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आपका बंटी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3119
आईएसबीएन :9788183618892

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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

दस


ममी की शादी हो गई।

यों शादी जैसा कुछ भी नहीं हुआ था। न बाजा-गाजा, न हाथी-घोड़ा, न आतिशबाज़ी। पर जो कुछ भी हुआ, बंटी ने अपनी आँखों से देखा है। शादी के बीच में रहकर देखा है। फिर भी जाने क्यों उस दिन कुछ भी महसूस नहीं हुआ था।

लेकिन आज, सर्दी की साँझ के इस धुंधलके में, खुली छत पर अकेले लेटे जैसे फिर ममी की शादी हो रही है। बाहर नहीं, बंटी के अपने भीतर हो रही है ...मन की परतों पर। और इस बार बंटी केवल देख ही नहीं रहा, महसूस भी कर रहा है।

हलकी-सी सजावट ओढ़े क्लब का लॉन। परिचित-अपरिचित चेहरों की भीड़। हँसी-मज़ाक, खाना-पीना। बधाई हो...मुबारक हो...अरे बंटी, मिठाई खाओ बेटे, अपनी ममी की शादी की मिठाई खाओ...कितने बच्चे...जाने कितनी आवाजें थीं, कितनी बातें थीं। आज तो सब मिल-जुलकर केवल एक शोर-भर रह गई हैं। उस दिन सारे लॉन के पेड़-पौधों पर लाल-पीली बिजली के फूल खिले थे। न जाने कितने फूल, जिनसे रंगीन रोशनी झर रही थी। इस समय भी वह आँखें बंद करे या खोले, चारों ओर फैले हुए वे फूल झिलमिलाते नज़र आ रहे हैं।

और फूल ही क्यों, या कि शादी की वह साँझ ही क्यों ? शादी के पहले की भी तो बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जो पहले केवल बाहर ही हुई थीं, पर इस समय एक साथ मन में डूबती-उतराती आ रही हैं। और कितना साफ़ है वह सब, जैसे अभी-अभी हो रहा है। लगता ही नहीं कि वह सब तो हो चुका। लग रहा है, जैसे तब हुआ ही नहीं था, बस अभी हो रहा है, बिलकुल अभी।

बंटी अपनी टेबुल पर बैठा होमवर्क कर रहा है और ममी कॉलेज की फ़ाइलें देख रही हैं। तभी गोद में गुड़िया को लटकाए पीछेवाले दरवाजे से टीटू की अम्मा घुसी।

ममी थोड़ा चौंकी, “अरे आप ! कहिए कैसे आना हुआ ? बैठिए !'

"क्या बताऊँ भैनजी, पड़ोस में रहकर भी कभी आना नहीं होता। दोपहर को घंटा-आध-घंटा निकल भी जाए, पर सवेरे-शाम को तो पलक झपकने तक को फुरसत नहीं मिलती।" फिर उसकी ओर देखकर बोली, “अब आपके बंटी को देखो ! कैसा चुपचाप पढ़ रहा है। एक हमारे बच्चे हैं, चौबीस घंटे घर में महाभारत मचाकर रखते हैं।"

“टीट् नहीं आया, अम्मा ?" इस घर में आकर अम्मा कैसा मीठा-मीठा बोल रही हैं। तभी तो पूछने की हिम्मत हुई।

"टीटू कहाँ आएगा, वहाँ कैरम जो जमी हुई है।"

"बंटी, जाओ तो बेटे, फूफी से कहो कि चाय बनाए।"

“नहीं भेनजी ! मैं तो पीकर आई हूँ। और यों सच पूछो तो आज तो मिठाई खाने आई हूँ। मुझे तो कल रात को ही इन्होंने आकर ख़ुशख़बरी सुनाई। बोले, तुम जाकर बधाई तो दे आओ। यों आना-जाना चाहे बच्चों तक ही है फिर भी पड़ोसी तो हैं ही !" और अम्मा के चेहरे पर एक अजीब-सी मुसकान फैल गई।

ममी का चेहरा इतना लाल क्यों हो गया ?

“पहले जब, डॉक्टर साहब को एक-दो बार देखा तो सोचा कोई बीमार होगा ! पर जब बंटी ने बताया कि कोई बीमार नहीं है तो सोचा भई आते होंगे !"

ममी चुप ! बस, केवल उनकी एक उड़ती-सी नज़र बंटी ने अपने चेहरे पर महसूस की।

“मेरी तो भैनजी, आप जानो दूसरों के घरों में ताक-झाँक करने की आदत ही नहीं है। अब पड़ोस में रहते हैं तो दीखता तो सभी कुछ है, पर इधर-उधर कुछ पूछताछ करूँ, कुछ कहूँ-सुनूँ ऐसा मेरा स्वभाव ही नहीं। फिर आप पढ़ी-लिखी ठहरी, प्रिंसिपल ठहरी, सो तरह-तरह के लोग आएँगे ही आपके पास।" ममी तो जैसे बुत बन गई हैं।

"बंटी तो बहुत खुश होगा ! बिचारा अकेला डाँव-डाँव डोला करे था। मुझे तो सच बड़ा तरस आता था। अब पापा भी मिल जाएँगे और भाई-बहन भी..."

अनायास ही उसकी नज़रें ममी से जा टकराई थीं। पता नहीं क्या था उन नज़रों में कि वहाँ और बैठा नहीं रह सका।

रात में ममी उसे समझा रहीं थीं, “तुझे अच्छा लगेगा बंटी, वहाँ बहुत अच्छा लगेगा बेटे..."

ममी ने जितनी बातें कहीं, बंटी सब सुनता गया। बिना एक भी प्रश्न किए, बिना ज़रा भी विरोध किए।

बस पापा का चेहरा बराबर आँखों के सामने कौंधता रहा था।

बंटी अपने पलंग पर पड़ा है, गरदन तक रजाई ओढ़े। कमरे में अँधेरा है। सिर्फ़ ममी टेबुल-लैंप जलाकर अपनी मेज़ पर कुछ लिख रही हैं। ममी हमेशा किसी न किसी काम में लगी ही रहती हैं आजकल। बंटी को खाने के लिए कहती हैं तो खा लेता है। दूध पीने के लिए कहती हैं तो दूध पी लेता है। जब पढ़ने के लिए कहती हैं तो पढ़ने बैठ जाता है।

आधे अँधेरे आधे उजाले में बैठी कैसी लग रही हैं ममी ? एकाएक मन में कौंधा-बंगाल की जादूगरनी ! फूफी ने ही सुनाई थी कहानी या शायद पढ़ी थी। उसके आधे शरीर से अँधेरा फूटता था और आधे शरीर से उजाला।

जाने कैसा भय मन में समाने लगा। जिस दिन से डॉक्टर साहब वह जादूवाली शीशी इस घर में रख गए हैं, बंटी के मन में एक अजीब-सा डर कुलबुलाता रहता है। एक बार तो हिम्मत करके उसने उस शीशी को ढूँढ़ा भी था, सारी दराजें, सारी अलमारी, पर नहीं मिली। जादू की चीजें जादू के ढंग से ही छिपाई जाती हैं शायद।

एकाएक ममी ने टेबुल पर झुकी हुई गर्दन ऊपर उठाई और घूमकर बोलीं, "बंटी!"

बंटी ने खट से आँखें बंद कर लीं। वही परिचित स्वर, अपनी ममी का स्वर। तो मन का डर धीरे-धीरे बहने लगा।

“सो गया बेटा ?" ममी पास आईं और एक बार रजाई को ठीक से उसके चारों ओर लपेट दिया। फिर उसी के पलंग पर बैठकर धीरे-धीरे उसका माथा, उसके गाल सहलाती रहीं।

बंटी को लगा, जैसे बिना बोले ही ममी फिर आश्वस्त कर रही हैं-तुझे अच्छा लगेगा बंटी...वहाँ तुझे अच्छा ही लगेगा।

ममी के इस स्पर्श से ही बंटी के मन के भीतर ही भीतर तेजी से कुछ पिघलने लगा। एक बार मन हुआ, रजाई उतारकर फेंक दे और ममी से लिपट जाए। पता नहीं ममी को आश्वस्त करने के लिए या खुद आश्वस्त होने के लिए।

पर उमड़ते आवेग को उसने होंठ भींचकर रोक लिया।

"बहूजी !"

फूफी की आवाज़ कैसी बदली हुई है ! एक बार मन हुआ कि आँख खोलकर देखे कि यह फूफी ही बोल रही है।

“क्या बात हो गई फूफी ?” ममी कितना मीठा बोल रही हैं। बहुत दिनों से उसने ममी की ऐसी मीठी आवाज़ ही नहीं सुनी।

"इतने साल आपकी नौकरी कर ली बहूजी, अब भगवान की नौकरी करेंगे, और क्या ?"

"कुछ बात भी बताओगी ?"

फूफी चुप ! रो तो नहीं रही ? पर किसी तरह की भी तो कोई आवाज़ नहीं आ रही।

"तुम भी मुझसे नाराज़ हो फूफी ?" ममी की आवाज़ जैसे पिघलकर थरथरा रही है।

“अरे हम नौकर आदमी, हम कइसे नाराज़ होंगे। पर भगवान ने जीभ दी है तो बोलेंगे ज़रूर। आप सौ जूता मारेंगी तो हम तनिकों चिंता नहीं करेंगे, पर बोले बिना हमसे रहा नहीं जाएगा।"

बंटी का मन फिर जाने कैसा-कैसा होने लगा।

“अब आप जो कर रही हैं बालक-बच्चा को लेकर, सो आपको शोभा देता है ? बड़े आदमियों की बड़ी बात, मुँह पर कौन बोलेगा, और काहे बोलेगा ?" पर फूफी तो मुँह पर ही बोलेगी ?"

अब फूफी भी शादीवाली बात ही कहेगी। ममी का शादी करना बुरी बात है?

“आप तो जानती हैं, साहब को लेकर हमारे मन में आज भी कइसा गुस्सा है। अब आप भी वही सब करेंगी...हम से नहीं देखा जाएगा यह सब।"

ममी ज़रूर बैठी-बैठी होंठ काट रही होंगी। ममी से जब जवाब देते नहीं बनता है तो बस यों ही होंठ काटती हैं।

“जवानी यों ही अंधी होती है बहूजी, फिर बुढ़ापे में उठी हुई जवानी। महासत्यानाशी ! साहब ने जो किया तो आपकी मट्टी-पलीद हुई और अब आप जो कर रही हैं, इस बच्चे की मट्टी-पलीद होगी। चेहरा देखा है बच्चे का ? कैसा निकल आया है, जैसे रात-दिन घुलता रहता हो भीतर ही भीतर।"

“फूफी !" एक सख्त-सी आवाज़ कमरे को चीरती हुई इस कोने से उस कोने तक गूंज गई। एक क्षण को बंटी भीतर ही भीतर सहम गया।

"देखो फूफी, मैं तुम्हारी बहुत इज्जत करती हूँ। अपनी माँ से भी ज़्यादा ...पर माँ को भी मैंने कभी अपनी बातों के बीच में नहीं बोलने दिया...मुझे याद नहीं वे कभी बोली हों।" एक क्षण को ममी रुकीं। “यह अधिकार तो मैं किसी को दे ही नहीं सकती।"

“हमने कहा न बहूजी, आप हमें हरिद्वार भिजवा दो...बस !''

"तुम जिस दिन चाहो, मैं इंतज़ाम करवा दूंगी। तुम यहाँ से जो कुछ भी चाहो, ले जा सकती हो, इस घर पर तुम्हारा भी उतना ही अधिकार है जितना मेरा। और तो क्या कहूँ !'' ममी के स्वर में अजीब-सी नरमाई आ गई। नरमाई नहीं, जैसे ममी थक गई हों।

तो क्या फूफी चली जाएगी ? बिना फफी के कैसे रहेगा वह ? रह सकता है कभी ! ममी ने उसे क्यों नहीं समझाया कि 'फूफी, तुम्हें वहाँ भी अच्छा लगेगा, वहाँ भी बहुत अच्छा लगेगा।"

कल वह समझाएगा फूफी को। फूफी ममी की बात चाहे न माने, उसकी बात नहीं टाल सकती। फूफी भी तो उसके बिना कैसे रहेगी ? और अगर फूफी न रुकी तो ?

खट ! ममी ने शायद उठकर टेबुल-लैंप बंद कर दिया। बंद आँखों ने भी महसूस किया कि कमरे का अँधेरा खूब गाढ़ा हो गया है।

बंटी ने आँखें खोलीं। घुप्प अँधेरे में डुबी हुई ममी की आकृति बहुत धुंधली-सी दिखाई दी। धीरे-से वह भी बगलवाले पलंग की रजाई में दुबक गई !

फूफी के जाने के बाद बंटी के मन में बहुत कुछ उखड़-बिखर गया। और ममी की शादी के बाद इस घर में बहुत कुछ उखड़-बिखर गया।

एक दिन में ही इस घर का बहुत-सा सामान उस घर में समा गया। सोमवार को इस घर की ममी भी उस घर में जाकर समा जाएँगी। किसी ने कह दिया कि सोमवार शुभ दिन है सो ममी रुक गईं। फूफी नहीं समा सकी तो हरिद्वार चली गई। बंटी है कि नहीं जानता वहाँ समा पाएगा या नहीं ? पहले ममी ने समझाया था तो बंटी समझ गया था, पर फूफी ने जाकर सब कुछ गड़बड़ा दिया।

फूफी के बिना तो उसे कहीं भी अच्छा नहीं लगेगा, यहाँ भी नहीं और वहाँ तो बिलकुल नहीं।

जब से फूफी गई है, तब से फूफी का जाना आँखों के सामने तैरता ही रहता है। जाते-जाते भी कैसे फूफी रसोई के बरतन धो-धोकर जमाती रही थी।

बंटी कभी मज़ाक करता था-"फूफी, बुलाकी राक्षस की जान तोते की टाँग में बसती थी, तेरी जान इस रसोई में बसती है। तुझे किसी दिन मारना होगा न तो..."

“अरे नहीं बसेगी जान रसोई में तो रोटी नहीं मिलेगी खाने को, समझा..."

जाने क्यों लगता है जैसे फूफी अभी भी अपनी जान यहीं छोड़ गई और चौके की जान ले गई। चौके की ही क्यों, बिना फूफी के सारा घर ही तो कैसा हो गया ? जब रात-दिन फूफी घर में रहती थी, तो फूफी का होना पता ही नहीं लगता था। बस फूफी है तो है ! पर अब फूफी नहीं है, तो सारे समय पता लगता है-फूफी नहीं है, फूफी नहीं है।

प्लेटफ़ार्म पर खड़ी है फूफी ! एक छोटी-सी टीन की संदूकची और उस पर रखी एक गठरी। ममी ने बहुत-कुछ देना चाहा, पर फूफी ने कुछ नहीं लिया। बस, बंटी को अपने से चिपका रखा है। आँख के आँसू हैं कि थम ही नहीं रहे हैं।

बंटी फूफी से चिपककर खड़ा है। आँख में एक भी आँसू नहीं। जो कुछ वह देख रहा है, बस, देख ही रहा है। पर विश्वास नहीं हो रहा कि फूफी सचमुच जा रही है या कि फूफी उसे छोड़कर जा भी सकती है। उसकी छोटी-सी हथेली में फूफी का हाथ है जिसे उसने कसकर पकड़ रखा है। और इसीलिए फूफी उसके पास है, उसकी पकड़ में है।

ममी ने पर्स खोलकर सौ रुपए का नोट देते हुए कहा, “फूफी, तुम्हें बंटी की कसम है, इसे रख लो। यों भी..." पता नहीं ममी आगे क्या कहना चाहती थीं।

"नहीं, हमें पाप में मत डालो बहुजी कसम दिलाकर ! हम कुछ नहीं लेंगे। भगवान के दरबार में जा रहे हैं, रुपया-पइसा का होगा क्या ? देना ही है तो एक वचन दे दो कि हमारे बंटी भय्या को जैसा आपने बिसरा दिया है आजकल, वैसा और मत करना। बाप के रहते यह बिना बाप का हो रहा, अब माँ के रहते यह बिना माँ का न हो जाए..." और फूफी ने साड़ी में मुँह छिपा लिया।

ममी की आँखें छलछला आईं। "कैसी बातें करती हो फूफी..." इससे आगे ममी से कुछ नहीं कहा गया।

चपरासी ने भीड़ में फूफी को भीतर ढकेल दिया। सीटी...झंडी...फिर सीटी ...भीड़, शोर...बदबू। और सबके बीच एक काँपता-पसीजता हाथ बंटी की छोटी-सी हथेली के बीच में से फिसलता चला गया। बंटी और उसे पकड़कर नहीं रख सका। और उसके बाद से जैसे एक-एक चीज़ बंटी के हाथ से निकलती ही जा रही है। अब तो शायद वह किसी को पकड़कर नहीं रख सकेगा।

लौटते समय बंटी सुन्न-सा ममी की बगल में बैठा है। “बंटी !" ममी ने प्यार से उसे अपनी बाँह में समेटा कि बंटी एकाएक फूटकर रो पड़ा, “फूफी को ले आओ ममी...फूफी को ले आओ..."

“रोते नहीं बेटे, थोड़े दिनों में अपने-आप आ जाएगी। तेरे बिना वह रह सकेगी कहीं भी ?" थोड़ी देर पहले प्लेटफ़ार्म, सामान और रेल के बीच में ही बंटी को लग रहा था कि फूफी कहीं नहीं जाएगी, वह जा नहीं सकती। अब ममी के कहने पर भी लग रहा है, वह नहीं आएगी, वह कभी आ नहीं सकती।

दूसरे दिन स्कूल से लौटकर जब माली की बहू ने खाना दिया तो फूफी का जाना जैसे मन को भीतर तक मथ गया। उसे याद नहीं कि स्कूल से लौटने पर किसी और ने भी उसे कभी खाना खिलाया हो। और क्या फूफी केवल खाना खिलाती थी ? खाने के साथ डाँट, डाँट के साथ लाड़ और भी जाने क्या-क्या तो रहता था।

पर इस घर से जा सकती है फूफी ? उसका तुलसी का चबूतरा, तार के एक कोने पर सूखती मटमैली-सी धोती और चोगे जैसा ब्लाउज। आँगन की दीवार में बनी ताक पर रखे, सिंदूर से रँगे-पते उसके हनुमान जी...उसके सरोते की खट-खट, उसके पसीने की गंध...उसके बेसुरे गले से निकली गीत की कड़ियाँ...उसकी कहानियों के राजा-रानी, भूत-प्रेत, जादूगर-राक्षस सबकुछ, इस तरह समाया हुआ है इस घर में कि यहाँ से वह जा ही नहीं सकती।

पर परसों तो यह घर भी छूट जाएगा। तब फूफी भी पूरी तरह छूट जाएगी। "तू ऐसे क्यों रहता है बंटी, मैं सच कहती हूँ तुझे वहाँ अच्छा लगेगा, बहुत अच्छा लगेगा मेरे बच्चे ! डॉक्टर साहब तुझे कितना प्यार करते हैं..." और भी जाने कितनी-कितनी बातें, कितने आश्वासन, कितने...

“अरे कौन बंटी ? आओ, आओ बेटे, और चार दिन का साथ है, खेल लो ! फिर तो बंटी कोठी में चला जाएगा तो पूछेगा भी नहीं कि टीटू किधर बसता है। मोटर में बैठकर आ जाया करना कभी-कभी...अब तो खूब ठाठ होंगे बंटी..."

और अम्मा के चेहरे पर वही मुसकराहट। होंठ फैलाकर भी अम्मा मुसकराती नहीं है, लगता है, जैसे कुछ कह रही हों। बंटी जानता नहीं, पर कुछ है जो बंटी को अच्छा नहीं लगता।

उस दिन के बाद पाँच-छः दिन हो गए यहाँ रहकर भी बंटी टीटू के घर नहीं गया।

आज नए घर में जाना है। शाम को चार के बाद से ही शुभ समय है। डॉक्टर साहब ने कल आकर बहत कहा कि आज ही चलो। रविवार का दिन है सबकी छुट्टी है। शुभ-अशुभ कुछ नहीं होता।

“क्यों बंटी, आज ही चलें न उस घर में ? जोत तुम्हारी राह देख रही है।" बंटी कुछ नहीं बोला। केवल डॉक्टर साहब का चेहरा देखता रहा। वह सचमुच उसी से पूछ रहे हैं ? आँखों में कहीं जोत का चेहरा उभर आया। शादीवाले दिन के बाद से उसे देखा ही नहीं। न ममी उस घर गईं न वहाँ से बच्चों को आने दिया। शायद शुभ समय नहीं था !

“लो, जब इतने दिन रुक गईं तो अब एक दिन की बात है। तुम मानो न मानो, मैं तो अशुभ वेला में कोई भी काम नहीं करूँगी।"

शुभ-अशुभ क्या होता है, कैसे होता है बंटी नहीं जानता। बस इतना जानता है कि ममी ने मना कर दिया है। तो वे अब नहीं जाएँगी। कल जाओ, आज जाओ, क्या फ़रक पड़ता है ! बस जाना है तो जाना है। पर ममी का कोई शुभ-अशुभ है जो नहीं जाने दे रहा है।

पर आज तो अब जाना ही है।

बंटी स्कूल से लौट आया। ममी ने बचा-खुचा सामान भी उस घर में भिजवा दिया। बिना बरतनों की रसोई, बिना कपड़ों की अलमारियाँ, बिना किताबों और मेज़पोश की मेजें, बिना दरी-कारपेट के फ़र्श...

खिलौनों की खाली अलमारी देखकर एक क्षण को सारे खिलौने आँखों के सामने घूम गए...पापा के भेजे हुए खिलौने।

एकाएक ख़याल आया-पापा तो इस घर का ही पता जानते हैं। अब वे आएँगे तो ख़बर कहाँ भेजेंगे ? उन्हें पता कैसे लगेगा ? कितने दिनों से पापा ने न कोई चीज़ भेजी न ख़बर। पापा को पता है कि ममी ने शादी कर ली है। हम लोग अब नए घर में रहेंगे। इस बार पापा को गए कितने दिन हो गए... एक...दो...तीन...छः...सात...आठ महीने हो गए।

तभी डॉक्टर साहब की कार आकर खड़ी हो गई। डॉक्टर साहब नहीं आए। ममी भी आती ही होंगी।

बंटी बरामदे की सीढ़ियों पर ही बैठ गया। ढलती धूप में उसका छोटा-सा बगीचा खूब लहलहा रहा है। पानी देनेवाला मोटा-सा पाइप बल खाया हुआ घास में पड़ा है। इधर तो उसने अपने बगीचे में पानी भी नहीं दिया।

"वहाँ का बगीचा तुझे ही ठीक करना है बेटे," ममी रोज याद दिला देती थीं और बंटी सुन लेता था बस !

कोने में आम का पौधा हरी-चिकनी पत्तियाँ लिए झूम रहा है।

'तुम जब जवान होओगे बंटी भैया तो यह पौधा भी पेड़ हो जाएगा...ब्याह, बच्चे...बौर, आम...तुम्हें बड़े होकर क्या माली बनना है बंटी भैया, जो इतनी खोजबीन कर रहे हो ? थोड़ा-बहुत काम कर लिया और छुट्टी करो !'

खट-खट करती ममी आईं। उनकी शॉल का एक छोर ज़मीन में घिसट रहा है। साथ में हीरालाल और माली भी हैं।

पहले ममी कॉलेज से आती थीं तो चेहरा कैसा थका-थका लगता था। आज लग रहा है, जैसे कॉलेज से आई नहीं, कॉलेज जाने के लिए तैयार होकर निकली हैं। ममी कैसी ख़ुश-खुश रहती हैं आजकल। माँग का सिंदूर चमकता रहता है। पहले दिन ममी की लाल-लाल माँग उसे बड़ी अजीब लगी थी। अब अजीब नहीं लगती, फिर भी नज़र वहीं जाकर अटक जाती है।

“तू आ गया बेटे ? कुछ खाया तो नहीं होगा ? चलो, अभी चलते हैं।"
 
हीरालाल एक-एक करके सारे कमरे बंद करने लगा। ममी बंटी के कंधे पर हाथ रखे माली को आदेश दे रही हैं-

"देखो माली, बंटी भैया के सारे पौधे उखाड़कर उधर ले आना। मोगरा, गुलाब, मोरपंखी-और कौन-कौन से पौधे आ सकते हैं बेटे ?” एकाएक उनकी नज़र उस आम के पौधे पर गई।

“यह आम का पौधा आ सकता है वहाँ ? आ सके तो ज़रूर-ज़रूर ले आना।" ममी को और भी कुछ याद आया।

गाड़ी में बैठकर बंटी ने एक उड़ती-सी नजर अपने घर की ओर डाली और फिर खिड़की पर ठोड़ी टिका ली। अब यह सब पीछे छूट जाएगा। दो-चार दिनों से तो वह ख़ुद मनाने लगा है कि इस सबको यहीं छोड़कर वह चला जाए।

कार चल दी। पर यह क्या ? यह घर, यह बगीचा, हाथ जोड़कर खड़े हुए हीरालाल और माली, सब-के-सब जैसे कार के साथ-साथ दौड़े चले आ रहे हैं-धुंधलाए हुए, थरथराते हुए। कुछ भी तो पीछे नहीं छूटा।

"बंटी !'' और ममी ने उसे अपने पास खींच लिया तो अवश-सा वह ममी पर ही जा लदा। पर बंटी रोया नहीं।

“यह तो कॉलेज का घर था बेटा, अपना घर तो था नहीं ! अब वहाँ अपना घर होगा, अपने लोग होंगे।"

एकाएक ही ममी का स्वर भर्रा गया। पता नहीं खुशी से या दुख से। बंटी के अपने मन में तो न ख़ुशी है न दुख। कुछ भी तो नहीं है सिवाए इस एहसास के कि वह जा रहा है।

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