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आपका बंटी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3119
आईएसबीएन :9788183618892

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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

सात


बंटी का स्कूल क्या खुला, उसका बचपन लौट आया।

लंबी छुट्टियों के बाद पहले दिन स्कूल जाना कभी अच्छा नहीं लगता। पर आज लग रहा है। अच्छा ही नहीं, खूब अच्छा लग रहा है। सवेरे उठा तो केवल हवा में ही ताज़गी नहीं थी, उसका अपना मन जाने कैसी ताज़गी से भरा-भरा थिरक रहा था।

'ममी, मेरे मोजे कहाँ हैं...लो दूध लाकर रख दिया। पहले कपड़े तो पहन लूँ, देर नहीं हो जाएगी...बैग तो ले जाना ही है, किताबें जो मिलेंगी' के शोर से तीनों कमरे गूंज रहे हैं।

बहुत दिनों से जो बच्चा घर से गायब था जैसे आज अचानक लौट आया हो।

जल्दी-जल्दी तैयार होकर उसने बस्ता उठाया। बस्ता भी क्या, एक कापी-पेंसिल डाल ली। कौन आज पढ़ाई होनी है ! बस के लिए सड़क पार करके वह कॉलेज के फाटक पर खड़ा हो गया। ममी उसे घर के फाटक तक छोड़कर वापस लौट रही हैं। बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़कर ममी अंदर गुम हो गईं तो सामने केवल घर रह गया। छोटा-सा बँगलानुमा घर जो उसका अपना घर है, जो उसे बहुत अच्छा लगता है।

और एकाएक ही खयाल आया, इसी घर में पता नहीं क्या कुछ घट गया है इन छुट्टियों में। उसने जल्दी से नज़रें हटा लीं। तभी दूर से धूल उड़ाती हुई बस आती दिखाई दी। बंटी ने खट से बस्ता उठाया और बस के रुकते ही लपककर उसमें चढ़ गया। दौड़ता हुआ टीटू चला आ रहा है, लेट-लतीफ।

'बंटी, इधर आ जा, यहाँ जगह है।" जगह बहुत सारी थी, पर कैलाश ने एक ओर सरककर उसके लिए खास जगह बनाई।

'बंटी यार, इधर ! इधर आकर बैठ।" विभू उसे अपनी ओर खींच रहा है। बंटी अपने को बड़ा महत्त्वपूर्ण महसूस करने लगा। और बैठते ही उसका अपना चेहरा बच्चों के परिचित, उत्फुल्ल चेहरों के बीच मिल गया।

बस चली तो सबके बीच हँसते-बतियाते उसे ऐसा लगा जैसे सारे दिन खूब सारी पढ़ाई करके घर की ओर लौट रहा है। तभी ख़याल आया-धत्, वह तो स्कूल जा रहा है।

बस, जैसे भाजी-मार्केट। बातें...बातें। कौन कहाँ-कहाँ गया ? किसने क्या-क्या देखा ? छुट्टियों में कैसे-कैसे मौज उड़ाई। अनंत विषय थे और सबके पास कहने के लिए कुछ न कुछ था।

बंटी क्या कहे ? वह खिड़की से बाहर देखने लगा। शायद कोई उससे भी पूछ रहा है। हुँह ! कुछ नहीं कहना उसे।

“मेरे मामा आए थे एक साइकिल दिला गए दो पहिएवाली !"

“हम तो दिल्ली में कुतुबमीनार देखकर आए..."

तब न चाहते हुए भी मन में कहीं पापा, पापा का मैकेनो, कलकत्ता, कलकत्ते का काल्पनिक चित्र उभर ही आए।

"क्यों रे बंटी, तू कहीं नहीं गया इस बार ? पिछली बार तो मसूरी घूमकर आया था।"

“नहीं।" बंटी ने धीरे-से कहा।

“सारी छुट्टियाँ यहीं रहा ?"

"हाँ। ममी ने खस के पर्दे लगा-लगाकर सारा घर खूब ठंडा कर दिया था। मसूरी से भी ज़्यादा। बस फिर क्या था।"

और खस के उन पर्दो की ठंडक, जिसने शरीर से ज्यादा मन को ठंडा कर रखा था, फिर मन में उतर आई।

बंटी फिर बाहर देखने लगा। पर बाहर सड़कें, सड़कों पर चलते हुए लोगों के बीच कभी वकील चाचा दिखाई देते तो कभी ममी का उदास चेहरा। कभी पापा दिखाई देते तो कभी भन्नाती हुई फूफी।

कितनी बातें हैं उसके पास भी कहने के लिए, पर क्या वह सब कही जा सकती हैं ? मान लो वह किसी को बता भी दे तो कोई समझ सकता है ? एकदम बड़ी बातें। यह तो वह है जो एकाएक समझदार बन गया। ये विभू, कैलाश, दीपक, टामी...कोई समझ तो ले देखें।

पर अपनी इस समझदारी पर उसका अपना ही मन जाने कैसा भारी-भारी हो रहा है।

बस जब स्कूल के फाटक पर आकर रुकी तो एक-दूसरे को ठेलते-ढकेलते बच्चे नीचे उतरने लगे। नीचे खड़े सर बोले-“धीरे बच्चो, धीरे ! तुम तो बिलकुल पिंजरे में से छूटे जानवरों की तरह..."

तो बंटी को लगा जैसे वह सचमुच ही किसी पिंजरे में से निकलकर आया है। बहुत दिनों बाद ! सामने स्कूल का लंबा-चौड़ा मैदान दिखाई दिया तो हिरन की तरह चौकड़ी भरता हुआ दौड़ गया। गरमियों का सूखा-रेतीला मैदान इस समय हरी-हरी घास के कारण बड़ा नरम और मुलायम हो रहा है, जैसे एकदम नया हो गया हो।

नई क्लास, नई किताबें, नई कापियाँ, नए-नए सर...इतने सारे नयों के बीच बंटी जैसे कहीं से नया हो आया। नया और प्रसन्न। हर किसी के पास दोस्तों को दिखाने के लिए नई-नई चीजें हैं। जैसे ही घंटा बजता और नए सर आते, उसके बीच में खटाखट चीजें निकल आतीं। प्लास्टिक के पजल्स, तसवीरोंवाली डायरी, तीन रंगों की डाट-पेंसिल...और 'ज़रा दिखा तो यार' – 'बस, एक मिनट के लिए' का शोर यहाँ से वहाँ तक तैर जाता।

“मेरे पास बहुत बड़ावाला मैकेनो है। इतना बड़ा कि स्कूल तो आ ही नहीं सकता। कलकत्ते से आया है। कोई भी घर आए तो वह दिखा सकता है।"

एक क्षण को उँगलियाँ एक-दूसरी पर चढ़ीं और फिर झट से हट भी गईं। हुँह, कुछ नहीं होता। कोई पाप-वाप नहीं लगता। कोई उसके घर आएगा तो वह ज़रूर बताएगा मैकेनो। सब लोग अपनी चीज़ों को दिखा-दिखाकर कैसा इतरा रहे हैं, शान लगा रहे हैं और वह बात भी नहीं करे।

"विभू, तू शाम को आ जा अपने भैया के साथ। बहुत चीजें बनती हैं उसकी-पुल, सिगनल, पनचक्की, क्रेन..."

ख़याल आया, उसने भी तो अभी तक सब कुछ बनाकर नहीं देखा। विभू आ जाए तो फिर दोनों मिलकर बनाएँगे। और विभू नहीं भी आया तो वह खुद बनाएगा। यह भी कोई बात हुई भला !

स्कूल की बातों से भरा-भरा बंटी घर लौटा। खाली बस्ता भी नई-नई किताबों से भर गया था।

ममी अभी कॉलेज में हैं। उसके आने के एक घंटे बाद घर आती हैं। बंटी दौड़कर फूफी को ही पकड़ लाया।

“अच्छा, एक बार इस बस्ते को तो उठाकर देखो।"

“क्या है बस्ते में ?"

“उठाकर तो देखो।'' एकदम ललकारते हुए बंटी ने कहा।

फूफी ने बस्ता उठाया, “एल्लो, इतना भारी बस्ता ! ये अब तुम इत्ता बोझा ढो-ढोकर ले जाया करोगे ? तुमसे ज्यादा वज़न तो तुम्हारे बस्ते में ही है।"

बंटी के चेहरे पर संतोष और गर्व-भरी मुसकान फैल गई। “चलो हटो।" और फिर खट से बस्ता उठाकर, सैनिक की मुद्रा में चार-छह कदम चला और फिर बोला, “रोज़ ले जाना पड़ेगा। अभी तो ये बाहर और पड़ी हैं। चौथी क्लास की पढ़ाई क्या यों ही हो जाती है ? बहुत किताब पढ़नी पड़ती हैं।" फिर एक-एक किताब निकालकर दिखाने लगा।

“यह हिस्ट्री की है। कब कौन-सा राजा हआ, किसने कितनी लडाइयाँ लड़ीं, सब पढ़ना पड़ेगा। समझी ! और हिस्ट्री के राजा कहानियों के राजा नहीं होते हैं, झूठ-मूठवाले। एकदम सच्ची-मुच्ची के, राजा भी सच, लड़ाइयाँ भी सच...और यह ज्योग्रफ़ी है...यह जनरल साइंस...यह एटलस है। हिंदुस्तान का नक्शा पहचान सकती हो ? लो, अपने देश को भी नहीं पहचानती ! देखो, यह सारी दुनिया का नशा है...इसमें जो यह ज़रा-सा दिख रहा है न, यही हिंदुस्तान है। इसी हिंदुस्तान में अपना शहर है और फिर उस शहर में अपना घर है और फिर उस घर में अपनी रसोई है और फिर उस रसोई में एक फूफी है...हा-हा...” बंटी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।

बंटी को यों हँसते देख, फूफी एकटक उसका चेहरा देखने लगी, कुछ इस भाव से जैसे बहत दिनों बाद बंटी को देख रही हो। फिर गद्गद स्वर में बोली, “हाँ भय्या, मेरी तो रसोई ही मेरा देश है। और देश-दूष मैं नहीं जानती। हुए होंगे राजा-महाराजा, मेरा तो बंटी भय्या ही राजा है।"

"बुद्ध कहीं की ! देख, यह डिक्शनरी है। शब्द-अर्थ समझती है ? किसी शब्द का अर्थ नहीं आए तो इसमें देख लो। चौथी क्लास में एटलस और डिक्शनरी भी रखनी पड़ती है।"

“अब इस बूढ़े तोते के दिमाग में कुछ नहीं घुसता भय्या, तुम काहे मगज़ मार रहे हो। चलो हाथ-मुँह धोकर कुछ खा-पी लो। मुँह तो देखो, भूख और गरमी के मारे चिड़िया जैसा निकल आया है।"

बंटी खाता जा रहा है और उसका उपदेश चालू है। “तुम कहती थीं न फूफी कि रात-दिन भगवान करते हैं। पानी भगवान बरसाता है। सब झूठ। जनरल साइंस की किताब में सारी सही बात लिखी हुई है। अभी पढ़ी नहीं है। जब पढ़ लूँगा तो सब तुम्हें बताऊँगा।"

“तो हम कौन इसकूल में पढ़े बंटी भय्या ! बस, अब तुमसे पढ़ेंगे। इंगरेज़ी भी पढ़ाओगे हमें..."

बंटी फिर खीं...खीं...करके हँस पड़ा। फूफी और अंग्रेजी। और फिर फफी जितना भी बातें करती रही, बंटी हँसता रहा...खिल-खिलाकर। फूफी उसे देखती रही गद्गद होकर।

जब ममी आईं तो बंटी ने वे ही सारी बातें दोहराईं। उतने ही उत्साह और जोश के साथ। स्कूल में क्या-क्या हुआ ? नए सर कैसे-कैसे हैं ? “जो सर क्लास टीचर बने हैं न ममी, उनकी मूंछे ऐसी अकड़कर खड़ी रहती हैं जैसे उनमें कलफ लगा दिया हो। मैंने उनकी शक्ल बनाई और लंच में दिखाई तो सब खूब हँसे, बड़ा मज़ा आया। तुम्हें बताऊँ ममी ?"

विभू ने दिल्ली में जाकर क्या-क्या देखा ? ममी उसे कब ले जाकर दिखाएगी और फिर उसी झोंक में कह गया, “मैंने सबको अपने मैकेनो के बारे में बता दिया। यदि शाम को विभू आया तो उसे दिखाऊँगा भी..." फिर एक क्षण को ममी की ओर देखा, ममी वैसे ही मंद-मंद मुसकरा रही हैं। कुछ भी नहीं, वह बेकार डरता रहा इतने दिनों। खेलने से क्या होता है भला !

“ममी, अब अपना काम सुन लो।" आवाज़ में आदेश भरा हुआ है। “आज ही सारी किताबों और कापियों पर कवर चढ़ जाना चाहिए, ब्राउनवाला। नहीं तो कल सज़ा मिलेगी, हाँ। तुम सब काम छोड़कर पहले मेरे कवर चढ़ा देना। फिर सफ़ेद लेवल काटकर चिपकाने होंगे। उन पर नाम और क्लास लिखना होगा। खूब सुंदरवाली राइटिंग में जमा-जमाकर लिखना, समझीं।"

और फिर उसी उत्साह और जोश में भरा-भरा वह टीटू के यहाँ दौड़ गया। आज जाने कितनी बातें हैं उसके पास करने के लिए। टीटू को कौन-कौन से सर पढ़ाएँगे...उसे कौन-कौन-सी किताबें मिली हैं।

बंटी टीटू के यहाँ से लौटा तो अँधेरा हो चुका था। हाथ में पेड़ की एक टूटी हुई टहनी है, जिससे वह हवा में तलवार चला रहा है। फूफी आँगन में लेटी-लेटी पंखा झल रही है, “यह बरसात की गरमी तो मार के रख देती है आदमी को। हवा का नाम नहीं है कहीं-एक बार ज़ोर से बरसे तो..."

"बरसो राम धड़ाके से, फूफी मर गई फाके से..."

"हाँ, अब तुम हमें मारोगे ही तो।"

“ममी !" बिना कुछ भी सुने-बोले बंटी अपनी ही धुन में भीतर आया तो देखा मेज़ पर सारी किताबें-कापियाँ ज्यों की त्यों पड़ी हैं, बिना कवर के। खाली बस्ता मेज़ के नीचे पड़ा है।

“ममी !'' बंटी लॉन की ओर दौड़ पड़ा। लॉन में ममी डॉक्टर साहब के साथ बैठी हैं। बीच की मेज़ पर चाय के खाली बरतन रखे हैं। दनदनाता हुआ बंटी आया। "मेरे कवर नहीं चढ़ाए ममी ?"

"बंटी, नमस्ते करो डॉक्टर साहब को।" ममी ने उसकी बात का जवाब न देकर अपनी बात कही तो बंटी भन्ना गया। दोनों हाथ कुछ इस तरह जोड़े मानो कह रहा हो-जान बख्शो।

“तुमने मेरे कवर क्यों नहीं चढ़ाए, कल सज़ा नहीं मिलेगी मुझे ?"

“अरे बंटी, बड़े नाराज़ हो रहे हो बेटे ! क्या बात है ?"

'हाँ. हो रहे हैं नाराज, आपका क्या जाता है ? जब देखो तब आकर बैठ जाएँगे या ममी को ले जाएँगे। बड़ी अपनी मोटर की शान लगाते हैं। अब आकर बैठ गए तो ममी कवर नहीं चढ़ा सकीं न ? और ममी कह नहीं सकती थीं कि उन्हें बंटी का काम करना है। अब उन दोनों का क्या जाएगा, सज़ा तो उसे मिलेगी' वह मन ही मन भनभनाने लगा।

बिना एक शब्द भी बोले बंटी ने हाथ पकड़कर ममी को खींचा, “तुम चलकर पहले कवर चढ़ाओ। एकदम उठो।" डॉक्टर साहब की तरफ उसने देखा भी नहीं।

"बंटी, क्या कर रहे हो बेटा ? इतने बड़े होकर इस तरह करते हैं ! तू तो बहुत समझदार है..."

पर बंटी हाथ खींचता ही रहा। कोई समझदार-वमझदार नहीं है। पहले तो कोई उसका काम मत करो और फिर कह दो समझदार हैं...

"चलो न ! इतनी देर तो हो गई। फिर कब चढ़ाओगी ?" बंटी रोने-रोने को हो आया।

“मैंने कहा न मैं चढ़ा दूंगी।" ममी जैसे झुंझला आई थीं। उन्होंने अपना हाथ खींच लिया।

एकाएक डॉक्टर साहब उठ खड़े हुए, “चलो, तुम बंटी का काम करो। मैं तो वैसे भी चलने ही वाला था। साढ़े आठ बजे, एक जगह पहुँचना भी है।"

सब लोग ममी को आप-आप कहकर बोलते हैं और ये कैसे तुम कह रहे हैं। इतना भी नहीं मालूम कि ममी प्रिंसिपल हैं। प्रिंसिपल को आप कहा जाता है कि नहीं।

ममी ने एक-दो बार ठहरने का आग्रह किया। पर वे चल पड़े। ममी उन्हें छोड़ने के लिए मोटर तक गईं।

बंटी जानता है कि ममी आते ही उसे डाँटेंगी-ऐसे बोलते हो, ऐसे करते हो...तमीज़ कब आएगी-वह आजकल कुछ कहता नहीं तो ममी ने उसकी बात सुनना ही छोड़ दिया। न कभी साथ लेकर जाती हैं, न कहानी सुनाती हैं-पहले की तरह उसके साथ खेलती भी नहीं। पर ये सारे के सारे तर्क मिलकर भी, उसके अपने ही मन में अभी की हुई बदतमीज़ी को कम नहीं कर पा रहे थे।

जैसे ही ममी लौटकर आई, बंटी ने रोना शुरू कर दिया। ज़ोर-ज़ोर से"इतनी देर तो हो गई, अब कब चढ़ेंगे कवर ?” दोषी ममी को ही बनाकर रखना है।

"चल, कवर चढ़ाती हूँ।" इसके अलावा ममी ने एक शब्द भी नहीं कहा तो बंटी को ख़ुद एक अजीब तरह की बेचैनी होने लगी। डाँट खानेवाले काम पर भी ममी का यों चुप रह जाना उसे डाँट से भी ज़्यादा कष्ट देने लगा। डाँट देतीं तो उनकी डाँट से उसकी सारी बदतमीज़ी कट जाती, हिसाब बराबर पर अब तो सारा दोष जैसे उसी के सिर।

कुछ गलत कर डालने के बोझ से दबा-दबा, सहमा-सा वह भीतर आया। ममी ने सारी कापियाँ-किताबें नीचे उतारी और बोलीं, “ला ब्राउन पेपर कहाँ है ?"

"मेरे पास कहाँ है ब्राउन पेपर ?"

“तब कैसे चढ़ाऊँगी कवर ?” और ममी हाथ पर हाथ धरकर बैठ गईं।

"मैं क्या जानूँ ? तुम्हें मँगवाकर नहीं रखना चाहिए था, मैंने तो आते ही कह दिया था बस !"

बंटी को जैसे अपने व्यवहार के लिए फिर एक सहारा मिल गया और मन में फिर ढेर-ढेर सारा गुस्सा उफनने लगा।

ममी चुप।

“तुम्हें मेरी बिलकुल परवाह नहीं रह गई है। मत करो मेरा कोई भी काम। बस, डॉक्टर साहब के पास बैठकर चाय पियो। तुम्हारा क्या है, सज़ा तो मुझे मिलेगी। मैं अब स्कूल ही नहीं जाऊँगा, कभी नहीं जाऊँगा, कभी भी..." और बंटी फूट-फूटकर रोने लगा।

ममी ने पकड़कर उसे अपनी ओर खींचा, “पागल हो गया है। एक दिन कवर नहीं चढ़ेंगे तो क्या हो गया ? कोई सज़ा नहीं मिलेगी, मैं चिट्ठी लिख दूँगी सर के नाम, चुप हो जा..."

“नहीं, मैं कोई चिट्ठी-विट्ठी नहीं ले जाऊँगा। मैं स्कूल भी नहीं जाऊँगा...गंदी कहीं की...” और कहने के साथ ही बंटी ने ममी की ओर देखा-लो, अब डाँटो, मुद्रा में।

पर फिर भी ममी ने नहीं डाँटा। बस, ममी समझाती रहीं और बंटी उफन-उफनकर रोता रहा। उसे ख़ुद लग रहा है कि यह रोना केवल कवर न चढ़ने का रोना नहीं है। पता नहीं क्या है कि उसे फूट-फूटकर रोना आ रहा है। बहुत दिनों से जैसे मन में कुछ जमा हुआ था, जो एक हलके से झटके से बह आया।

बेबस और अपराधी-सी ममी हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं और ज़मीन में पसरकर, पैर फैला-फैलाकर बंटी रो रहा है-मत करो मेरा काम...घूमने जाओ...बातें करो...मैं भी सारे दिन टीटू के यहाँ रहूँगा...पेड़ पर चढूँगा..बिलकुल नहीं पढूंगा... "

आँसुओं से सारा चेहरा भीग गया था पर वेग था कि थामे नहीं थम रहा था।

फूफी आई और हाथ पकड़कर उठाने लगी तो बंटी ने हाथ झटक दिया, “मत उठाओ मुझे, रोने दो बस..."

“कइसा ख़ुश-खुश आया था बच्चा स्कूल से। बहुत दिनों बाद तो चेहरे पर ऐसी हँसी देखी थी...आने के बाद दस बार तो कहा था कि कागद चढ़ा देना, पर आपको तो आजकल..." ममी की तरफ़ नज़र पड़ते ही फूफी का उलाहना अधूरा रह गया और बात जहाँ की तहाँ टूट गई।

बंटी रोता रहा, फूफी समझाती रही, और ममी चुप-चुप बैठी दोनों को देखती रहीं। ममी समझा भी सकती थीं, पर समझाया नहीं। डाँट भी सकती थीं, पर डाँटा भी नहीं। और ममी का यों चुप-चुप बैठना ही बंटी को और रुला रहा था।

एकाएक जैसे कुछ ख़याल आया हो। ममी उठीं। दराज़ में से चाबियों का गुच्छा निकाला और फूफी को देते हुए बोली, “फूफी, कॉलेज के चपरासी से कहना, स्टील की अलमारी में कुछ भूरे कागज़ होंगे, निकालकर दे दे।"

और जब काग़ज़ आ गए और ममी उसी तरह चुपचाप चढ़ाने लगी तो ममी का सारा दोष जैसे बंटी के अपने सिर पर आ चढ़ा। कम से कम बंटी को ऐसा महसूस हुआ। ममी से नज़रें बचाए-बचाए वह खुद भी चढ़ाने में मदद करने लगा। बीच-बीच में छिपकर ममी की ओर देख भी लेता। ममी नाराज हैं ? पर कुछ भी तो पता नहीं लगता। आजकल ममी की कोई भी बात तो समझ में नहीं आती। पहले ममी का चेहरा, ममी की आँखें देखकर ही ममी के मन की बात जान लेता था, ममी की ख़ुशी, ममी की उदासी, ममी की नाराज़गी सब उसे पता था। पर अब ?

"तू जाकर खाना खा ले और सो जा। फिर सवेरे उठा नहीं जाएगा।"

"तुम भी तो चलकर खाना खाओ।" स्वर में कहीं क्षमा माँगने का-सा भाव उभर आया।

ममी ने एक क्षण को उसकी ओर देखा, फिर धीरे-से बोली, “नहीं, मैं बाद में खा लूँगी।"

एक क्षण को बंटी दुविधा में रहा, उठे या नहीं। फिर धीरे-से उठ गया। कम से कम इस समय वह ममी की किसी भी बात का विरोध नहीं करेगा।

जाते-जाते बोला, “सफ़ेद लेबिल चिपकाकर नाम भी लिखने हैं।"

"हाँ-हाँ, मैं सब कर दूँगी। तू जाकर सो जा।"

खाना खाकर बंटी बाहर आया तो लगा जैसे भीतर बैठा था तो एक बोझ-सा उस पर लदा था। पता नहीं वह बोझ कवर न चढ़ने का था कि ममी के नाराज़ होने का था या कि अपने ही व्यवहार का था। जो भी हो, बाहर आते ही वह बहुत हलका हो आया और बिस्तर पर लेटते ही सो गया।

सवेरे उठकर बंटी भीतर आया तो देखा सारी किताबें-कापियाँ जमी हुई रखी हैं। कवर चढ़ी हुईं, लेबिल लगी हुईं। सब पर सुंदर अक्षरों में उसका नाम और क्लास लिखा हुआ है...उसने सबको छूकर देखा, हाथ फेरकर। और मन पुलक आया। पर साथ ही एक क्षण को मन में कल का सब कुछ तैर गया। जैसे भी होगा ममी को खुश करेगा। वह दौड़कर आँगन में आया। ममी बैठी अखबार पढ़ रही हैं। गले में हाथ डालकर वह झूल गया। ममी मेरी...उसकी समझ में नहीं आ रहा था कैसे अपनी ख़ुशी जाहिर करे, कैसे ममी का गुस्सा दूर करे। और जब कुछ भी समझ में नहीं आया तो ममी के गाल पर एक किस्सू दे दिया।

ममी ने खींचकर उसे अपने सामने किया। उसके दोनों कंधों पर हाथ रखे उसे देखती रहीं। बस, देखती रहीं। न कुछ कहा, न प्यार दिया। क्या था उन नज़रों में ? गुस्सा, फटकार, प्यार, ख़ुशी-बंटी कुछ भी तो नहीं समझ पाया।

"जा, जल्दी से जाकर तैयार हो जा। देर नहीं हो जाएगी स्कूल में ?" ममी ने बिना एक बार भी प्यार किए उसे भगा दिया।

तैयार होते-होते बंटी के दिमाग में यही एक बात घूमती रही। ममी ने उसे एक बार भी प्यार नहीं किया। पहले कभी वह ममी के गाल पर किस्सू देता तो फिर ममी बदले में ढेर सारे किस्सू देतीं...बाँहों में भरकर खूब-खूब प्यार करतीं। ममी क्या उससे नाराज़ हैं ?

नहीं, नाराज़ भी तो नहीं लगतीं। पता नहीं ममी बदल ही गई हैं। पहले की तरह तो बिलकुल ही नहीं रहीं।

और थोड़ी देर पहले की अपराध भावना और पश्चाताप फिर गुस्से में घुलने लगा। पर इस बार का गुस्सा ममी की जगह डॉक्टर जोशी के लिए था। क्यों आते हैं यहाँ इतना ?

बंटी बडी ख़शी-खुशी तैयार हो रहा है। आज कितने दिनों बाद ममी ने उसे बाहर ले जाने के लिए कहा है। कॉलेज से आते ही बोली, "बंटी, तैयार हो जाना, आज घूमने चलेंगे।" तो एक क्षण को तो वह ममी को ऐसे देखता रहा, मानो विश्वास ही नहीं हो रहा हो। इधर तो ममी ने एक तरह से उसे घुमाना ही छोड़ दिया। कभी-कभी जाती हैं तो अकेले। उससे पूछती तक नहीं। बस कह देती हैं, मैं जा रही हूँ। ऐसा करना चाहिए ममी को ? उसका क्या है, मत पूछो ! वह भी टीटू के यहाँ खेलने चला जाता है, फूफी को लेकर कुन्नी के यहाँ चला जाता है। अपने खिलौने निकाल लेता है, पापावाले।

“ऐसे क्या देख रहा है ? बता तो कहाँ चलेगा आज ?"

“कंपनी बाग ?"

“क्या पहनेगा ? अच्छे-से कपड़े निकाल ले।" ममी बहुत खुश लग रही हैं आज। आजकल पहले की तरह उदास तो नहीं ही रहतीं।

वह ख़ुद तैयार हो गया, अब ममी का तैयार होना देख रहा है। एक-एक शीशी खुलती है और चेहरे पर चढ़ती हर परत के साथ ममी का चेहरा जैसे नया होता जा रहा है। पाउडर की सफ़ेदी और होंठों की लाली के बीच में ठुड्डी का तिल कैसा चमक रहा है। एकाएक मन हो आया, ममी का तिल छू ले। कितने दिनों से उसने ममी का तिल ही नहीं छुआ। सजती हुई ममी उसे सुंदर लग रही हैं, पर हिम्मत नहीं हो रही कि पास जाए, पता नहीं, आजकल उसके और ममी के बीच कुछ हो गया है।
   
आज वह ममी के साथ खूब घूमेगा, खूब खेलेगा। ममी को खूब हँसाएगा भी। फिर रात में बिना कहे ही ममी के पलंग में घुस जाएगा और उनके तिल पर हाथ फेरकर कहानी सुनेगा। बस, एक भी बहाना नहीं सुनेगा।

ममी ने अलमारी खोलकर एक डिब्बा निकाला और उसमें से बैंगनी रंग की साड़ी निकालकर पहनने लगीं। सुंदर और एकदम नई।

"यह कौन-सी साड़ी है ममी ?” ममी की एक-एक चीज़ से वह बहुत परिचित है।

“है एक, नई है।"

"कब लाईं, मुझे नहीं बताई ?” शिकायत के स्वर में बंटी ने कहा।

ममी का साडी बाँधता हाथ रुक गया। कुछ क्षण को उनकी नजरें बंटी के चेहरे पर टिक गईं। ममी कभी-कभी उसकी तरफ़ इस तरह देखती हैं कि लगता है मानो उसको नहीं देख रहीं, उसके चेहरे में कुछ और देख रही हों। फिर हँसकर बोलीं, “मैं जो कुछ करूँ, तुझे बताना ज़रूरी है ? तू तो अभी से अपने..." और वे फिर साड़ी बाँधने लगीं।

मत बताओ, मेरा क्या है ? मैं भी कोई चीज़ लाऊँगा तो नहीं बताऊँगा-कुछ भी करूँगा तो नहीं बताऊँगा। नहीं बताना कोई अच्छी बात है ?

तभी बाहर गाड़ी का हार्न भी सुनाई दिया। लो, ये डॉक्टर साहब आ गए तो अब ममी जाएँगी भी नहीं। मना तो करें अब, वह भी...

"चल, तू जाकर बैठ, मैं अभी आई।"

"हम क्या डॉक्टर साहब के साथ जाएँगे ?' बंटी का सारा उत्साह ही जैसे मर गया।

“और क्या, उनकी गाड़ी में ही तो चलना है।" ममी ने जल्दी-जल्दी दराजें और अलमारी बंद कीं। एक क्षण को बंटी का मन हुआ कि मना कर दे। पर गाड़ी में घूमने का लालच भी कम नहीं था।

डॉक्टर साहब ने अपनी बगलवाली सीट का फाटक खोला तो ममी ने भीतर बैठते हुए कहा, “तू पीछे बैठ जा।"

“इसे भी आगे ही ले लो। दोनों बैठ सकोगे।"

पर ममी ने पीछे का फाटक खोलकर कहा, "नहीं, यह पीछे बैठ जाएगा आराम से, आगे मेरी साड़ी मुड़ जाएगी।"

बिना एक भी शब्द बोले अपमानित-सा बंटी चुपचाप पीछे बैठ गया। उसका क्या है, आगे बिठाओ, पीछे बिठाओ या घर ही छोड़ जाओ। नई साड़ी पहनकर कैसा इतरा रही हैं ममी। अब तो दोनों बैठ गए, ये डॉक्टर साहब गाड़ी क्यों नहीं स्टार्ट कर रहे हैं ? एकटक ममी को ही देख रहे हैं, जैसे कभी देखा ही न हो।

"चलिए न !” बंटी से और ज़्यादा देर तक चुप नहीं रहा गया।

“अच्छा बंटी बेटे, आज का प्रोग्राम सिर्फ तुम्हारे लिए है। बोलो तो कहाँ चलना पसंद करोगे ?''

डॉक्टर साहब का यों पूछना बंटी को अच्छा लगा।

"कंपनी बाग की फरमाइश की है बंटी ने। पहले बच्चों को ले लीजिए, फिर वहीं चलते हैं।" ममी के कहते ही डॉक्टर साहब ने 'ओ. के.' कहा और कार चला दी।

बंटी मन ही मन जैसे भुन गया। धत्तेरे की। यह भी कोई घूमना हुआ। ममी खुद तो अकेले-अकेले घूमती हैं डॉक्टर साहब के साथ, पर आज उसे घुमाने की बात कही तो सबको बटोर लो। फिर क्यों झूठ-मूठ कहती हैं कि चल तुझे घुमा लाते हैं। यों कहो न सबको घुमाना है। कौन-से बच्चे हैं ?

और मन में पापा के साथ घूमनेवाला दिन तैर गया। बिलकुल अकेले। “बंटी बेटा, आज तुम्हें अपने बच्चों से मिलाएँगे। हमारे यहाँ एक दीदी है, जोत दीदी-एक छोटा भय्या है अमि। दीदी बहुत सीधी और समझदार हैं और अमित बहुत शैतान। एकदम पाजी ! शैतानी करे तो तुम कान खींच देना उसके..."

ममी हँस क्यों रही हैं ? यह भी कोई हँसने की बात है। कोई चुटकुला सुनाया है डॉक्टर साहब ने ?

गाड़ी जब कोठी के सामने रुकी तो बंटी ने उड़ती-सी नज़र डाली। खूब बड़ी है कोठी, पर बगीचा नदारद। बस सामने अहाता-सा है। न घास, न पौधे।

डॉक्टर साहब उतरकर भीतर चले गए तो ममी ने बताया, “यही है डॉक्टर साहब की कोठी।" और फिर उसका चेहरा देखने लगीं।

दरवाज़े में घुसते ही बाईं ओर एक छोटा-सा मकान जैसा बना है, जिस पर बड़ा-सा बोर्ड लगा है, हर जगह दिखाई देनेवाला बोर्ड, 'लाल तिकोन। दो या तीन बच्चे बस।

"यह क्या है ममी ?"

"डॉक्टर साहब की डिस्पेंसरी। सवेरे डॉक्टर साहब यहाँ बीमारों को देखते हैं।"

"आंटी," हलका नीला फ्रॉक पहने एक लड़की दौड़ती चली आ रही है और पीछे-पीछे एक लड़का। दोनों के चेहरों पर खुशी जैसे छलकी पड़ रही है।

तो ममी इन बच्चों को भी जानती हैं, बस वही नहीं जानता।

“देखो जोत, यह है बंटी ! आज तुम लोगों की दोस्ती करवा देते हैं। फिर कभी तुम इसके पास आ जाना, कभी यह तुम्हारे पास आ जाएगा।"

जोत उसे देख रही है, पर वह जैसे अपने में ही सिमटता जा रहा है। “मैं खिड़की के पास बैलूंगा।" अमि ने आते ही घोषणा कर दी और पीछे का फाटक खोलकर वह बड़े अधिकार भाव से भीतर बैठ गया। बंटी को लगा अपनी चीज़ होने पर ही ऐसा अधिकार भाव आ सकता है। वह चुपचाप एक ओर को सरक गया। दूसरे फाटक से जोत घुसी तो वह बीच में सरक गया।

बीच में बैठना भी कोई बैठना होता है ? अब कुछ देख सकता है वह ? दूसरों की गाड़ी में वह कहे भी क्या ? पर ममी तो कह सकती थीं कि दोनों में से कोई एक बीच में बैठ जाए और बंटी को खिड़की पर बैठने दे। वे तो बंटी को घुमाने लाई थीं। झूठ ! उसे नहीं करनी दोस्ती किसी से। आगे से वह कभी आएगा भी नहीं इनके साथ। डॉक्टर साहब, ममी आगे की खिड़कियों पर बैठे हैं और जोत और अमित पीछे की खिड़कियों पर। बस वही फालतू-सा बीच में बैठा है।

घास पर ममी और डॉक्टर साहब अपने-अपने रूमाल बिछाकर बैठ गए, “जाओ, खेलो अब तुम लोग। रेस लगाओ या कुछ और।" अमि तो बिना किसी की राह देखे ही दौड़ भी गया। जोत इधर-उधर देख रही है। वह नहीं खेलेगा। बस यहीं बैठा रहेगा। ये ममी इतना सटकर क्यों बैठी हैं डॉक्टर साहब से। ऐसे तो कभी ममी किसी के साथ नहीं बैठतीं। बंटी को बहुत अजीब लग रहा है। अजीब और बहुत खराब भी। वह दोनों के बीच घुसता हुआ बोला, "मैं नहीं खेलूँगा ममी, मन नहीं हो रहा है।"

"ले, यहाँ खेलने आया है कि बैठने। पागल कहीं का, चल दौड़ लगा। जोत, इसे ले जाओ तो अपने साथ।" ममी ने एक तरह से उसे ठेल दिया। जोत उसका हाथ पकड़कर खींचने लगी तो मजबूरन उसे उठना पड़ा।

पर बंटी न खेला, न दौड़ा। बस ममी के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटता रहा।

ज़रा-सी दूर जाता भी तो मुड़-मुड़कर ममी की ओर देखता रहता। ममी को इस तरह देखकर अजीब-सी बेचैनी हो रही थी उसे। थोड़ी देर में वह फिर ममी के पास आकर ही बैठ गया।

“इट सीम्स, ही हसबैंड्स यू टू मच !'' डॉक्टर ने कहा तो ममी हँसने लगीं।

हाँ, हसबैंड की बात कर रहे हैं और ममी हँस रही हैं। पहले पापा की बात करने से कैसी उदास हो जाया करती थीं। और ऐसे सबसे करनी चाहिए पापा की बात ? ऐसे हँसना चाहिए ? वह तो अपने दोस्तों के सामने भी कभी नहीं करता। जाने क्यों बंटी का मन गुस्से में सुलगने लगा।

उसके बाद आइसक्रीम खाई, चाट खाई। ममी और डॉक्टर साहब हँस-हँसकर बातें करते रहे। अमि शोर मचाता रहा, अधिकारपूर्ण स्वर में फरमाइशें करता रहा-पापा ये लेंगे, वो लेंगे ? जोत कभी ममी से बात करती, कभी डॉक्टर साहब से। बस केवल बंटी था जो चुप था, सबसे अलग और सबसे अकेला। एक ममी ही तो उसकी थीं, पर वे भी उन्हीं लोगों में जाकर मिल गईं।

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