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आपका बंटी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3119
आईएसबीएन :9788183618892

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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

नौ


बहुत देर तक बंटी बुत बना बैठा रहा और शकुन ने उसे बिस्तर पर लिटा दिया तो धीरे-धीरे सुबककर सो गया।

पर शकुन फिर नहीं सो सकी। आज का सारा दिन, दिन में घटी एक-एक घटना उसे नए सिरे से मथने लगी। बंटी तो रो-पीटकर, सारे खिलौने छितराकर भूकंप मचाता हुआ-सा बाहर चला गया, पर वह जैसे अभी तक उसके कंपन को महसूस कर रही है।

अमि-जोत के सहमे हुए चेहरे और क्षण-भर को डॉक्टर के माथे पर खिंच आए बल...लगा जैसे शकुन से ही कोई भारी अपराध हो गया हो। ज़रूर ही उस समय उसके चेहरे पर बड़ी कातर-सी बेबसी उभर आई होगी, तभी तो डॉक्टर ने पीठ सहलाकर उसे दिलासा दी, "बच्चों की बात को लेकर तुम इतनी परेशान क्यों हो रही हो ? टेक इट ईज़ी...” पर ख़ुद वह शायद ईज़ी नहीं हो पाए थे।

उस समय शकुन के मन में इस तरह गुस्सा उफ़न रहा था कि मन हो रहा था बाहर जाए और बंटी की धुनाई कर दे। पर अच्छा ही हुआ कि गई नहीं। वरना इस समय वह बैठी अपने को ही कोस रही होती।

एयर-गन की ठाँय-ठाँय भीतर तक सुनाई देती रही थी और शकुन को लग रहा था जैसे यह शब्द उसके और डॉक्टर के बीच फैलता चला जा रहा है, फैलता चला जा रहा है।

इस समय शकुन के मन में कोई गुस्सा नहीं है। बस, उसे लग रहा है जैसे बंटी उसे हर जगह ही ग़लत सिद्ध कर देता है।

वकील चाचा ने कहा था, “तुम बंटी पर इतना निर्भर करती हो, उसे अपनी जिंदगी का केंद्र बनाकर जीना चाहती हो, यही गलत है। केवल तुम्हारे लिए ही नहीं, बंटी के लिए भी...लेट हिम ग्रो लाइक ए बॉय, लाइक ए मैन ! सारे समय अपने में दुबकाए रखोगी तो क्या बनेगा उसका ?"

तब ऊपर से चाहे उसने न माना हो, पर भीतर ही भीतर ज़रूर महसूस किया था कि बंटी के प्रति उसका रवैया ग़लत ही रहा है।

और आज डॉक्टर को लेकर वह जहाँ पहुँच गई है, उसके मूल में उस समय कहीं बंटी को अपने से मुक्त करने की इच्छा ही नहीं थी ? यों शायद और भी बहुत कुछ था, पर बंटी भी कहीं था तो सही ही।

अपने को परिचित कराने के बाद डॉक्टर शकुन को अपने घर और बच्चों से परिचित करा रहे थे-जोत बहुत सीधी है और अमि बहुत शैतान। लड़कियाँ जिद्दी भले ही हों, पर स्वभाव से शांत और सीधी होती हैं और लड़के जन्म से ही गुस्सैल और ऊधमी।

“लेकिन बंटी उस तरह से ऊधम बिलकुल नहीं करता, ज़िद्दी ज़रूर है फिर भी अपनी उम्र से कहीं ज्यादा समझदार।" और यह कहते हुए अपने बंटी के प्रति उसके मन में कैसा गर्व जागा था।

“तुम उस पर शायद इतना ज़्यादा हावी रही हो कि वह पूरी तरह लड़का बन ही नहीं पाया। तुमने उसे ऊधम करने ही नहीं दिया-हाँ, औरतोंवाली ज़िद और रोना जरूर सिखा दिया।" डॉक्टर सहज भाव से हँस पड़े थे, पर तब भी शकुन ने अपने को अपमानित महसूस किया था।

डॉक्टर शायद भाँप गए थे, “मैं तुम्हें दोष नहीं दे रहा, इस तरह की स्थिति में ऐसा हो जाया करता है। मैं तो स्थिति बता रहा था।"

पर इस संशोधन से स्थिति सँभली नहीं थी। अपने ही मन में एक कचोट थी जो हर बार किसी न किसी बात से गहरी हो जाती थी। ज़िंदगी में हर ओर से कटकर वह पूरी तरह बंटी से जा चिपकी थी। सोचा था, अपना सारा समय और सारा ध्यान वह उसी पर केंद्रित कर देगी...अपने सारे अभावों की पूर्ति उसी से करेगी। लेकिन नहीं, उसने रास्ता ही गलत चुना था, अतः उसका हर क़दम भी गलत होता चला गया।

और तब उसने एक नई जिंदगी शुरू करने का निर्णय ले डाला था। बंटी को अपने से काटकर नहीं, अपने से जोड़कर ही लिया था यह निर्णय।

गर्मियों की छुट्टियों के दो महीने...दो महीने की खिन्नता और ऊब के साथ-साथ बंटी का उन दिनों का व्यवहार। उम्र से पहले ही ओढ़ी हुई उसकी समझदारी को कितनी तकलीफ़ के साथ झेल पाती थी वह। शकुन के हर दुख को अपना दुख और उसकी हर कही-अनकही इच्छा को एक आदेश-सा बना लेने की बंटी की मजबूरी ने शकुन को अपनी ही नज़रों में अपराधी बनाकर छोड़ दिया था। दिन में दो-चार बार पापा की बात करनेवाले बच्चे ने कैसे इस शब्द को काटकर फेंक दिया था...शब्द को ही नहीं, अजय के भेजे खिलौने, उसकी तसवीर तक को अलमारी में बंद कर दिया था। बिना शकुन के चाहे या कहे भी वह उसे प्रसन्न करने का भरसक प्रयत्न करता रहा था और कैसे शकुन का कष्ट बढ़ते बढ़ते असहय-सा हो गया था...

नहीं-नहीं। यह सब अब और नहीं चलेगा, चल नहीं सकता। वे दोनों ही अब अपनी-अपनी जिंदगी जिएँगे। शकुन शकुन की और बंटी बंटी की।

और तभी से उसने अपने को धीरे-धीरे काटकर बंटी को और अधिक आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की है।

वकील चाचा ने केवल संकेत किया था और डॉक्टर ने बहुत ब्लंटली कहा, “यह तुम माँ-बेटों का चूमने-चाटने और गले में बाँहें डाल-डालकर लिपटनेवाला जो रवैया है वह अब बंद होना चाहिए। लगता है, तुम अपनी इस अर्ज को भी बंटी के साथ ही पूरा करती हो। पर अब तो सही जगह और सही ढंग..."

यों शायद बात भीतर तक बेध जाती, पर बात के अंत में जो आमंत्रण-भरा संकेत था वह शकुन को ऊपर से नीचे तक गुदगुदा गया।

तब से उसने बंटी को अपने से अलग सुलाना शुरू किया था। धीरे-धीरे वह आश्वस्त होने लगी थी कि उसने केवल अपने लिए ही नहीं, बंटी के लिए भी एक सही जिंदगी की शुरुआत कर दी है। अब बंटी को हर जगह और हर बात में पापा की कमी नहीं अखरेगी...व्यक्ति चाहे बदल जाए पर उस स्थान की पूर्ति तो हो ही जाएगी। अब वह उतना अकेला नहीं रहेगा। दो बच्चों का साथ उसे और अधिक नॉर्मल बनाएगा। ही विल ग्रो लाइक ए बॉय, लाइक ए मैन।

पर उस दिन कंपनी बाग से लौटने पर अकारण ही बंटी का रोना...उसके बाद बंटी का एक अजीब ही उखड़ा-उखड़ा और कटा-कटा-सा रवैया और आज का तूफ़ान...

क्या शकुन से फिर कहीं कोई गलती हो गई ? वह इतनी देर से बैठी किस बात का लेखा-जोखा कर रही है और क्यों ? किसलिए वह इतने तर्क पेश कर रही है ?

याद नहीं, पर किसी संदर्भ में एक बार डॉक्टर ने ही कहा था कि मनुष्य जब अपने भीतर ही भीतर बहुत गिल्टी महसूस करता है तो तर्क से वह अपने को जस्टिफ़ाई करता रहता है...अपने हर गलत काम को जस्टिफ़ाई करता रहता है। न करे तो इतना अपराध-बोध ढोकर वह जी नहीं सकता। जहाँ जस्टिफ़िकेशन है, वहाँ गिल्ट है।

तो क्या उसके अपने मन में भी कोई गिल्ट है ? इतनी देर से तर्क दे-देकर वह अपने अपराधी मन को ही समझाती रही है ? बार-बार बंटी के हित की दुहाई देकर कहीं वह अपने किसी गलत काम को ही तो सही सिद्ध नहीं कर रही ?

मन न इस बात को मानता है, न उस बात को। सही-गलत की बात भी  वह नहीं जानती, जानना भी नहीं चाहती। इस समय इतना ही काफ़ी है कि जीवन में जितना भरा-पूरा वह इन दिनों महसूस कर रही है, उसने कभी नहीं किया। बल्कि आज अगर उसे किसी बात का अफ़सोस है तो केवल इसी बात का कि यह निर्णय उसने बहुत पहले क्यों नहीं ले लिया ? क्यों नहीं वह बहुत पहले ही इस दिशा की ओर मुड़ गई ? किस उम्मीद के सहारे वह सात साल तक यों घिसटती रही ? सात साल का वह जीवन मात्र घिसटना ही तो था; घिसटना और तिल-तिल करके टूटना। एक पुरुष का साथ जिंदगी को यों भरा-पूरा बना जाता है, यह तो उसने कभी सोचा ही नहीं था...अजय के साथ रहकर भी नहीं।

आज लगता है, साथ रहना भी कितनी तरह का हो सकता है। सारी जिंदगी साथ रहकर भी आदमी कितना अकेला रह सकता है और किसी का हलका-सा स्पर्श भी कैसे जिंदगी को किसी के साथ होने के एहसास और आश्वासन से भर सकता है।

बाहर से तो कम से कम अभी तक कुछ भी नहीं बदला है। वही कॉलेज, वही घर। बंटी और फूफी भी वही है। पर भीतर से मन का कोना-कोना जैसे भर-सा गया लगता है। उस दिन डॉक्टर की दिलवाई हुई साड़ी पहनकर जब वह गाड़ी में बैठी तो डॉक्टर कुछ देर उसे देखते ही रह गए। वह देखना, केवल देखना-भर नहीं था, कुछ था जिसमें रोम-रोम जैसे भीगता-डूबता चला जा रहा था। केवल उसी समय नहीं, बहुत देर बाद तक भी।

शकुन को ख़ुद कभी-कभी आश्चर्य होता है कि उम्र के छत्तीस वर्ष पार करने पर भी उसके मन में इन सब बातों के लिए किशोर उम्रवाला उल्लास भी है और यौवनवाली उमंग भी। डॉक्टर का साथ होते ही कैसे एकांत की इच्छा हो उठती है और एकांत होते ही...

लगता है, उम्र बीत जाने से कैशोर्य और यौवन नहीं बीत जाता। ये भावनाएँ तो केवल तृप्त होकर ही मरती हैं, वरना और अधिक बलवती होकर आदमी को मारती रहती हैं।

उसकी अपेक्षा डॉक्टर के व्यवहार में एक थिरता है, एक ठहराव। और अकसर उसे लगता है, जैसे डॉक्टर ने अपनी जिंदगी से बहुत कुछ पाया है।

डॉक्टर से हुई एक बात आज भी जब-तब उसे याद आ जाती है और केवल याद ही नहीं आती, मन को कहीं हलके-से कचोट भी देती है।

बहुत दिनों से मन में घुमड़ती हुई बात आख़िर उसने पूछ ही ली थी। पूछी चाहे बहुत घुमा-फिराकर थी।

“अच्छा क्या प्रेम सचमुच ही मात्र एक शारीरिक आवश्यकता और एक सुविधाजनक एडजस्टमेंट का ही दूसरा नाम है ? बताओ, तुम्हें क्या कभी अपनी पत्नी की याद नहीं आती और आती है तो क्यों ? उसे तुम क्या कहोगे ?"

तब सचमुच उसने कहीं चाहा था कि डॉक्टर कह दे कि उसे पत्नी की याद बिलकुल नहीं आती...पत्नी के साथ ही वह सबकुछ भूल भी गया। बात चाहे झूठ ही हो, पर डॉक्टर एक झूठ ही बोल दे। हालाँकि यह सुनने की अपनी इस इच्छा पर भीतर ही भीतर कहीं ग्लानि भी हुई थी। फिर भी...

“अच्छा तो यही होता शकुन, तुम उसका ज़िक्र कभी करती ही नहीं।" डॉक्टर के स्वर की अप्रत्याशित गंभीरता से शकुन के मन में अपनी बात के लिए कहीं पछतावा-सा हुआ।

“प्रमीला के साथ का जीवन-वह जैसा भी था, अच्छा या बुरा...मेरा इतना निजी है कि मैं उसे किसी के साथ शेयर नहीं कर सकता। तुम गलत मत समझना और बुरा भी मत मानना। वह एक अध्याय था, जो उसी के साथ समाप्त हो गया और अब मैं उसे किसी के साथ खोलना नहीं चाहता। चाहूँ तो भी खोल नहीं सकता। शायद अब तो अपने सामने भी नहीं।"

फिर थोड़ा-सा मुसकराकर बोले थे, “और अब ज़रूरत भी क्या है ?" बेहद आहत होकर और भीतर तक तिलमिलाकर भी वह ऐसा अभिनय करने का असफल-सा प्रयास करती रही कि उसे डॉक्टर की बात का बिलकुल भी बुरा नहीं लगा।

साथ ही एक अजीब-सी चाह भी उठी-काश, उसके पास भी ऐसा कुछ होता जो निहायत उसका निजी होता। जिसे वह किसी के भी साथ शेयर करना पसंद न करती। जिसे अपने भीतर ही समेटे रहती...कभी-कभी झाँक-भर लेने के लिए ...पर कहीं भी तो कुछ नहीं...

इस न होने से ही वह कभी-कभी डॉक्टर के सामने अकारण ही अपने को बड़ा छोटा महसूस करने लगती है। लगता है, जैसे डॉक्टर ने स्वीकार करके उस पर बड़ी कृपा की है। छोटा बनकर जीना उसके अहं को बर्दाश्त नहीं और बड़ा होकर जीने लायक उसके पास कोई पूँजी नहीं। तब एक अजीब-सी मानसिक यातना में वह अपने को पाती है।

और फिर डॉक्टर ही उसे इस मानसिक यातना से उबारते हैं।

अब तो हर बात के लिए वह डॉक्टर पर इस कदर निर्भर करने लगी है कि लगता है, एक कदम भी डॉक्टर के बिना चल नहीं सकेगी। औरत कहीं की कहीं पहुँच जाए, फिर भी पुरुष का साथ उसके लिए कितना ज़रूरी है...पर वह साथ हो, सही अर्थों में।

नहीं, वह इस साथ के बीच में अब कोई बाधा बर्दाश्त नहीं करेगी। बंटी की भी नहीं।

कल वह डॉक्टर से ही बात करेगी। डॉक्टर की बातों में, उसके सारे व्यक्तित्व में कुछ ऐसा है जो शकुन को आश्वस्त करता है। डॉक्टर की सुलझी दृष्टि उसे बहुत-सी उलझनों से उबार लेती है।

उसके और डॉक्टर के संबंध की बात शहर के एक ख़ास तबके में फैल ही गई थी और एक दिन कॉलेज के मैनेजर ने जिस तरह आकर पूछा था तो वह समझ नहीं पाई थी कि बात केवल जानने मात्र के लिए ही पूछी जा रही है या कि जानी हुई बात को एक हलकी-सी भर्त्सना और हिकारत के साथ उस तक वापस पहुँचाया जा रहा है।

मैनेज़र को तो उसने जैसे-तैसे जवाब दे दिया था, पर अपने ही मन को जैसे वह शाम तक जवाब नहीं दे पाई थी।

शाम को जब सारी बात डॉक्टर को बताई तो जाने किस आवेश में कह गई, "ये लोग ज़्यादा धूं-चपड़ करेंगे तो मैं नौकरी ही छोड़ दूंगी। सँभालें अपनी नौकरी !"

तब उसकी बात पर डॉक्टर केवल हँसा था। कुछ ऐसे हलके-फुलके ढंग से, मानो कुछ हुआ ही न हो... “तुम नौकरी करो या छोड़ो, यह बिलकुल तुम्हारी अपनी इच्छा पर है। पर छोड़ो तो कारण यह नहीं होना चाहिए।"

डॉक्टर एक क्षण को रुका था और शकुन के मन में एक हलका-सा संदेह कौंधा था...क्या डॉक्टर नहीं चाहते कि वह नौकरी छोड़े ? उसका पैसा चाहे न हो, पर क्या उसका पद डॉक्टर के लिए...

“आज मैनेजर को आपत्ति हई तो तुमने नौकरी छोड़ दी। कल शहर को आपत्ति होगी तो तुम शहर छोड़ने को कहोगी। और ज़रूर होगी। छोटी जगह है...ऐसी बातें लोग आसानी से पचा नहीं पाते हैं। पर इस तरह कमजोर होने से कहीं काम चलता है, चल सकता है ? और सच पूछो तो आपत्ति बाहर नहीं होती है, कहीं मन के भीतर ही होती है। तभी तो हमें ये छोटी-छोटी बातें परेशान कर देती हैं। वरना इन आपत्तियों पर एक मिनट भी जाया करना मैं उचित नहीं समझता। इन लोगों को क्या हक है तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने का?"

पर बंटी ? बंटी की बात तो बिलकुल दूसरी है। और उसका हक भी बिलकुल दूसरा है।

एकाएक शकुन को लगा जैसे प्यास के मारे उसका गला सूख रहा है। सर्दी में कभी रात में प्यास नहीं लगती...पर आज तो प्यास के मारे गला जैसे चिपक-सा गया है। और इतनी देर से उसे पता ही नहीं चला।

शकुन उठी। उसने बत्ती जलाई और पानी पिया। लौटकर उसने देखा बंटी सोया हुआ है। गरदन तक रजाई ओढ़े। एकाएक उसे लगा, जैसे बंटी नहीं अजय सो रहा है। कितना मिलता है उसका चेहरा...

केवल चेहरा ही !

"बहूजी, मत चढ़ाओ इतना सिर ! आखिर औलाद तो उसी बाप की है ! वे खड़े-खड़े थालियाँ फेंकते थे और ये कटोरी..."

कभी-कभी आश्चर्य होता है कि कैसे आदमी एक छोटे-से अणु में अपना चेहरा, मोहरा, आदत, स्वभाव, संस्कार-सबकुछ अपने बच्चे में सरका देता है। बंटी को देखकर ही एक बार वकील चाचा ने कहा था।

और एक अजीब-सी बेचैनी शकुन के मन में घुलने लगी। केवल बेचैनी ही नहीं, एक खीज, एक हलका-सा आक्रोश। सारी जिंदगी अजय शकुन को, शकुन के हर काम और बात को, उसके सोचने और उसके हर रवैये को गलत ही तो सिद्ध करता रहा है। शकुन बहुत स्वतंत्र है। शकुन बहुत डॉमिनेटिंग है, शकुन यह है, शकुन वह है...पता नहीं गलत कौन था ? वह या अजय...जो भी हो, पर सात साल तक ग़लत होने के अपराध-बोध को उसने किसी न किसी स्तर पर हर दिन ही झेला है।

और अब यह बंटी...ठीक उसी तरह उसे ग़लत और अपराधी सिद्ध करने पर तुला हुआ है। और शायद सारी जिंदगी उसे ग़लत ही सिद्ध करता रहेगा। ठीक उसी तरह, जैसे...

पर नहीं, अब वह सबकुछ पहले की तरह अपने ऊपर ओढ़ती नहीं चली जाएगी।

बंटी उसके और अजय के बीच सेतु नहीं बन सका तो वह उसे अपने और डॉक्टर के बीच में बाधा भी नहीं बनने देगी। लेकिन तब ? और शकुन ने खट से बत्ती बुझा दी। मन के सारे संशय, सारी दुविधाएँ चारों ओर फैले हुए अँधेरे में ही डूब जाएँ...बस !

बंटी सवेरे सोकर उठा तो जाने कैसी निरीहता उसके चेहरे पर छाई हुई थी। एक अजीब-सा सहमापन, एक अजीब-सी बेबसी।

कहाँ, यह तो बिलकुल बंटी है। इसमें अजय कहाँ है ? हर बात के लिए उस पर निर्भर करनेवाला बंटी, उसी का पाला-पोसा और बड़ा किया हुआ बंटी ! अजय तो शकुन के सामने कभी इतना निरीह, कभी इतना बेबस हुआ नहीं। और रात में हलके-से आक्रोश की जो परतें मन पर जमी थीं, बंटी की उस निरीहता के सामने सब एक-एक करके बह गईं।

पर अब बंटी में अजय को देखकर एकाएक कुछ निर्णय ले डालने का जो एक रास्ता शकुन को दिखाई दिया था, वह फिर जैसे कहीं गुम हो गया। और शकुन जहाँ थी, वहीं लौट आई। उतनी ही परेशान, उतनी ही दुविधाग्रस्त।

अपनी परेशानी के क्षणों में आजकल उसे बस डॉक्टर ही याद आते हैं। किस सहजता और आसानी से वह उसकी हर समस्या और परेशानी को अपने ऊपर ओढ़ लेते हैं और उसे मुक्त और निर्बंद कर देते हैं, पर बंटी को लेकर...

कल चाहे शकुन को परेशान देखकर डॉक्टर ने कुछ न कहा हो, लेकिन उन्हें क्या बुरा नहीं लगेगा ? उन लोगों ने शादी की तारीख तय  की थी और उस ख़ुशी में ही शकुन ने सबको अपने घर बुलाया था, पर बंटी ने...और तब से ही मन जाने कैसी-कैसी शंकाओं से भरा हुआ है ! बंटी की बात तो डॉक्टर से भी नहीं कर सकती, जिस तरह बहुत चाहने पर भी वह कभी अजय की कोई बात नहीं कर पाई।

कंपनी बाग से लौटने के बाद उस दिन बंटी जिस तरह रोया था और उसके बाद से जिस तरह वह कटा-कटा रहता था...डॉक्टर को लेकर जिस तरह का एक मासूम-सा विरोध उसके मन में उफनता रहता है, शकुन सब समझती है। पर जाने कैसा एक आश्वस्त भाव उसके मन में समाया रहता था इन दिनों कि उसने सोच लिया था कि सब ठीक हो जाएगा। बस, जहाँ तक संभव होता वह बंटी को डॉक्टर से बचाकर रखती...पर कल जैसे उसके उस आश्वस्त भाव में एक दरार-सी पड़ गई। केवल आश्वस्त भाव में ही नहीं, जैसे उसके और डॉक्टर के बीच में भी कहीं कोई अनदेखी-अनजानी-सी दरार पड़ गई, जिसे वह महसूस कर रही है, जो उसे भीतर ही भीतर कचोटे डाल रही है।

सचमुच यदि ऐसा हुआ तो ? डॉक्टर का अध्याय तो समाप्त हुआ और ऐसी पूर्णता के साथ समाप्त हुआ कि उसे अब वह अपने सामने भी नहीं खोलते। चाहें तो भी नहीं खोल सकते। पर उसका अध्याय ? कहीं कुछ समाप्त नहीं हुआ, अपनी अगली कड़ी के साथ ज्यों का त्यों उसके साथ चिपका हुआ है। वह कभी समाप्त भी नहीं होगा।

अजय ने तो अपनी स्लेट पर से उसका नाम, उसका अस्तित्व धो-पोंछकर एक नई जिंदगी शुरू कर दी है...शायद बहुत सुखी, बहुत भरी-पूरी ! पर उसकी स्लेट को तो...

और फिर अजय को लेकर मन में ढेर-ढेर कटुता उभर आई। साथ ही ख़याल आया कि बंटी यदि सहज ढंग से अपने को उसके और डॉक्टर के बीच में से समेट नहीं लेता तो वह उसे अजय के पास भेज देगी।

अजय उसे ले जाना भी तो चाहते थे। अब क्या हुआ ? इधर तो न कोई खबर, न सूचना। लेकिन वह भेज देगी।

बंटी को दरार ही बनना है तो मीरा और अजय के बीच में बने। अजय भी तो जाने कि बच्चे को लेकर किस तरह की यातना से गुज़रना होता है...कि पुरानी स्लेट इतनी जल्दी और इतनी आसानी से साफ़ नहीं होती...

पर तभी बंटी का वही निरीह, सहमा और बेबस-सा चेहरा उभर आया। 'ममी, मैंने तो पापा से कह दिया कि ममी के बिना मैं कहीं जा ही नहीं सकता...ममी मैं तुम्हें कब्भी-कभी नहीं छोड़ेंगा...मत रोओ ममी...मत...रोओ...' और शकन रो पड़ी। फूट-फटकर रोती रही। इस यातना से डॉक्टर भी उसे कैसे उबारेंगे ? उसके पास ऐसा कोई सुख नहीं, पर ऐसी यातना ज़रूर है जिसे वह किसी के साथ शेयर नहीं कर सकती।

इस समय डॉक्टर की बगल में बैठकर भी शकुन का मन कहीं से हलका नहीं हो पा रहा है। बार-बार बात शुरू होती और जैसे बीच में ही टूट जाती है। पता नहीं डॉक्टर क्या सोच रहे हैं, पर शकुन को लग रहा है कि जैसे उन दोनों के बीच कहीं कोई है...शायद बंटी...बंटी के बहाने शायद अजय।

“क्या बात है ? तुम कुछ परेशान नज़र आ रही हो शकुन !" कह दे शकुन ? पर क्या कहे कि बंटी डॉक्टर और उसके संबंध को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है...कि उसे बहुत दिनों से इस बात का आभास था पर...

"बंटी को लेकर परेशान हो ?..."

इतनी देर से जिस प्रसंग को वह बचा रही थी, आख़िर वह आ ही गया। शकुन के चेहरे पर एक अजीब-सी बेबसी उभर आई, जैसे वह कोई अपराध करते हुए पकड़ ली गई हो।

“देखो शकुन बंटी थोड़ा प्रॉब्लम बच्चा है, तो उसकी प्रॉब्लम को तो झेलना ही होगा।"

शकुन को लगा, जैसे डॉक्टर कह रहे हों-इन्फ्लुएंजा है तो बदन में तो दर्द होगा ही। इन बातों पर कहीं इस तरह बात की जाती है ? और क्या प्रॉब्लम बच्चा है ? पागल है, उसका दिमाग खराब है या कि...

पर नहीं, डॉक्टर से वह अपेक्षा ही क्यों करती है कि उसी की तरह सदय होकर, उसकी तरह माँ बनकर बंटी के बारे में सोचें ! डॉक्टर तो शायद बाप बनकर भी नहीं सोच सकते !

“पर इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है ? यह तो बहुत स्वाभाविक है।"

“क्या ?" एकाएक शकुन चौंकी। डॉक्टर कहीं अजय की ओर तो संकेत नहीं कर रहे ? पर उसने तो आज तक डॉक्टर से कभी अजय की कोई बात नहीं की...वह कर ही नहीं पाई।

"यह बंटी का रवैया ! तुम्हारे साथ अकेले रहते-रहते वह बहुत पजेसिव हो गया है। वह किसी और को तुम्हारे साथ देख नहीं सकता...तुम किसी और को..."

और शकुन के मन में कहीं बहुत पहले कहा हुआ वकील चाचा का एक वाक्य तैर गया-'तुम जानती हो, अजय बहुत इगोइस्ट भी है और बहुत पजेसिव भी। अपने-आपको पूरी तरह समाप्त करके ही तुम उसे पा सको तो पा सको, अपने को बचाए रखकर तो उसे खोना ही पड़ेगा...

वह अपने को समाप्त नहीं कर सकी थी, इसलिए उसे अजय को खोना पड़ा। समाप्त तो वह अभी भी अपने को नहीं कर सकेगी। अब अपने को समाप्त करने का मतलब है, अपने और डॉक्टर के बीच का सबकुछ समाप्त कर देना। पर यह तो...शकुन का मन कहीं बहुत गहरे में डूबने लगा।

"तुम्हें बहुत ही धीरज से काम लेना चाहिए। जानती हो, इस तरह बच्चों के साथ सख्ती करने से वे एकदम चुप्पे हो जाएँगे, बहुत ही सबमिसिव और सहमे हुए और नरमाई से पेश आने से वे उदंड हो जाएँगे।"

डॉक्टर जैसे किसी रोगी को उपचार बता रहे हों। केवल उपचार ही था या कुछ और भी।
"बंटी में संतुलन लाने के लिए पहले तुम्हें अपने में संतुलन लाना होगा। पर तुम ख़ुद बहुत समझदार हो शकुन !"

शकुन ने कुछ ऐसी नज़रों से डॉक्टर की ओर देखा मानो इन शब्दों के भीतर की बात को जान ले, असली बात को जान ले।

पर डॉक्टर के चेहरे पर कहीं भी तो कुछ नहीं था। कोई शिकन नहीं, कोई छाया नहीं...या कि शकुन की अपनी दृष्टि ही धुंधला गई है, कुछ भी देखने की सामर्थ्य उसमें नहीं रही है।

वह क्या करे ? छलनी हुआ मन सहज भाव से कुछ भी तो ग्रहण नहीं कर पाता। उसकी आँखें छलछला आईं।

डॉक्टर ने बहुत स्नेह से शकुन की पीठ सहलाई, तो एक बार मन हुआ, वह अपने को डॉक्टर की बाँहों में छोड़ दे।

तो क्या सचमुच ही डॉक्टर के मन में बंटी को लेकर कोई नाराजगी नहीं. कोई दुर्भावना नहीं ? डॉक्टर के उस स्पर्श ने अनायास ही उसके भीतर की गाँठ को धीरे-से खोल दिया।
"लेकिन...” शकुन है कि चाहकर भी जैसे कुछ नहीं कह पा रही है।

“लेकिन क्या ?"

'तुम नहीं समझोगे डॉक्टर...बंटी, बंटी ने अजय को ज्यों का त्यों इनहेरिट किया, वह कभी मेरे साथ तुम्हें बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। मैं जानती हूँ...' शकुन को लगा, अब वह सारी दुविधा खोलकर रख देगी।

"तो क्या हुआ ?"

पर शकुन से कुछ भी नहीं कहा गया। जाने कैसी लक्ष्मण रेखा है यह अपने अहं या स्वाभिमान की या कि अपने कंगलेपन और अपमान की कि इसके पार वह किसी को नहीं आने देना चाहती। क्या बताए कि आगे क्या हो सकता है या कि पहले क्या हुआ था।

"देखो शकुन, तुम अपने पति की रोशनी में बंटी को देखोगी तो शायद कुछ गलत कर बैठो। मैं जानता नहीं, पर सोच सकता हूँ कि उनके लिए शायद तुम्हारे मन में कटुता होगी...अनजाने ही तुम उसी कटुता को...पर यह ठीक नहीं होगा।"

और फिर सारी बात को जैसे समाप्त करते हुए बोले, “अच्छा, तुम बंटी की बात मुझ पर छोड़ दो। इस बात को लेकर अब तुम्हें ज़्यादा परेशान होने की ज़रूरत नहीं है।"

बंटी की बात कैसे छोड़ी जाए, यह शकुन नहीं जानती। यह भी नहीं जानती कि सारे समय अपने काम में व्यस्त रहने पर उसके लिए समय कहाँ है। पर इस समय जैसे उसे किसी ऐसे ही आश्वासन की ज़रूरत थी, किसी ऐसे ही सहारे की, जो उसके थके-हारे मन को सँभाल ले...जिस पर वह अपना सबकुछ छोड़कर निश्चित हो जाए।

बड़ी देर से भीतर ही भीतर एक आवेग था जो घुमड़ रहा था-अपने को डॉक्टर की बाँहों में छोड़ते ही जैसे वह फूट पड़ा।

डॉक्टर उसकी पीठ, उसके कंधे सहलाते रहे...उसे सांत्वना देते रहे। क्या था उन सांत्वना-भरे शब्दों में-उस स्नेह-भरे स्पर्श में कि शकुन को लगा, जैसे उसके भीतर से सारे तनाव अपने-आप ढीले होते चले जा रहे हैं...सारे द्वंद्व अपने-आप गलते जा रहे हैं। कहीं भी तो कुछ नहीं...सभी कुछ तो सहज और सुगम हो उठा।

सारा रास्ता अकेले-अकेले चलकर, सारी परेशानियों से अकेले-अकेले लड़कर भी ऐसा आत्मविश्वास और ऐसी शक्ति तो उसने अपने भीतर कभी महसूस ही नहीं की जो आज अपने को पूरी तरह डॉक्टर के हवाले करके वह महसूस कर रही है।

अपने को पूरी तरह देकर, निर्द्वद्व भाव से समर्पित करके आदमी कितना कुछ पा लेता है।

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