिर हिलाते हुए उसने कहा, "मुझे खेद है कि यह नाम यहाँ या हमारी किसी शाखा में नहीं मिला। क्या आपको पूरा विश्वास है कि ये हमारे यहाँ ही काम करते हैं?"

यह भी एक आघात था, हालाँकि पूरी तरह अप्रत्याशित नहीं था। अगर वे इस दुनिया में स्वयं मृत होते तो इस बात की क्या गारंटी थी कि उनका पुत्र जीवित ही होगा। सचमुच, हो सकता है कि वह पैदा ही न हुआ हो!

रिसेप्शनिस्ट को सभ्यता के साथ धन्यवाद देते हुए वे बाहर आ गए। यह उनकी चारित्रिक विशेषता थी। उन्हें रुकने या ठहरने की चिंता नहीं होती थी। इस समय उनकी मुख्य चिंता थी कि किसी तरह एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय का रास्ता पकड़ा जाए और इतिहास की इस पहेली को सुलझाया जाए। रेस्टोरेंट में जल्दी-जल्दी दोपहर का भोजन कर उन्होंने टाउन हॉल का रुख किया। उन्हें यह देखकर बड़ी राहत महसूस हुई कि टाउन हॉल अपनी जगह मौजूद था और उसके भीतर पुस्तकालय भी। वाचनालय में जाकर उन्होंने कर्मचारी को इतिहास की पुस्तकों की सूची थमा दी, जिसमें उनकी लिखी पुस्तकें भी शामिल थीं।

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