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रोमांचक विज्ञान कथाएँ

जयंत विष्णु नारलीकर

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3321
आईएसबीएन :81-88140-65-1

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सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं विज्ञान लेखक श्री जयंत विष्णु नारलीकर द्वारा लिखित ये विज्ञान कथाएँ रहस्य, रोमांच एवं अदभुत कल्पनाशीलता से भरी हुई है...


चार बजे शाम तक करीब 80 प्रतिशत मुंबई आग की भेंट चढ़ चुकी थी या जल रही थी और किस्मत से बच गया असहाय जनसमूह बांद्रा से आगे उत्तर या पूरब की ओर बढ़ने के लिए हाथ-पाँव मार रहा था। लेकिन राजेश इस भेड़चाल में शामिल नहीं हुआ। उसमें न तो इच्छाशक्ति थी और न ही उत्साह कि वह भी भाग-दौड़ करे।

उसने चुपचाप मच्छीमार नगर का रास्ता पकड़ा, जो उस वक्त निर्जन लग रहा था। चारों ओर काफी गरम और उमस भरा माहौल था, लेकिन खाड़ी से आती ठंडी हवा उसे काफी राहत दे रही थी। पहली बार उसने मछुआरों की बस्ती का शुक्रिया अदा किया इसलिए कि उसके कारण ही खाड़ी का वह भाग सुरक्षित रह पाया था। उसने कितनी बार इच्छा की कि काश, वह भी समुद्र में मछुआरों की किसी नौका में सवार होता!

उसे महसूस हुआ जैसे उस पर बेहोशी छाती जा रही है। पर यह किसी भयानक सपने की शुरुआत नहीं थी बल्कि हकीकत थी। इससे बचने का कोई रास्ता न था। मेढक की तरह वह भी इस महान् शहर के साथ मर जानेवाला था। तभी ठंडी हवा के तेज झोंके से उसकी बेहोशी दूर हो गई। धरती पर आग और उन्माद के मुकाबले यह स्वर्ग हो सकता था; पर तभी उसे अपने ऊपर झाँकता एक जाना-पहचाना चेहरा दिखाई दिया।

"हमने तुम्हें समय पर ढूँढ़ लिया!" धोंदिबा ने कहा, "तुम काफी दूर जा चुके थे, खुशकिस्मत रहे थे कि मैं कुछ भूले-बिसरे दस्तावेज लेने वापस आया था-मुंबई के बारे में अपने पुराने रिकॉर्ड लेने।"

यह दिन का कौन सा समय था? मुंबई का क्या हुआ? राजेश के मन में घुमड़ रहे सवालों के जवाब तुरंत ही मिल गए। सूरज अपनी पूरी गरिमा के साथ डूब रहा था। दक्षिण व पूर्व दिशा में देखा तो मुंबई आग की लपटों में घिरी नजर आई। इस मरते हुए शहर की आखिरी शाम का सूरज डूब रहा था।

जैसे उसके मन में उठ रहे विचारों को पढ़ते हुए धोंदिबा ने उत्तर दिया, 'मुंबई को अभी से खारिज मत करो। फिलहाल हम वापस मच्छीमार नगर जा रहे हैं, हमारी प्राचीन बस्ती। लेकिन इसकी राख से नवनिर्माण करते हुए हमें इतिहास से सबक सीखना होगा और पुरानी गलतियों से बचना होगा।"

भगवान् करे ऐसा ही हो!" राजेश ने मानो अपने आपसे कहा। निष्ठावान् मुंबईवालों की तरह उसे भी तमाम समस्याओं के बावजूद अपने शहर से प्यार था। धोंदिबा की तरह उसने भी एक आशावादी सपना सँजोया था। एक तरह से शहर को पुनर्जन्म का अवसर मिला था। नष्ट होने से वह अपनी तमाम समस्याओं से छुटकारा पा गया था।

राजेश यह भी जानता था कि वह दुःस्वप्न दोबारा कभी नहीं आएगा।

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