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आपका बंटी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3119
आईएसबीएन :9788183618892

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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

आठ


आज रविवार का दिन है।

गीले बालों को कुर्सी की पीठ पर फैलाए ममी स्वेटर बुन रही हैं। बंटी ढेर सारे रंग और ब्रश लेकर एक चित्र बना रहा है। सवेरे के समय अब धूप में बैठना अच्छा लगने लगा है। फूफी ने सारे आँगन में चटाइयाँ डालकर दालें और गेहूँ फैला रखे हैं। फूफी को इसका ही बड़ा शौक़ है। जब देखो कोई न कोई चीज़ धूप में फैलाए रखेगी। कभी गेहूँ-दालें तो कभी गद्दे-रजाइयाँ। फूफी का बस चले तो बंटी को भी ले जाकर खड़ा कर दे... “अरे जरा घंटे-भर धूप में उलट-पलट दें, नहीं तो फफूंद आ जाएगी।"

दो-चार ब्रश मारकर बंटी एक बार ज़रूर ममी को देख लेता है। यों उसकी तरफ ममी की पीठ है, पर जब वह देखता है तो उसके सामने ममी का चेहरा ही उभरता है। मानो चेहरा पीठ पर उठ आया हो। एकदम बदला हुआ चेहरा। वह क्या जानता नहीं कि ममी कितनी बदल गई हैं इन दिनों। पर अच्छी हो गई हैं या बुरी, यह तय नहीं कर पाया। कभी-कभी देखता है तो अच्छी लगती हैं, पर फिर जाने क्या हो जाता है कि एकदम बुरी लगने लगती हैं। बुरी तो आजकल हो ही गई हैं ममी। उसे तो बहुत पहले से मालूम था कि ममी के पास अपने को बदलने का जादू है। पर कैसा है और कहाँ है, यह आज तक नहीं जान पाया। ममी के पीछे इधर-उधर काफ़ी ताक-झाँक और छान-बीन भी की। पर कुछ पता नहीं लगा। पहलेवाली ममी होती तो सीधे ममी से ही पूछ लेता, पर अब ? इनवाली ममी से कुछ पूछा जा सकता है भला ? अभी भी ममी सवेरे सामने बैठकर दूध पिलाती हैं, शाम को पढ़ाती हैं, बातें करती हैं, पर क्या वह जानता नहीं कि ममी न उसे दूध पिलाती हैं, न पढ़ाती हैं, न उससे बातें करती हैं।

वह जो स्वेटर बुन रही हैं वह भी उसके लिए नहीं बुन रहीं। डॉक्टर जोशी के लिए बुन रही हैं। जब तक डॉक्टर जोशी इस घर में नहीं आए थे ममी का हर काम, इस घर का हर काम बंटी के लिए ही होता था। अब सब कुछ डॉक्टर जोशी के लिए होने लगा है। वह सब समझता है। हो, उसका क्या जाता है।

वह तो आज अपनी ड्राइंग पूरी करेगा, खूब अच्छी बनाएगा। जब पूरी हो जाएगी तो पापा को भेजेगा। पापा को चिट्ठी भी लिखेगा। लिखेगा कि गत्ता चिपकाकर या शीशे में मढ़वाकर अपने कमरे में लगा लीजिए।

“फूफी, अब तुम बंटी को नहला दो और फिर खाना शुरू करो। बारह बजे तक खाना बन जाना चाहिए।"

फूफी कुछ जवाब ही नहीं देती। फूफी भी आजकल नाराज़ हैं ममी से। इसीलिए उसे और ज्यादा अच्छी लगने लगी है फूफी। अच्छा है, धीरे-धीरे सब नाराज़ हो जाएँगे। पर ममी को आजकल परवाह भी रह गई है किसी की। किसी दिन डॉक्टर जोशी भी नाराज़ हो जाएँगे न, तब पता लगेगा।

"बंटी, जाओ बेटे, फूफी से नहा लो !''

"नहीं, मैं अपने-आप नहाऊँगा।" कागज़ पर रबड़ घिसते हुए बंटी ने कहा।

"बेटा, इतवार के दिन फूफी से नहा लो। अपने-आप ठीक से साफ़ नहीं हुआ जाता तुमसे।"

"क्यों नहीं हुआ जाता ? खुब हुआ जाता है। मैं अपने-आप ही नहाऊँगा," ममी चाहती हैं कि बंटी नहा-धोकर तैयार हो जाए अभी से। आज डॉक्टर साहब जो आनेवाले हैं बच्चों को लेकर। वह नहीं जाता वहाँ तो ममी ने उन लोगों को यहाँ बुला लिया। बुलाएँ उसका क्या जाता है ? जोत से वह बात कर लेगा। जोत उसे अच्छी लगती है, पर वह बंदर कैसी शान लगाता है-मेरे खिलौने हैं, मेरी गाड़ी है।

"बंटी," ममी की आवाज़ की सख्ती से बंटी को भीतर ही भीतर जैसे संतोष हुआ। उसने कोई जवाब नहीं दिया। बस, चुपचाप रबड़ घिसता रहा।

"बंटी, मैं बुला रही हूँ न बेटे !"

“क्या है ? मैं ड्राइंग जो बना रहा हूँ।" बंटी टस से मस नहीं हुआ। होगा भी नहीं ! अब ममी गुस्सा होंगी। वह चाहता है कि ममी गुस्सा हों, खूब गुस्सा हों।

पर उसके बाद ममी कुछ नहीं बोलीं। मजे से बैठी बुन रही हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। जैसे बंटी बिना कुछ कहे नहाने चला गया हो। गुस्सा होनेवाले कामों पर भी ममी जब गुस्सा नहीं होतीं तो फिर बंटी को गुस्सा आने लगता है। मन होता है कुछ करे। ममी को झकझोर कर रख दे।

"ड्राइंग पीछे कर लेना, पहले नहा लो। नौ बज रहे हैं।" उसे पता ही नहीं चला और ममी बगल में आकर खड़ी हो गईं। अब ज़रूर हाथ पकड़कर उठाएँगी।

इतने में बाहर के दरवाजे पर खटखट हुई तो ममी बाहर चली गईं। छुट्टी हुई।

बाहर कौन आया है ? ममी की बात करने की आवाज़ आ रही है। बंटी भी कागज़-पेंसिल छोड़कर बाहर आ गया।

पता नहीं कौन है ? वह नहीं जानता। पर इस घर में कोई भी आए, कुछ भी हो, बंटी की जानने की इच्छा ज़रूर रहती है। बंटी वापस लौटा नहीं, वहीं अपनी मेज़ पर जाकर कुछ उलट-पुलट करने लगा।

बीच की मेज़ पर दो-तीन मोटी-मोटी किताबें रखी हैं और एक किताब ममी पलट रही हैं। दूर से ही बंटी को रंग-बिरंगी तसवीरें दिखाई दी तो वह भी चुपचाप ममी के पीछे जा खड़ा हुआ। सुंदर-सुंदर घर, घर नहीं कमरे। पलंग, सोफ़ा-सेट, ड्रेसिंग-टेबुल...रंग-बिरंगे पर्दे, कुशंस...टेबुल-लैंप...

ऐसा कमरा हो तो ?

"इस तरह की चीजें आप बना भी सकेंगे ?"

“देखिए, आज तक तो किसी को शिकायत नहीं हुई। मैं खुद क्या...काम देखकर आप ही कुछ कहिएगा..."

तो ममी ऐसी चीजें बनवा रही हैं। एक क्षण को बंटी का मन पुलक उठा। पीछे से ममी की कुर्सी के हत्थे पर आ बैठा।

“बोल तुझे कैसा सोफ़ा पसंद है, कैसे पलंग पसंद हैं ?” ममी ने मुसकराते हुए उससे पूछा तो बंटी जैसे उत्साह से भर उठा।

"ठहरो ममी, मैं सब देखकर बताता हूँ।" और वह पन्ने पलट-पलटकर हर चीज को बड़े ध्यान से देखने लगा।

“ऐसी सब चीजें हों तो घर अच्छा लगेगा न ?” ममी की इस बात से एक उल्लास-भरी मुसकान उसके चेहरे पर फैल गई। आजकल ममी ख़ुद भी तो अच्छे-अच्छे कपड़े पहनती हैं, अब घर के लिए भी अच्छा-अच्छा सामान बनवाएँगी।

कौन-सी चीज़ पसंद करे ? जो पन्ना पलटता है वही बड़ा सुंदर लगने लगता है।

"डॉक्टर साहब ने भी कुछ पसंद किया है ?"

"जी नहीं, कहा है आप ही पसंद करेंगी।"

और बंटी का सारा उत्साह जैसे ठंडा पड़ गया। यहाँ भी डॉक्टर साहब ! नहीं करता वह पसंद। डॉक्टर साहब के लिए वह कुछ भी नहीं करेगा। अब ममी ही बैठकर करें। वरना सारी किताबों में से सबसे अच्छा छाँटता।

ममी दूसरी किताब देख रही हैं। बंटी ने गुस्से में आकर किताब बंद कर दी और भीतर आ गया। मन में कहीं उम्मीद है कि आवाज़ देकर ममी बुलाएँगी, फिर से पसंद करने को कहेंगी या कि जो पसंद किया है, उसके बारे में राय लेंगी। आज तक बिना उसकी राय के कोई चीज़ ख़रीदी भी है ममी ने। पर ममी ने नहीं बुलाया तो बंटी जैसे भीतर ही भीतर सुलगने लगा। बुलातीं भी तो वह कौन जाता। वह कौन नौकर है, डॉक्टर साहब का, जो उनके घर के लिए सामान पसंद करेगा। करें ममी अपने-आप बैठकर।

बंटी ने तौलिया उठाया और नहाने घुस गया। आकर देखेंगी कि बंटी तो नहा भी लिया। अपने-आप, बिना फूफी की मदद के।

डॉक्टर साहब की गाड़ी फाटक पर आई तो ममी तेज़-तेज़ चलकर फाटक पर पहुँच गईं। वह नहीं जाएगा। ममी ने आज खुद रसोई में काम किया, पर वह एक बार भी नहीं गया। वरना वह क्या मदद नहीं करवा सकता ? फूफी की मदद तो कई बार की है।

सारा काम करने के बाद ममी ने मुँह धोया और फिर गुलाबी रंग की साड़ी पहनी। ड्रेसिंग-टेबुल के सामने बड़ी देर तक बैठकर जूड़ा बनाती रहीं। डॉक्टर साहब आते हैं तो ममी खूब सज-धजकर रहती हैं। पर ममी को पता ही नहीं कि ममी ढीली-ढीली चोटी में ही बहुत सुंदर लगती हैं। जूड़े में तो एकदम अच्छी नहीं लगतीं। बिलकुल प्रिंसिपलवाला चेहरा हो जाता है। पर वह क्यों बताए ? जूड़े में अगर बंटी गुलाब का फूल लगा दे तो फिर भी अच्छी लगने लगें। गुलाबी साड़ी के साथ गहरे रंगवाला गुलाब का फूल तो बहुत ही सुंदर लगेगा। पर वह नहीं लगाएगा। ममी अपने-आप लगाना चाहेंगी तो तोड़ने भी नहीं देगा। बगीचा उसका है। सारे पौधे, सारे फूल उसके हैं।

"हल्लो बंटी ! देखो तुम हमारे यहाँ नहीं आते तो हम सब यहाँ आ गए।" बंटी ने मशीनग्त् हाथ जोड़ दिए। पर चेहरे पर कोई भाव ही नहीं, न खुशी का न दुख का। जोत की तरफ़ देखा तो वह उसी की ओर देखकर मुसकरा रही थी। हलका नीला फ्रॉक और नीले रिबन का बड़ा-सा फूल। जोत उसे हमेशा ही अच्छी लगती है। अनायास ही उसके चेहरे पर मुसकराहट आ गई।

“जोत, बाहर जो बगीचा देखा न, वह सब बंटी का लगाया हुआ है। बड़ा होशियार है बंटी। तुम लोगों ने तो अपने घर के लॉन का बिलकुल कबाड़ा कर रखा है।"

बंटी ने एक बार उड़ती-सी नज़रों से डॉक्टर साहब की ओर देखा। क्या सचमुच ही वह उसकी तारीफ़ कर रहे हैं ? मन में कहीं हलकी-सी खुशी भी जागी पर ममी को देखो, ऐसे खुश हो रही हैं, जैसे उन्हीं की तारीफ़ हुई हो।

"मैंने गिलास में ब्लाटिंग पेपर डालकर गेहूँ बोए थे।" सबके बीच बंटी को इतना महत्त्वपूर्ण होते देख जैसे अमि यह कहने को विवश हो गया।

सब हँस पड़े। ममी ने खींचकर अमि को अपने पास ले लिया। बहुत प्यार से बोली, “मैं सिखाऊँगी तुझे फूल बोना। सीखेगा ?"

हुँह ! बड़ा सिखाएँगी। ख़ुद को भी आता है। जैसे हर कोई कर सकता है न यह काम। यह अमि कैसे लाल कपड़े पहनकर आ गया है-हनुमान कहीं का।''

और बंटी की आँखों में अमि की एक दुम और तैर गई तो उसे मन ही मन हँसी आने लगी।

ममी अमि और डॉक्टर साहब को लिए-लिए ही भीतर चली गईं। जोत बंटी के पास आ गई और उसका हाथ पकड़कर बोली, “चलो बंटी, हमको अपना बगीचा दिखाओ।"

“तुम्हें सब फूलों के नाम आते हैं ?"

“और नहीं तो क्या ?''

“सिर्फ नाम ही नहीं, सब कुछ जानना पड़ता है। बहुत सारी बातें।" बंटी के स्वर में बड़प्पन जैसे छलका पड़ रहा है।

"क्यों बंटी, तितलियाँ आती हैं इस बगीचे में ?"

“आती हैं, पर पकड़ना मत। बहुत बड़ा पाप लगता है, कालावाला।"

जमीन पर बैठकर पेंजी की क्यारी की ओर इशारा करके जोत ने पूछा, “इस फूल का क्या नाम है बंटी ?"

“हें-हें-पौधों को उँगली नहीं दिखाते कभी। उँगली दिखाने से मर जाते हैं।" फिर उसने उँगली मोड़कर पौधों की ओर इशारा करने का ढंग बताया। भीतर ही भीतर संतोष-भरा एक गर्व जागा- "बगीचे की कितनी तो बातें होती हैं, हर कोई जान सकता है भला !"

फिर आम का पौधा बताया। अलग-अलग फूलों के नाम बताए। पर जोत जैसे बहुत ज़्यादा दिलचस्पी नहीं ले रही। समझ जो नहीं रही होगी।

“चल अब भीतर चलते हैं। धूप तेज़ नहीं लग रही है ?" जोत उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी।

बंटी को अपने बगीचे में धूप कभी तेज़ नहीं लगती। गरमी के दिनों में भी नहीं लगती। सर्दी के दिनों में शाम को सर्दी नहीं लगती। ममी चिल्लाती रहती हैं और वह शाम को पानी देता रहता है। पर जोत की बात टालने की उसकी इच्छा नहीं हुई।

भीतर चलने लगे तो बंटी ने एक सफ़ेद गुलाब तोड़कर कहा, “ला, तेरे बालों में लगा दूँ।" जोत पुलक आई। उसे नीचे बिठाकर बंटी बड़े यत्न से फूल लगाने लगा।

"तू लगा सकेगा ? नहीं तो आंटी जी से लगवा लूँगी।" "ममी के भी तो मैं ही लगाया करता हूँ।" और कहने के साथ ही ख़याल आया, बहुत दिनों से उसने ममी के सिर में फूल नहीं लगाया। पर वह क्या करे ? ममी को आजकल...और एक अनमना-सा भाव उसे छूकर निकल गया।

दोनों भीतर पहुँचे। डॉक्टर साहब सोफे पर ममी की बगल में बैठे हैं एकदम सट कर। उनका एक हाथ ममी की पीठ पर से होता हुआ ममी के कंधे पर रखा है। दूसरे हाथ में वे ममी को एक सुंदर-सी शीशी सुंघा रहे हैं।

बंटी एक क्षण जहाँ का तहाँ खड़ा देखता रहा। क्या कर रहे हैं डॉक्टर साहब उसकी ममी के साथ ? उसे अजीब-सी बेचैनी होने लगी। वह एकदम ममी के पास चला गया। पर दोनों को जैसे कुछ पता नहीं।

“आह, बहुत अच्छी ख़ुशबू है।" ममी का चेहरा साड़ी के रंग जैसा ही हो गया है।

"इम्पोर्टेड है। खास तुम्हारे लिए मँगवाया है।" और डॉक्टर साहब ने शीशी अपनी उँगलियों पर उलटी और ममी की साड़ी के पल्ले पर मलने लगे।

बंटी का मन हुआ खींचकर डॉक्टर साहब को अलग कर दे। उसके भीतर कुछ खौलने लगा। तभी उसकी नज़र अमि पर पड़ी। बड़े मज़े से उसके सारे खिलौने लेकर बैठा खेल रहा है। वह दौड़कर झपटा। "किसने दिए मेरे खिलौने ?" और दोनों हाथों से ताबड़तोड़ अपने खिलौने समेटने लगा। अमि ने भी जो हाथ लगा, समेटकर अपनी गोद में दुबका लिया।

“दे मेरे खिलौने।" बंटी छीनने लगा।

ममी झपटकर आईं, “क्या कर रहा है बंटी ? खेलने दे न ! तेरा छोटा भाई ही तो है।"

“नहीं, मैं नहीं खेलने देता। कोई नहीं है मेरा छोटा-वोटा भाई।" अमि से जूझते-जूझते ही उसने जवाब दिया।

ममी ने दोनों हाथों से पकड़कर बंटी को अलग किया, “बंटी, फिर वही गंदी बात ! तेरे हैं तो क्या हुआ ? थोड़ी देर में खेलकर दे देगा।"

बंटी पूरी ताकत लगाकर अपने को ममी के हाथ से मुक्त करने की कोशिश कर रहा है। बँधे हाथ-पैरों की ताकत जैसे जीभ में आ गई। “मेरे खिलौने हैं। पापा ने मेरे लिए भेजे हैं, मैं किसी को नहीं दूंगा।" और एक झटके में ममी के हाथ से छूटकर बंटी अमि पर पिल पड़ा। पता नहीं बंटी ने मारा या केवल अपने बचाव के लिए अमि पहले चीखा और फिर रो पड़ा।

"तडाक।" बंटी के गाल पर एक चाँटा पड़ा तो सारा कमरा जैसे घूम गया। बंटी ऊपर से नीचे तक काँप गया। चोट ज़्यादा नहीं थी, पर ममी के हाथ का चाँटा और वह भी सबके बीच में...जोत और अमि के सामने ! वह रोया नहीं, पर उसकी आँखों से जैसे चिनगारियाँ निकलने लगीं।

“शकुन !” डॉक्टर साहब की सख्त-सी आवाज़ सारे कमरे में फैल गई। "तुमने बंटी को मारा क्यों ? बच्चों की लड़ाई में मारने की क्या बात हो गई ?" और डॉक्टर साहब पास आकर बंटी को गोद में उठाने लगे। पर बंटी छिटककर दूर जा खड़ा हुआ।

एक क्षण को सारे कमरे में सन्नाटा छा गया। जो जहाँ था वह जैसे वहीं जम गया। और फिर बंटी ने उठाकर खिलौने फेंकने शुरू किए...धड़ाधड़ एक-एक खिलौना कमरे में छितरा गया। किसी ने उसे रोका नहीं, किसी ने उसे कुछ कहा नहीं।

फिर उसने अपनी बंदूक उठाई और उसी गुस्से में दौड़ता हुआ बाहर आ गया। कुछ नहीं, पेड़ पर खूब-खूब ऊँचे चढ़कर बंदूक चलाएगा। आकर मना तो करें ममी। मारनेवाली ममी की बात सुनेगा अब वह ? कभी नहीं सुनेगा। ठाँय-ठाँय बंदूक की आवाज़ गूंजती रही, गूंजती रही। पर भीतर से कोई नहीं आया।

और जब भीतर से कोई नहीं आया तो बंटी को रोना आ गया। मन हुआ पेड़ पर से कूद पड़े। अपने हाथ-पाँव तोड़ ले। तब ममी को पता लगेगा कि बंटी को चाँटा मारने का क्या मतलब होता है। और उसकी अपनी ही आँखों के सामने अपना पट्टियों से बँधा शरीर घूमने लगा। वह पलंग पर कराह रहा है, सब लोग चारों ओर खड़े हैं। ममी रो रही हैं... पर कूदा नहीं गया। तभी फूफी आई। ज़रूर ममी ने ही भेजा होगा। खुद तो हिम्मत नहीं हो रही है आने की।

"बंटी भय्या, चलकर खाना खा लो।"

बंटी और ज़ोर-ज़ोर से बंदूक दागने लगा। जैसे उसने न फूफी को देखा न फूफी की बात सुनी।

“अरे काहे को तुम हमारा खून जलाते हो बंटी भय्या ! कहते हैं न उतरकर खाना खा लो ! फिर मर्जी आए बंदूक चलाना, चाहे तोप।"

"भाग जा यहाँ से, मैं नहीं खाता खाना।" ठाँय-ठाँय...

"जिस घर के लोग लीक छोड़कर चलेंगे, उसमें यही सब होगा। अभी क्या हुआ है, अभी तो बहुत कुछ होगा।" बड़बड़ाती हुई फूफी लौट गई।

अब?

और एकाएक ही बंटी फूट-फूटकर रोने लगा। कोई मत आओ उसे बुलाने। उसे भूख थोड़े ही लगती है। मरे वह भूखा ? ममी का क्या जाता है ? ममी तो डॉक्टर साहब को खाना खिलाएँगी। अमि को तो ज़रूर अपनी बगल में बिठा रखा होगा। और उस काल्पनिक दृश्य से मन और ज़्यादा-ज्यादा उफनने लगा।

पेड़ पर बैठा-बैठा बंटी रोता रहा और जब मन का सारा गुस्सा, सारा आवेग आँसुओं के रूप में बह गया तो धीरे-धीरे मन में एक अजीब-सा डर समाने लगा। ममी के गुस्से का डर। इस तरह तो उसने आज तक कभी नहीं किया। ममी ज़रूर गुस्सा होंगी। होंगी नहीं, हैं। तभी तो एक बार भी नहीं आईं, किसी और को भी नहीं आने दिया।

गुस्सा, दुख, अपमान, भूख और डर ने मिलकर बंटी को भीतर से बिलकुल थका दिया। थक ही नहीं गया जैसे भीतर से कहीं बिलकुल सुन्न हो गया। अब तो न गुस्सा आ रहा है न रोना। बस, बार-बार दरवाज़े की ओर देख लेता है...शायद कोई आ जाए, अब भी कोई आ जाए। अगर जोत भी आकर उससे चलने को कहेगी तो वह चला जाएगा।

पर कोई नहीं आया। लगता है, सब लोगों ने खाना खा लिया है। उसका किसी को ख़याल भी नहीं आया ? ममी को भी नहीं ? एक बार आँखें फिर छलछला आईं।

धीरे-धीरे वह नीचे उतरा। एक बार फाटक पर गया। सड़क पर दोपहर का सन्नाटा था। मन हुआ फाटक खोलकर निकल जाए और दौड़ता चला जाए, दौड़ता चला जाए...पर कहाँ ? इन सड़कों का कहीं अंत भी है ? ये उसे कहाँ ले जाएँगी ?

और इस 'कहाँ' से हारकर वह चुपचाप लौट आया और जब कुछ भी समझ में नहीं आया तो आकर घास पर लेट गया। जब तक कोई बुलाएगा नहीं, भीतर तो वह जाएगा ही नहीं।

पता नहीं कब तक वह आधी सोती आधी जागती स्थिति में पड़ा रहा कि अचानक ही भीतर से सब लोग एक साथ ही आते दिखाई दिए। उसने झट-से आँखें मूंद लीं। धीरे-धीरे पैरों की आवाजें पास आ रही हैं। पर शायद कोई कुछ बोल नहीं रहा। हो सकता है, उसे इस तरह यहाँ पड़ा देखकर उसके पास आएँ, उसे उठाएँ। वह तो चुपचाप आँखें बंद किए पड़ा रहेगा, बस जैसे सो गया हो।

कई जोड़ी पैरों की मिली-जुली आहट सरकते-सरकते पास आई, पर बिना एक क्षण भी कहीं रुके बराबर दूर होती चली गई। शायद सब लोग फाटक पर पहुँच गए। फटाक-फटाक गाड़ी के दरवाजे बंद हुए और घर्र करती गाड़ी चली गई। अजीब बात है, चलते समय कोई किसी से बात नहीं कर रहा। डॉक्टर साहब भी नहीं बोले ? हर आहट को वह केवल सुन ही नहीं रहा, देख भी रहा है।

चर्र-मर्र...फिर एक आहट, बड़ी परिचित आहट उसके पास चली आ रही है। बंटी को अपनी साँस जैसे रुकती हुई महसूस हुई। लगा आहट पास आएगी तब तक उसकी साँस पूरी रुक जाएगी...आहट बिना उसके पास आए ही भीतर चली गई, तब भी उसकी साँस रुक जाएगी।

किसी ने झुककर उसे धीरे-से झकझोरा-“बंटी...बंटी ?' बंटी चुप।

तब दो बाँहों ने उसे अपने में समेटा। बिना ज़रा भी विरोध किए वह इस प्रकार से सिमट गया मानो बड़ी देर से इसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। एक बार मन हुआ कि गले में बाँहें डालकर चिपट जाए, पर हिलना तो दूर साँस लेने की हिम्मत नहीं है इस समय उसमें।

फिर गद्दे की नरमाई और कंबल की गरमाई में उसका भूखा-थका शरीर डूबता चला गया, डूबता चला गया और उसे ख़ुद पता नहीं चला कि वह कब पूरी तरह डूब गया।

मेज के एक ओर ममी बैठी हैं और सामने की कुर्सी पर बंटी। बीच में प्लास्टिक के सुंदर डिब्बे में वह शीशी रखी है, जो डॉक्टर साहब लाए थे। जादुई शीशी। डॉक्टर साहब का ममी को सुँघाना...साड़ी पर मलना...और फिर तड़ाक...याद नहीं, इसके पहले ममी ने कब मारा था, कभी मारा भी था या नहीं-एक अजीब-सा डर है जो उसके शरीर और मन को जकड़ता जा रहा है।

"बंटी, अब तुम यही सब करोगे ?" ममी की आवाज़ पता नहीं कहाँ से आ रही है।

“आज जो कुछ तुमने किया, वह बहुत अच्छा था न ? कोई घर में आए तो यही सब करना चाहिए ?"

बंटी चुप है। लगा शीशी जैसे मेज़ पर हिलने लगी है।

"इतने साल में मैंने तुझे यही सिखाया है ? यही अक्ल और यही तमीज़ ! जोत को देखा ? कैसा सलीका और तमीज है। जबकि उनको देखने-भालनेवाली माँ नहीं है। मैंने तो नौ साल तक तेरे साथ झक मारी है। घूमना-फिरना, मिलनाजुलना, सब कुछ छोड़ दिया था, सिर्फ इसलिए कि तू कुछ बन जाए..." आवेश के मारे ममी का स्वर ही नहीं, सारा शरीर भी जैसे थरथरा रहा है।

“पर आज चार लोगों के सामने मेरे मुँह पर जूता मारकर तूने बता दिया कि तू क्या बना है और मैं तुझे क्या बना सकी हूँ।" और ममी का स्वर बिखर गया।

बंटी का अपना मन कहीं गहरे में डूबता जा रहा है।

"तू यह सब क्यों करता है बंटी ? मत कर, ऐसे मत कर बेटे..." और ममी फूट-फूटकर रो पड़ीं। जैसे उस दिन रोई थीं... ठीक उसी तरह।

बंटी का मन हो रहा है कि वह दौड़कर ममी से लिपट जाए। रोए, चीखे। पर एकाएक शीशी ने जैसे उसे बुरी तरह दबोच लिया और चीख़ जैसे भीतर ही भीतर घुटकर रह गई।

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