नारी विमर्श >> आपका बंटी आपका बंटीमन्नू भंडारी
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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...
ग्यारह
कोठी इस तरह चमचमा रही है जैसे कल ही बनी हो।
बंटी के मन में हलकी-सी तसवीर है इस कोठी की, जब उसने पहली बार इसे देखा
था-धूल-भरी, मटमैली-सी। अब तो जैसे यह पहचानने में भी नहीं आती। कैसे बदल
जाती हैं चीजें इस तरह ?
एकाएक ही आँखों के सामने अभी-अभी छोड़ा हुआ अपना घर घूम गया। जो कार चलने के
साथ-साथ उसके साथ-साथ दौड़ पड़ा था....पर जैसे यहाँ तक दौड़ नहीं सका। घर,
बगीचा, हाथ जोड़े हुए हीरालाल और माली...हाँफते-काँपते सब बीच में ही छूट गए।
वह ममी के साथ अकेला ही आया है इस घर में...पहली बार। ममी ने कई बार कहा
था-कहा ही नहीं, आग्रह किया था कि चल बेटा, तुझे जोत ने बुलाया है या कि
डॉक्टर साहब ने ख़ासकर तुझे आने के लिए कहा है। पर वह कभी नहीं आया। कभी-कभी
ज़िद ही करने लगतीं तो फूफी आ जाती बचाव के लिए, “अरे आप काहे ज़ोर-ज़बरदस्ती
करती हैं, बच्चे का मन नहीं है तो कइसे जाएगा ?"
आज उसे किसी ने नहीं बुलाया है शायद...ममी ने भी आग्रह नहीं किया फिर भी वह
आया है। जब तक उसका अपना घर था, फूफी और सामान के साथ तब तक वह विरोध कर सकता
था। पर उन खाली दीवारों के बीच...इस बार तो उसे आना ही था।
पोर्टिको में ही सब लोग खड़े हैं...डॉक्टर साहब, जोत और अमि। नए-नए कपड़ों
में लिपटे, हँसते-खिलखिलाते चेहरे लिए।
"हल्लोऽऽ...बंटी !" एकदम उमगकर डॉक्टर साहब ने बंटी को गोद में उठा लिया और
दोनों गालों पर किस्सू दिए। बंटी ने विरोध नहीं किया और फिर धीरे से नीचे उतर
गया।
“तुम लेने नहीं आए, खाली गाड़ी भेज दी ?" ममी ने कुछ इस ढंग से कहा जैसे वह
कभी-कभी ममी से कहता था और ममी कहती थीं-क्या ठुनकता रहता है सारे दिन ?
इत्ती बड़ी होकर भी ममी ठुनकती हैं !
"मैं आ जाता तो फिर यहाँ स्वागत कौन करता तुम्हारा ?" और डॉक्टर साहब ने ममी
को बाँह में भरकर भीतर ठेलते हुए कहा, “आज तुम पूरे दस दिन बाद आई हो इस घर
में और इन दस दिनों में मैंने चेहरा बदल दिया है इस घर का।"
डॉक्टर साहब का ममी के कंधे पर हाथ रखना या ममी को बाँह में समेट लेना कई बार
देख चुका है बंटी, फिर भी जाने क्या है कि जब भी देखता है, नए सिरे से एक
क्षण को मन में कुछ हो जाता है। वह ममी पर से नज़र हटा लेना चाहता है और
बाँहों में सिमटी ममी को लगातार देखते रहना भी चाहता है।
ममी इस तरह चल रही हैं इस घर में, जैसे यहाँ सबकुछ बहुत जाना-चीन्हा हो। उसे
तो यहाँ का कुछ भी नहीं मालूम। जिधर जोत ले जाएगी उधर ही जाता है, उसके
साथ-साथ-बल्कि उसके पीछे-पीछे।
यह तो कॉलेज का घर था बेटा, वहाँ अपना घर होगा, अपने लोग होंगे, और अपने
लोगों के बीच भी सहमी-सहमी और अपरिचित-सी नज़रों से देख रहा है बंटी अपने घर
को, उससे परिचित होने के लिए, उसे अपना बनाने के लिए !
रंग-रोगन की गंध घर के इस छोर से उस छोर तक फैली हुई है। साथ ही एक और भी गंध
है जिसे वह केवल सूंघ रहा है, पर समझ नहीं पा रहा है।
बड़ा-सा बेडरूम ! हलकी नीली दीवारों पर गहरे नीले परदे और सलेटी रंग का
कार्पेट। खूब गुदगुदा-सा। दो नई-नई चमकती हुई अलमारियाँ। बंटी ने एक बार आँख
खोलकर उन पर हाथ फेरा-एकदम चिकनी ! उँगली रखते ही जैसे फिसल गई और एक हलका-सा
निशान बन गया। बंटी ने देखा, कोई देख तो नहीं रहा। कमरे के बीच में दीवार के
सहारे दो पलंग। दोनों के सहारे, पलंग के साथ ही लैंप लगा हुआ। बंटी का मन
हुआ, जलाकर देखे रोशनी कहाँ आकर गिरती है। उसने मन ही मन सोचा, वह इधर की तरफ
सोएगा और ममी उधर। जब तक नींद न आ जाए पढ़ते रहे और फिर लेटे-लेटे ही खट से
बत्ती बुझाओ और सो जाओ।
दूसरी ओर ड्रेसिंग-टेबुल रखी थी और ममी की ड्रेसिंग-टेबुल से चौगुनी शीशियाँ।
यह सब किसने जमाया होगा ? एकाएक बंटी की नज़र ममी की उसी जादुई शीशी को
ढूँढ़ने लगी। नहीं, वह वहाँ नहीं थी। उसे जैसे हलकी-सी राहत मिली।
कमरे के एक सिरे पर आकर बंटी ने एक साथ पूरा कमरा देखा तो आँखों के सामने
रंगीन तसवीरवाली उन मोटी-मोटी किताबोंवाला कमरा उभर आया।
डॉक्टर साहब ने सचमुच उनके लिए बिलकुल वैसा ही कमरा बनवा दिया। एक क्षण को
जैसे अपना घर छोड़ने का अवसाद धुंधला हो गया।
कभी अपने दोस्तों को लाकर दिखलाएगा। टीटू की अम्मा आकर देखें ! कैसे हँसती
थीं-अब हँसें आकर। कभी देखा भी नहीं होगा ऐसा कमरा।
"बंटी, तुम्हें कैसा लगा कमरा बताओ तो ? पसंद आया ?" डॉक्टर साहब ने उसकी पीठ
पर हाथ रखकर पूछा तो बंटी जैसे पुलककर मुसकरा दिया, “अच्छा लगा।" बंटी को
डॉक्टर साहब भी अच्छे लगे।
जोत और अमि दौड़े-दौड़े आए, “पापा चलिए, नाश्ता तैयार है।"
बड़ी-सी मेज़ पर ढेर सारी खाने की चीजें फैली पड़ी हैं। बंटी को शादीवाले दिन
शादी जैसा कुछ नहीं लगा था, पर आज जरूर शादी जैसा लग रहा है। एकाएक जोत और
अमि के नए-नए कपड़ों के मुकाबले में उसे अपनी हलकी-सी मैली हो आई स्कूल की
यूनीफ़ार्म बड़ी फीकी-फीकी और बेतुकी-सी लगी। लगा जैसे वह इन सबके बीच का
नहीं, इन सबसे अलग है।
फूफी तो स्कूल से आते ही सबसे पहले कपड़े बदलवाया करती थी। ममी को खयाल भी
आया कि यहाँ आने से पहले कम से कम उसके कपड़े तो बदलवा दें!
"नहीं...नहीं शकुन ! उस कुर्सी पर नहीं, वह अमि की कुर्सी है। इन दोनों की
अपनी-अपनी कुर्सियाँ तय हैं। कोई और बैठ जाए तो तूफ़ान मच जाता है।"
“अच्छा ! तो लो, हम अपनी कुर्सी तय कर लेते हैं।" और हँसते हुए ममी ने डॉक्टर
साहब के सामनेवाली कुर्सी खींच ली। बंटी अभी भी खड़ा है।
"तुम भी अपनी कुर्सी तय कर लो बेटे ! बोलो, इधर बैठोगे या उधर ?" सभी की अपनी
जगह तय है, अपनी कुर्सियाँ तय हैं, बस उसी का कुछ तय नहीं है, जो बचा है,
उसमें से ही उसे कुछ चुन लेना है। वह चुपचाप जोत के पासवाली कुर्सी पर बैठ
गया। मन को कहीं एक अनमना-सा भाव छूकर निकल गया।
अमि और जोत की 'यह लाओ, वह लाओ...ऐ बंसीलाल, इसमें हरी मिर्च क्यों डाली...आज
अंगूर क्यों नहीं है...मेरे नमकीन बिस्कुट...' के बीच बंटी अपनी नज़रों में
जैसे कहीं से बड़ा बेचारा हो आया। बेचारा और उपेक्षित।
डॉक्टर साहब बाहरवालों की तरह उसकी मनुहार कर रहे हैं, “यह लो बंटी बेटे...वह
लो, तुम्हें अच्छा लगेगा।" वह बाहर का ही तो है।
“शरमा नहीं बंटी, तुझे जो पसंद है ले ले। अपने घर में शरमाते नहीं।" ममी ऐसे
बोल रही हैं, जैसे ख़द भी डॉक्टर साहब के ही घर की हों। अब हैं भी शायद। शादी
के बाद हो जाते हैं। पर वह कैसे, उसने थोड़े ही शादी की है ?
और आँखों के सामने फिर अपने घर की तसवीर उभर आई। मेज़ पर कभी अकेला और कभी
ममी के साथ बैठा हुआ बंटी और डाँट-डाँटकर खिलानेवाली फूफी-“एल्लो, हो गया
तुम्हारा खाना ? और यह कौन खाएगा ?...तुम कइसे नहीं खाओगे बंटी भय्या, हम
बाँस लेकर दूंसेंगे तुम्हारे गले में, समझे। ममी के आगे दिखाया करो ये नखरे,
बहुत सिर पर चढ़ा रखा है तुम्हें !" और ममी मुसकराती रहतीं।
एकाएक ही नज़र ममी की ओर उठ गई। इस समय भी तो ममी मुसकरा रही हैं, एक ही आदमी
इतनी अलग-अलग तरह से भी मुसकरा सकता है ?
"हल्लोऽऽ डॉक्टर...गृहप्रवेश की दावत हो रही है ?"
बंटी एकाएक जैसे चौंक गया। सारे घर को गुंजाता हुआ एक लंबा-सा आदमी घुसा। एक
अकेला आदमी भी इतना शोर मचा सकता है ? लंबा कितना है ! गरदन पूरी तरह ऊँची
करके देखने पर ही चेहरा दिखाई दे।
“आओ...आओ वर्मा ! बड़े अच्छे समय आए।"
“नमस्कार वर्मा साहब !”
“नमस्ते अंकल !"
सब लोग तो जानते हैं इस लंबे आदमी को, बस वही नहीं जानता।
“आज यह खाने की मेज़ सचमुच खाने की मेज़ लग रही है।" लंबा आदमी ममी को कैसे
घूर-घूरकर देख रहा है।
डॉक्टर साहब खी-खी करके हँस पड़े और ममी गद्गद होकर एकदम सुर्ख हो गईं।
आजकल ममी के गाल बात-बात पर ऐसे सुर्ख हो जाते हैं मानो गुलाब जूड़े में न
लगाकर गालों पर लगा लिए हों।
ममी ने एक प्लेट लगाकर सामने की तो फिर दहाड़ा“नो-नो, आइ एम फुल मिसेज़ जोशी
!' मिसेज़ जोशी ! एकाएक बंटी की नज़र ममी की ओर उठ गई। ममी ने कुछ भी नहीं
कहा। अभी तक ममी को सब मिसेज़ बत्रा कहते थे और अब...
“ऐ बंटी, अब तू जोशी हो गया यार ! बंटी जोशी, नहीं अरूप जोशी।"
“धत्, मैं क्यों हो गया जोशी ? मैं अरूप बत्रा हूँ, बंटी बत्रा !"
"चल-चल ! डॉक्टर जोशी तेरे पापा नहीं हो गए अब ?"
"बिलकुल नहीं, एकदम नहीं, मेरे पापा अजय बत्रा हैं। कलकत्ते में रहते हैं।"
“अब नहीं रहे वो पापा मिस्टर !"
“मार दूंगा, ज़्यादा बकवास की तो !” मन हो रहा था धज्जियाँ बिखेर दे, इस
कैलाश के बच्चे की।
फिर सारे दिन वह काग़ज़ पर अरूप बत्रा...अरूप बत्रा, बंटी बत्रा लिखता रहा
था। लंच टाइम में मैदान में बैठा तो उँगली से जमीन पर लिखता रहा
बत्रा...बत्रा..
“अंकल, आप टामी को नहीं लाए ?"
"हम घर से नहीं आए बेटे, सीधे ऑफ़िस से चले आ रहे हैं। सोचा, ज़रा तुम लोगों
के घर की रौनक देख लें। क्यों मिसेज़ जोशी, बेडरूम पसंद आ गया ? आपने अप्रूव
किया या नहीं ?"
ममी के गाल फिर सुर्ख हो गए। क्या हो जाता है ममी को बार-बार ! ऐसा तो पहले
कभी नहीं होता था।
“वाह, मिसेज़ वर्मा ने सब अरेंज किया और मुझे पसंद न आए ? हम तो सोच रहे थे
धन्यवाद देने रात में ख़ुद ही उधर आएँगे।"
"ओह, नो-नो-यह सब तकल्लुफबाज़ी छोड़िए। आज की रात नहीं।" फिर एकाएक उनकी नज़र
बंटी पर जम गई।
"यह बच्चा...ओह, अच्छा...अच्छा, क्या नाम है बेटे तम्हारा ?"
प्यार से बोला तब भी लगता है जैसे डाँट रहा हो। इसके बच्चों को डर नहीं लगता
होगा इससे ?
बंटी ने सीधी नज़रों से उसे देखा और बिना झिझक के जवाब दिया, “अरूप बत्रा !"
बत्रा पर इतना ज़ोर डाला कि उसके सामने अरूप तो जैसे दब ही गया।
“वाह, बड़ा अच्छा नाम है यह तो ! अरूप और अमित, जोड़ी भी खूब रहेगी।' फिर ममी
की ओर देखकर बोला, “सीम्स टु बी ए बोल्ड चैप।"
ममी कैसे घूर-घूरकर देख रही हैं, देखें, वह क्या डरता है ? बत्रा है तो बत्रा
ही रहेगा और बत्रा ही कहेगा। ममी की तरह नहीं कि झट से जोशी बन गए।
खाना-पीना ख़त्म हुआ तो डॉक्टर साहब ने कहा, “जोत, बंटी बेटे को घुमाकर सब
दिखाओ तो। अपनी किताबें, अपने खिलौने...पीछे का सी-सॉ और स्लिप, घुमाओ ज़रा।"
ममी मज़े से बैठी हैं। उन्हें अभी भी ख़याल नहीं आ रहा है कि बंटी के कपड़े
बदलवाने हैं। यहाँ कौन फूफी है जो बदलवा देगी कपड़े या उसे मालूम है कि कपड़े
कहाँ रखे हैं जो अपने-आप ही जाकर बदल लेगा ! बस, अपने ही गाल लाल करके मुसकरा
रही हैं जब से।
जाने क्या है कि डॉक्टर साहब से या किसी भी अनजान आदमी से कहने में जितना
संकोच होता है, ममी से कहते हुए भी इस समय उतना ही संकोच हो रहा है। वही कहे
कपड़े की बात, ममी को अपने-आप नहीं सूझती ? ये दोनों नए-नए कपड़े पहने बैठे
हैं, फिर भी ममी को ख़याल नहीं आ रहा ? उस लंबे आदमी ने क्या सोचा होगा कि
ऐसे गंदे कपड़े पहनकर ही रहता है यह बच्चा !
“जाओ बेटे, जोत बुला रही है।"
“मुझे कपड़े दो, कपड़े नहीं बदलूँगा मैं ?" भरसक रोकने पर भी बंटी का स्वर
जैसे भरी ही गया।
“अरे, चल-चल, मैं तो भूल ही गई।" फिर डॉक्टर की ओर देखकर पूछा, “आज जो कपड़ों
के बक्से आए वे कहाँ रखे हैं ?"
एक कमरे में सारा सामान अस्त-व्यस्त ढंग से पड़ा है-बंटी के घर का सामान !
बक्से-बिस्तरे, गठरी में बँधी हुई किताबें...टोकरी में भरे हुए बंटी के
खिलौने...बंटी की पेंटिंग्स...और भी जाने क्या-क्या ! लगा जैसे उसका सारा घर
गठरियों, टोकरियों में बाँधकर यहाँ ठूस दिया गया है।
ममी एक बक्से में से कपड़े निकाल रही हैं और बंटी उस सामान को देख रहा है।
सामान का भी चेहरा होता है क्या ? सारा सामान कैसा उदास-उदास लग रहा है।
बंटी का सिपाही टोकरी के किनारे सिर के बल ठुसा हुआ है। बंटी जल्दी से गया और
उसे निकालकर उसने सीधा कर दिया। पर भीतर तो सभी कुछ उलट-पुलट है। एक बार मन
हुआ, अपने सारे खिलौने निकालकर...
“ले कपड़े बदल ले और बच्चों के साथ खेल। जोत है, अमि है, पीछे भी बड़ा-सा
मैदान है। खूब खेलो-कूदो, दौड़ो-भागो !"
पर बंटी है कि अपनी टोकरी में ही लगा हुआ है। जैसे उसने ममी की बात सुनी ही
नहीं।
"कल सब ठीक कर दूँगी बेटे, अभी ऐसे ही रहने दे !" बंटी ने पलटकर ममी की ओर
देखा। लगा जैसे पूछ रहा हो-क्या सब ठीक कर दोगी ?
और उस कमरे से निकला तो एक बार फिर लगा जैसे अपने घर से निकल रहा हो।
जोत सब बता रही है, “यह जो नीम का पेड़ है न बंटी, यह जिस दिन पापा पैदा हुए
थे उस दिल लगवाया था बाबा ने। पापा के जन्मदिन पर इसकी पूजा करती थीं चाची
अम्मा।"
और एकाएक ही बंटी की आँखों के सामने आम का वह छोटा-सा पौधा घूम गया।
"चाची अम्मा कौन ?" यह नाम तो बंटी ने कभी नहीं सुना।
"चाची अम्मा कौन, हमारी चाची अम्मा !” अमि ने कहा तो जोत हँसने लगी।
“पापा की चाचीजी ! अभी तक वह ही तो रहती थीं हमारे पास...थोडे दिन पहले ही तो
गई हैं !"
“और वह जो बड़ा-सा जाली का पिंजरा देख रहा है, उसमें खरगोश पाले थे बंसीलाल
ने। पर एक बार जाने कैसे बिल्ली घुस गई और सब सफाचट..."
"बिल्ली नहीं बंटी भैया, बिलाव ! ये मोटी झबरी पूँछ ! देख लो तो डर लग जाए।
सारे खरगोश चट कर गया।"
फिर बंसीलाल का घर, इमली का पेड़, जहाँ दोनों बीन-बीनकर कच्ची इमली खाते हैं।
बड़ी स्वाद हैं इस पेड़ की इमलियाँ....
जोत और अमि बताए चले जा रहे हैं और बंटी केवल सुन रहा है। सुनने के सिवा वह
कर ही क्या सकता है, बताने के लिए है ही क्या उसके पास ?
बंटी अपने घर में घूम रहा है। पर अपने घर जैसा कुछ भी तो नहीं लग रहा उसे।
सर्दी के दिनों में साँझ से ही तो चारों ओर अँधेरा घुसने लगता है। और
जैसे-जैसे अँधेरा घुलता जा रहा है, सबकुछ और ज्यादा-ज्यादा अपरिचित होता जा
रहा है। यहाँ तो आसमान भी पहचाना हुआ नहीं लगता, हवा भी पहचानी हुई नहीं
लगती। अपने घर का आसमान और अपने घर की हवा कहीं ऐसी होती है ?
ममी डॉक्टर साहब के साथ बाहर गईं हैं और वह कमरे में अकेला बैठा है। चारों ओर
बत्तियाँ जगमगा रही हैं, फिर भी बंटी के मन में न जाने कैसा डर समा रहा है।
रात में वह कभी घर से बाहर नहीं सोया, अब कैसे सोएगा यहाँ ? और आँखों के
सामने वही नीले परदेवाला कमरा घूम गया। फिर भी डर है कि बढ़ता ही जा रहा है।
अपने घर से आया है। तब से अब तक यही लग रहा था, वह केवल यहाँ आया है। तभी
शायद उस समय उसे उतनी घबराहट नहीं हो रही थी। पर अब जैसे-जैसे रात बीतती जा
रही है, यह एहसास कि वह केवल आया ही नहीं है, उसे यहाँ रहना भी है, केवल आज
ही नहीं, हर दिन, हर रात। और इस बात के साथ ही मन है कि जैसे डूबता चला जा
रहा है।
कैसे रहेगा वह इस घर में ? यह उसका घर बिलकुल नहीं है। यह डॉक्टर साहब का घर
है, जोत और अमि का घर है। वह किसी के घर में नहीं रहेगा, अपने घर जाएगा, अपने
ही घर में सोएगा।
अपने घर में उसे कभी डर नहीं लगता था। ममी बाहर चली जाती थीं तब भी नहीं।
एकदम अँधेरा हो तब भी नहीं। न हो ममी, न हो रोशनी, पर घर तो उसका अपना था,
फूफी तो उसकी अपनी थी। अँधेरे में ही वह अकेला सारे घर का चक्कर लगाकर आ सकता
था।
यहाँ तो न घर उसका है, न घरवाले उसके हैं। ममी के कहने से क्या होता है, क्या
वह जानता नहीं ? और जब कुछ भी उसका नहीं है तो डरेगा नहीं वह ? लाख रोकने पर
भी आँखें हैं कि छल-छल हो रही हैं।
“अरे बंटी, तू यहाँ बैठा है ? कपड़े नहीं बदले ? ममी तेरे कपड़े पलंग पर रख
गई हैं।" जोत पहले तो ममी को आंटी जी कहती थी, अब ममी क्यों कहने लगी?
"हूहू-हूहू-सर्दी रेऽऽ”–दोनों बाँहों को कसकर छाती से चिपकाए अमि पंजों के बल
उछलता हुआ आया और बिस्तर में दुबककर रजाई ओढ़ ली।
बंटी ने बाथरूम में जाकर मुँह धो लिया। पता नहीं क्या है, वह कहीं भी जाए
उसका अपना घर साथ-साथ चलता है। बाथरूम, बाल्टी, नल...आँख मींचकर भी अपने घर
में जिस तरह चल सकता था, यहाँ आँख खोलकर भी उस तरह नहीं चल पा रहा है।
“चल अब अपनी-अपनी रजाइयों में घुसकर कहानी कहेंगे। ममी बता रही थीं तुझे
खूब-खूब कहानियाँ आती हैं।"
“मैं भी कहानी सुनूँगा बंटी भैया ! राजा-रानीवाली, परियोंवाली।"
पर बंटी न बिस्तर में लेटा, न रजाई ओढ़ी और न ही उसने कहानी सुनाई। बस, कंबल
लपेटकर बैठे-बैठे ममी की राह देखता रहा। अमि तो लेटते ही सो गया। जोत उससे
स्कूल की बातें पूछती रही, चुटकुले सुनाती रही।
स्कूल की बातों पर वह चुप रहा और चुटकलों पर वह रोता रहा। थोड़ी देर में जोत
भी लुढ़क गई।
बंटी है कि न उससे सोते बन रहा है, न जागते। बस, रह-रहकर आँखें छलछला आती
हैं। ममी के आते ही वह छिटककर पलंग के नीचे उतर आया।
“अरे, तू सोया नहीं बंटी बेटा ? और यह क्या, कुछ भी गरम नहीं पहन रखा और
बिस्तर में से निकल आया। सर्दी नहीं लग जाएगी ?"
बंटी दौड़कर ममी के पैरों से लिपट गया। मैं अकेला कैसे सोता, मुझे डर नहीं
लगता ?"
उँगली में गाड़ी की चाबी नचाते हुए डॉक्टर साहब आए, “अरे, तुम सोए नहीं बंटी
बेटे ?"
“तुम चलो।" और ममी उसे अपने से चिपकाए-चिपकाए ही कमरे में ले आईं।
"डर क्यों लगता है ? जोत और अमि नहीं सो रहे यहाँ ? देख अमि तो तुझसे भी छोटा
है, उसे डर नहीं लगता और तुझे डर लगता है ?"
ममी ने पूरे जूड़े में माला लपेट रखी है और सुगंध है कि केवल माला में से ही
नहीं, जैसे परे शरीर से फूटी पड़ रही है। ममी गई थीं तो दूसरी तरह की थीं और
अब लौटी हैं तो एकदम ही दूसरी तरह की हो गईं।
“तू तो बहुत पगला है बेटे, सबके बीच में भी डरता है ?"
“पर उस कमरे में तो कोई नहीं था। मैं कैसे सोता ? अकेले मुझे डर नहीं लगता
वहाँ ?"
“ओह !" ममी एक क्षण रुकी, फिर उसकी पीठ सहलाती हुई बोली, "नहीं बेटा, बच्चे
लोगों का तो यही कमरा है। बच्चे लोग सब एक साथ सोएँगे। देखो, ये लोग भी तो सो
रहे हैं यहाँ ! चल, मैं तुझे सुलाती हूँ।" और ममी ने बहुत प्यार से पकड़कर
उसे पलंग पर लिटा दिया, रजाई ओढ़ाई और उसके सिरहाने बैठकर उसका सिर सहलाने
लगीं।
बंटी की आँखों में इतनी देर से तैयार हुआ वह नीले परदोंवाला कमरा, जिसमें
बंटी ने मन ही मन अपना पलंग भी तय कर लिया था, जैसे ढहकर गिर पड़ा।
'बंटी बेटा, पसंद आया तुम्हें यह कमरा'-झूठ...झूठ-मन में जैसे एक ज्वार उठ
रहा है दुख का, गुस्से का। मन हो रहा है जाए उस कमरे में और एक-एक चीज़ उठाकर
फेंक दे-परदे फाड़ डाले, देखें कोई क्या कर लेता है उसका ?
ममी ने झुककर उसके गाल को चूमा तो उसने ममी का चेहरा झटक दिया।
“क्यों पागलपन कर रहा है बेटे ? देख, ये दोनों भी तो हैं ? मुझे तंग करने
में, सबके बीच शर्मिंदा करने में तुझे ख़ास ही सुख मिलने लगा है आजकल।"
हाँ, मिलता है सुख...ज़रूर करूँगा शर्मिंदा। तुम नहीं कर रही हो मुझे
शर्मिंदा ? यहाँ दूसरों के घर लाकर पटक दिया। 'अपना घर होगा', कोई नहीं है
अपना घर ? मैं नहीं रहता किसी के घर...पहले तो कमरा पसंद करो और फिर ...कितनी
बातें हैं, जो फूटी पड़ रही हैं। बंटी चाहता भी है कि सब कह दे। कितने दिन तो
हो गए उसने कुछ कहा ही नहीं। आजकल तो वह सिर्फ़ सुनता है और मान लेता है, पर
आज नहीं।
लेकिन गला है कि बुरी तरह भिंचा हुआ है। लगता है, बोलना चाहेगा तो बस केवल
हिचकी फूटकर रह जाएगी।
"नींद नहीं आ रही बंटी को ? क्या बात है बेटे ?" डॉक्टर साहब तौलिया लटकाए
दरवाजे पर खड़े पूछ रहे हैं।
“अभी सो जाएगा। नई जगह है न, शायद इसलिए।" ममी शायद उसके जागते रहने की सफ़ाई
दे रही हैं।
"तुम जाओ, मैं सो जाऊँगा।” सँधे हुए गले से बंटी ने किसी तरह से शब्द ठेल
दिए।
"ऐसे मत कर बेटे, ऐसा नहीं करते न ! चल सो, मैं बैठी हूँ तेरे पास।"
ममी बैठी-बैठी उसका सिर सहलाती रहीं। धीरे-धीरे उसके गाल थपथपाती रहीं। बंटी
आँखें मूंदे पड़ा रहा। थोड़ी देर बाद धीरे से ममी उठीं। एक बार चारों ओर से
उसे अच्छी तरह ढका। खट ! बत्ती बंद हुई तो बंद आँखों में फैला अँधेरा खूब
गाढ़ा हो गया। बंटी ने आँखें खोल दीं। सारी की सारी ममी अँधेरे में डूब गई
थीं, बस धीरे-धीरे दूर होता उनका जूड़े का गज़रा चमक रहा था।
दरवाज़े पर पहुँचकर ममी ने धीरे-से आवाज़ दी, "बंटी !"
बंटी चुप।
“सो गया ?" डॉक्टर साहब रात के कपड़े पहन आए थे।
"हूँ।" ममी ने धीरे-से कहा।
फिर दोनों उसी कमरे में चले गए और एक हलकी-सी आवाज़ हुई। शायद दरवाज़ा बंद
होने की।
बंटी को लगा घर से चला था तो बीच रास्ते में आकर उसका अपना घर और बगीचा छूट
गया था। यहाँ आकर ममी छूट गईं।
इतनी देर से दबा हुआ एक आवेग था जो दरवाज़े के बंद होते ही फूट पड़ा। थोड़ी
देर बाद ही अचानक उस कमरे का दरवाज़ा खुला और डॉक्टर साहब ने निकलकर बाहर के
बरामदे की बत्ती बंद कर दी।
सारा घर अँधेरे में डूब गया। बंटी के मन का दुख और गुस्सा धीरे-धीरे डर में
बदलने लगा। केवल डर ही नहीं, एक आतंक, कैसी-कैसी शक्लें उभरने लगीं उस अँधेरे
में। उसने कसकर आँखें मींच लीं। पर अजीब बात है, बंद आँखों के सामने शक्लें
और भी साफ़ हो गईं-लपलपाती जीभ के राक्षस...उलटे पंजे और सींगोंवाला सफ़ेद
भूत, तीन आँखोंवाली चुडैल, जादुई नगरी के नाचते हुए हड्डियों के ढाँचे, सब
उसके चारों ओर नाच रहे हैं। धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रहे हैं।
उसकी साँस जहाँ की तहाँ रुक गई।
“ममी, दरवाजा खोलो...दरवाजा खोलो ममी।" सारी ताकत से बंटी चीख रहा है और
दोनों हाथों से दरवाज़ा भड़भड़ा रहा है।
"दरवाज़ा खोलो, ममी।" आधी रात के सन्नाटे में बंटी की भिंची हुई-सी आवाज़ भी
सारे घर में गूंज उठी।
खटाक से दरवाज़ा खुला, “कौन, बंटी ? क्या हुआ बेटे, क्या हुआ ?"
सर्दी में अकड़ा हुआ बंटी थर-थर काँप रहा है। ममी ने जल्दी से उसे गोद में
उठाकर छाती से चिपका लिया।
बंटी का सारा मुँह आँसू, लार और नाक से सन गया। हिचकियों के मारे साँस नहीं
ली जा रही है। ममी ने उसके चारों ओर कसकर शॉल लपेट दिया।
"मैं हूँ बेटे-ममी-क्या हो गया ? मैं तेरे पास हूँ।"
"क्या बात हो गई ?'' गले तक रजाई ओढ़े-ओढ़े ही डॉक्टर साहब ने पूछा।
"डर गया है शायद।" ममी ने कहा, पर उनकी आवाज़ ऐसी सहमी हुई थी जैसे वे खुद डर
गई हों।
ममी उसे वैसे ही छाती से चिपकाए-चिपकाए पलंग पर बैठ गईं। उसकी पीठ सहलाती
रहीं। “मैं तेरे पास हूँ बेटे-ममी तेरे पास है।"
धीरे-धीरे बंटी अपने में लौटने लगा। ममी की आवाज ने, ममी की बाँहों ने उन
सबको भगा दिया, जिनके बीच बंटी की साँसें रुकी हुई थीं।
और जब बंटी की हिचकियाँ थम गईं-उसके शरीर में फिर गरमाई आ गई तो ममी ने बंटी
को धीरे से पलंग पर सुलाया।
“क्या हुआ बेटे, डर गया था ?" तो पहली बार बंटी ने आँखें खोलीं। उसकी ममी उस
पर झुकी हुई पूछ रही थीं-उसकी अपनी ममी।
एक बार मन हुआ ममी के गले में बाँहें डालकर लिपट जाए-पर हाथ जहाँ के तहाँ जमे
हुए हैं। हाथ ही नहीं, जैसे सारा शरीर जहाँ का तहाँ जम गया। केवल आँखें खुली
हैं और वह टुकुर-टुकुर देख रहा है, ममी को...कमरे को...आसपास की चीज़ों को।
हलकी नीली रोशनी में डूबा हुआ कमरा, कमरे की हर चीज़...
“पहले भी कभी इस तरह डर जाया करता था ?" पता नहीं कहाँ से आ रही है डॉक्टर
साहब की आवाज़।
"नहीं, कभी नहीं डरा। शायद नई जगह थी, शायद कोई सपना देख रहा हो। उलटी-सीधी
कहानियाँ जो पढ़ता है दुनिया भर की।" ममी की आवाज़ में परेशानी थी, दुख था।
पहले जब बंटी दूसरी दुनिया में था तो ममी का चेहरा, ममी की आवाज़ बहुत
अपनी-अपनी लग रही थी, अब वह पूरी तरह अपनी दुनिया में लौट आया तो नीली रोशनी
में नहाई ममी, कमरा, कमरे की हर चीज़ जैसे दूसरी दुनिया के लगने लगे।
दोपहरवाला कमरा जैसे कहीं से बिलकुल ही बदल गया है। सबकुछ फिर बड़ा
जादुई-जादुई लगने लगा। फिर मन में डर समाने लगा, अजीब तरह का डर। बंटी ने
आँखें मूंद लीं। पर दो-चार मिनट के लिए देखा हुआ वह नीला रंग आँखों में ही
आकर चिपक गया है। नीलम देश क्या ऐसा ही होता है ?
थोड़ी देर ममी की थपकियाँ और फिर जैसे कहीं दूर से आती हुई आवाज़ !
“पर तुम जब समझते हो कहते हो तो मन ज़रूर थोड़ा हलका हो जाता है। पर मैं
जानती हूँ कि यह..."
"कुछ नहीं, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।" डॉक्टर साहब की नींद में डूबी हुई
आवाज़...
“सो गया ?"
“हाँ, लगता तो है, सो गया।" फिर चुप ! बंटी का मन हो रहा है आँखें खोल दे। एक
बार फिर ममी का चेहरा देखकर आश्वस्त हो ले। पर नहीं, नीली रोशनी में डूबी
हुई...
“सुनो, तुम उठकर कपड़े पहन लो। पता नहीं, यह सवेरे जल्दी उठ जाए तो बड़ी अजीब
स्थिति हो जाएगी।"
अचानक आँखों के सामने कुछ काला-काला तैर गया। ममी ने बत्ती बंद की है शायद।
बंटी ने धीरे-से आँखें खोलकर देखा। नीली रोशनी गायब हो गई थी। खिड़की से छनकर
आती हुई बहुत ही फीकी-फीकी रोशनी में फिर सबकुछ पहचाना-पहचाना लगने लगा-खासकर
ममी का चेहरा। कहीं ममी उसे जागता हुआ न देख लें।
पलंग के एक सिरे से डॉक्टर साहब रजाई उतारकर उठे तो बंटी धम् ! छी-छी-यह क्या
? इतना बड़ा आदमी एकदम नंग-धडंग। बंटी की आँखें फटी पड़ रही हैं।
और ममी भी देख रही हैं। शरम नहीं आ रही है इन लोगों को ? उसे जैसे मितली-सी
आने लगी...पर आँखें हैं कि फिर भी बंद नहीं हो रहीं।
डॉक्टर साहब ने कपड़े पहन लिए, फिर भी जैसे दिमाग में वही सब घूम रहा है।
फिर ममी धीरे-से उतरी और उसी रैक की ओर गईं। उन्होंने भी अपना हाउस-कोट उतारा
तो...
बंटी भीतर ही भीतर भय से थर-थर काँपने लगा। ये उसी की ममी हैं ? उसने आज तक
कभी अपनी ममी को ऐसा नहीं देखा। उसकी ममी ऐसी हो ही नहीं सकतीं। यह क्या हो
रहा है ?
छी-छी-बेशरम-बेशरम-उसका मन हआ रजाई उतार फेंके और जोर से चीखे। पर वह चीख
नहीं रहा...
मन जाने कैसा कैसा हो रहा है उसका। थ्रिल भी है उसके मन में-जुगुप्सा भी-ममी
के इस व्यवहार की शरम भी, गुस्सा भी और जाने क्या-क्या !
सारे गुस्से, नाराज़गी और दुख के बावजूद अभी तक ममी उसकी ममी थीं, अब जाने
क्या हो गईं ? पता नहीं, उसे कुछ भी नाम देना नहीं आ रहा है। बस, इतना लग रहा
है कि अभी तक की ममी एकाएक ही जैसे कहीं से टूट-फूट गईं...चकनाचूर हो गईं।
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