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आपका बंटी

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3119
आईएसबीएन :9788183618892

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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...

छः


ममी का रोना बंटी को एकाएक बड़ा बना गया। बड़ा और समझदार। ममी की पापा से लड़ाई हो गई है, पक्कीवाली ! दोस्ती तो अब हो ही नहीं सकती। ममी ने खुद उसे बताया। बिलकुल ऐसे, जैसे बड़ों को बताया जाता है। साथ ही यह भी कि अब ममी के लिए जो भी है, बंटी ही है।

और ममी के एकमात्र सहारे बंटी के ऊपर जैसे हज़ार-हज़ार ज़िम्मेदारियाँ आ गई हैं ममी को प्रसन्न रखने की। हर काम में ममी की मदद करने की। कोई भी ऐसा काम न करने की, जिससे ममी दुखी और परेशान हों। वह सब करेगा, करता भी है। पर बस, न चाहते हुए भी पापा की याद उसे आ जाती है। लेकिन नहीं, अब वह उनके दिए हुए खिलौनों से नहीं खेलता। कभी उनकी बात भी नहीं करता। ममी को शायद अच्छा न लगे। रैक पर रखी हुई पापा की एकमात्र तसवीर को भी उसने एक दिन चुपचाप उठाकर खिलौनों की अलमारी में बंद कर दिया-ममी से लड़ाई कर ली तो अब बैठो यहाँ, और क्या ? सारे दिन ममी को उदास रखनेवाले, रुलानेवाले पापा की यही सज़ा है, बस ! और उसे लगा जैसे ममी की ओर से उसने पापा के ख़िलाफ़ एक बहुत बड़ा क़दम उठाया है।

ममी ने खाली रैक देखा और बंटी को देखने लगीं। एकटक। वह नीचे नज़रें झुकाए खड़ा रहा। पता नहीं कहीं नाराज़ ही न हो जाएँ। पर ममी ने उसे पकड़कर अपने पास खींच लिया। फिर प्यार किया। बहुत हलके मुसकराईं भी, शायद उसकी समझदारी पर। पर न जाने क्यों उनकी आँखें नहीं मुसकरा पाईं, बल्कि उदास हो गईं। बिना आँसू के भी जैसे रोई-रोई हो जाया करती हैं, वैसी ही। तब वह एक क्षण को समझ ही नहीं पाया कि उसने ठीक किया है या गलत। तसवीर हटने से ममी खुश हैं या उदास। क्योंकि ममी के होंठ तो मुसकराए पर आँखें उदास हो गईं।

कोई बात नहीं, धीरे-धीरे वह इन बातों को भी समझ लेगा। जितनी समझ आ गई है, वही क्या कम है ?

बाहर निकलकर आम के पौधों को देखता-बस कुल दो नई पत्तियाँ, कुल चार पत्तियाँ, और लगता, वह तो उसके मुकाबले में बहुत-बहुत बड़ा हो गया है।

माली दादा कहते थे तुम्हारे साथ-साथ बड़ा होगा। कैसे होगा मेरे साथ-साथ बड़ा ? कोई आसान है इतनी जल्दी-जल्दी बड़ा होना, कोई हो सकता है ?

पापा ने इस बार उसे चिट्ठी लिखने को कहा था। पर उसने नहीं लिखी। लिखना तो खूब अच्छी तरह जानता है, लिख भी सकता है। पापा से कहा भी था कि अब वह ज़रूर बराबर चिट्ठियाँ लिखा करेगा। पर तब वह सारी बात समझता कहाँ था ? तब तो उसे यह भी नहीं मालूम था कि ममी-पापा की पक्कीवाली कुट्टी हो गई है। पर अब कैसे लिख सकता है भला ! वह पूरी तरह ममी की तरफ़ है और ममी से उनकी कुट्टी है तो फिर बंटी से भी है। ऐसा ही तो होता है।

फिर भी जब ममी इधर-उधर होती हैं तो वह चुपचाप अलमारी खोलकर उस किताब को निकालकर देखता है, जिसके पीछे के कवर पर पापा अपना पता लिख गए थे। अब तो उसे मुँहज़बानी याद भी हो गया है-8ए, एलगिन रोड। पता पढ़ने के साथ ही उसके मन में पापा के घर के नक़्शे उभरने लगते हैं, खूब-खूब ऊँचा मकान। एलगिन रोड के नक़्शे उभरते हैं, कलकत्ते के नक्शे उभरते हैं-हावड़ा ब्रिज, जू, लेक्स, बोटेनिकल गार्डेस, बिना तने का खूब बड़ा-सा बड़ का पेड़। पी.सी. सरकार का जादू-और फिर इन सबको दबोचती हुई, कुचलती हुई समझदारी उभरती है कि नहीं, उसे इन सबके बारे में सोचना भी नहीं है। पर इन सबको कुचलने के साथ उसके भीतर जाने क्या कुछ कुचलता रहता है। तब वह अपने-आपसे प्रॉमिस करता कि कभी भी पापा की बात नहीं सोचेगा। मन ही मन किए हुए प्रॉमिस पर जब पूरी तरह भरोसा नहीं हो पाता तब ज़ोर-ज़ोर से बोलकर प्रॉमिस करता है। अपनी ही आवाज़ सुनकर उसके भीतर एक नया आत्मविश्वास जागता।

ममी आजकल पहले की तरह सारे दिन उदास नहीं रहतीं। वह बहुत अच्छा बन गया है शायद इसीलिए। वह बड़ा होकर और भी अच्छा बन जाएगा तो फिर बहुत खुश रहने लगेंगी। आजकल शाम को कभी-कभी बाहर भी जाती हैं। वह कभी मना नहीं करता। पूरी तरह आश्वस्त कर देता है, “ममी जाओ, मैं पीछे पढूंगा। फूफी से खाना लेकर खा लूँगा। बिलकुल भी तंग नहीं करूँगा।" फिर ममी उससे पूछतीं, “अच्छा बता तो बंटी, कौन-सी साड़ी पहनूँ ?" तब बिलकुल बड़ों की तरह वह सलाह देता। बिना सोचे-समझे नहीं, सारी साड़ियाँ देखकर, खूब सोच-समझकर।

और ममी जब वही साड़ी पहन लेतीं तो फिर अपनी ही नज़रों में वह बहुत महत्त्वपूर्ण हो उठता। मन में कहीं ममी की मदद करने का संतोष भर जाता।

फिर जब ममी उसकी ओर देखती हैं तो उनकी आँखों से कैसा प्यार झरता रहता है।

वह ममी को जाने के लिए कह तो देता है पर ममी जब चली जाती हैं तो घर जैसे और भी ज्यादा खाली-खाली हो जाता है। सारे दिन बोर होते बंटी की बोरियत और ज़्यादा बढ़ जाती है। स्कूल खुला होता तो समझदार बनकर रहना कितना सरल हो जाता। आधा दिन स्कूल में कट जाता, आधा दिन समझदार होकर रह लिए। अब छुट्टियों में सारे दिन क्या करे वह ? आखिर पढे भी कब तक ? कभी फूफी से बतियाता रहता, कभी टीटू के घर चला जाता। या फिर घर के लोहे के फाटक पर झूलता या खड़ा-खड़ा सड़क ही देखता रहता। पर सड़क भी तो ऐसी है कि बहुत कम लोग इधर आते-जाते हैं। शहर से कटी-छंटी, बिलकुल एक तरफ़ को है वह जगह। थोड़ी दूर और आगे तो बस्ती बिलकुल ही ख़त्म हो जाती है। बस, सड़क बनी हुई है और दोनों ओर के दूर-दूर तक फैले ऊबड़-खाबड़ मैदान। और फिर उन मैदानों की सरहदें बनाती हुई पहाड़ियाँ। खड़ा वह फाटक पर रहता है पर मन उसका दूर-दूर दौड़ता रहता है। इन पहाड़ियों के पार क्या होगा, फिर उसके आगे क्या होगा, फिर उसके भी आगे ? मन में तरह-तरह के चित्र उभरते हैं, डरावने भी और रंगीन भी। राक्षसों की डरावनी गुफाएँ, परियों के सोने-चाँदी के महल।

और फिर इन सबके बीच में से उभर आता है-कलकत्ता किस तरफ़ होगा ? कितनी दूर होगा यहाँ से ?

तब खट से उँगलियों का क्रास बन जाता। प्रॉमिस टूटने का पाप न लगे!

ममी की बगल में लेटा बंटी आसमान देख रहा है। झिलमिल-झिलमिल करते तारे छिटके हैं आसमान में। सप्तऋषि मंडल है, वह आकाश-गंगा है, वह तेज़-तेज़ चमकनेवाला ध्रुवतारा है। इस तारे को दिखा-दिखाकर ही तो ममी ने उसे बालक ध्रुव की कहानी सुनाई थी।

पाँच साल के बच्चे ने तपस्या की थी। इतनी सारी तपस्या कि भगवान भी खुश हो गए।

कैसे करते होंगे तपस्या ? उसने ममी के पास सरककर पूछा, “ममी, तपस्या कैसे करते हैं ?"

“तपस्या ? क्यों ?"

"बताओ न ममी, मैं जो पूछ रहा हूँ।"

"अपने मन को मार लो, बस यही सबसे बड़ी तपस्या है।" ममी ने जैसे टालने के लिए कह दिया।

"बालक ध्रुव ने तो जंगल में जाकर तपस्या की थी, न ?”

“की होगी रे !" और ममी ने तकिए में इस तरह मुँह गड़ा लिया जैसे वे अब और बात नहीं करना चाहती हों।

मन को मारना भी तपस्या करना हो सकता है क्या ? मन तो आजकल वह भी कितना मारता है अपना, तो क्या वह भी तपस्या कर रहा है ? एक अजीब-सी पुलक उसके मन में जागी। एक अजीब-सा आत्मविश्वास। कौन ख़ुश होगा उसकी तपस्या से ? भगवान...पापा...

खट से उँगलियों का क्रास बन गया। पर नहीं, वह पापा को याद थोड़े ही कर रहा है। वह तो केवल सोच रहा है कि ख़ुश होकर पापा फिर से उनके साथ रहने लग जाएँ तो ? यह तो ममी की बात हुई, ममी की ख़ुशी की। इससे प्रॉमिस थोड़े ही टूटेगा। मन को तसल्ली हुई।

ममी से पूछे ? पर नहीं, ऐसी बात भी ममी से नहीं पूछनी चाहिए।

हूँऽ। न हों पापा खुश। वह ममी को ही ख़ुश करेगा। खुश नहीं, सुखी करेगा। उसके सिवाए ममी का है ही कौन ? उसने ममी की ओर देखा। ममी ने तकिए में मुँह गड़ा रखा है। सचमुच उसकी ममी दुखी हैं।

जब भी वह ममी को लेकर आगे की बात सोचता, उसे हमेशा लगता जैसे ममी पर दुख ही दुख टूटे पड़ रहे हैं और वह अपने नन्हे-नन्हे हाथों से उन्हें दूर किए जा रहा है। कैसे दुख हैं सो नहीं जानता। उन्हें कैसे दूर कर रहा है यह भी नहीं जानता। बस, ममी दुखी हैं वह ममी का अकेला बेटा उन्हें दूर कर रहा है।

कई बार मन होता ममी को यह बात बताए। पर कैसे ? अच्छा, क्या तपस्या से पक्की कुट्टी को ख़त्म नहीं किया जा सकता ?

“ममी ?” उसने धीरे से पूछा।

"ममी, तपस्या करके ममी-पापा की कुट्टी नहीं ख़त्म की जा सकती ?"

ममी ने सिर उठाया और एक क्षण उसका चेहरा देखती रहीं। फिर बाँह में भरकर उसे अपने में भींच लिया।

पापा की बात करके गलती तो नहीं कर दी उसने ?

"तू पापा के साथ रहना चाहता है ?"

"नहीं ममी, मैं पापा के साथ नहीं रहना चाहता। मैं तो.."

बंटी ने इस तरह कहा जैसे ममी कहीं उसे ग़लत न समझ लें।

"क्यों बेटा, तुझे पापा चाहिए ? मन करता है कि पापा हों।"

बंटी एक क्षण असमंजस में रहा। हाँ कहने से कहीं ममी नाराज़ न हो जाएँ।

पर झूठ बोलने से तपस्या जो बिगड़ जाएगी। उसने धीरे से 'हाँ' कह दिया।

ममी उसके बाल सहलाती रहीं। पता नहीं उसमें ‘पापा मिल जाएँगे' का आश्वासन था या 'पापा तो नहीं मिल सकते' की मजबूरी।

आज ममी का कॉलेज खुल गया। ममी ख़ुश-खुश कॉलेज चली गईं। उनकी तो बोरियत जैसे ख़त्म हुई। गरमी की छुट्टियों के ये लंबे-लंबे दिन दोनों ने एक-दूसरे को सहारा दे-देकर ही काटे हैं। सारे दिन ममी के साथ ही रहता था।

हाँ, कभी-कभी जब शाम को ममी बाहर जाती तो वह ज़रूर थोड़ी देर अकेला हो जाया करता था। पर आज तो जैसे दिन भी उसे अकेले ही काटना है। उसका स्कूल खुलने में तो अभी चार दिन बाकी हैं।

चलने से पहले ममी ने फूफी को समझाया, “चार बजे के करीब सब लोग चाय पीने यहीं आएंगी। दही-पकौड़ी और आलू की टिकिया तुम घर में बना लेना। चिवड़ा और मिठाई मैं चपरासी के हाथ भिजवा दूंगी। मदद की ज़रूरत हो तो उसे रोक भी लेना। चार बजे तक सब कुछ तैयार रहे हॉऽ!"

"मैं सब देख लूँगा ममी, तुम जाओ। चपरासी क्या करेगा, मैं मदद करवा दूँगा फूफी की।"

“मेरा राजा बेटा !" ममी ने प्यार से गाल थपथपाया और चली गईं।

"बताओ फूफी, क्या करना है ?"

“एल्ले, अभी से क्या करना है ? कुछ नहीं, जाओ खेलो ! घर तो साफ़ कर लूँ पहले।"

ममी की टीचर्स की पार्टी है। 'आज तो उसे बहुत काम करना है' के भाव से बंटी सफ़ाई में जुट गया। कपड़ा लेकर टेबुल-कुर्सी पोंछ डाली। अपनी बुद्धि के हिसाब से जितनी साज-सज्जा कर सकता था, वह भी कर दी।

"अरे, तुम इतने समझदार कइसे हो गए, बंटी भय्या ! आजकल न जिद करते, न झगड़ा करते, न रोते। कहाँ से आ गई इतनी अक्किल तुम में ?"

“आएगी क्यों नहीं ? अब क्या मैं बच्चा हूँ ?" अपनी समझदारी का ठप्पा पड़ते देख बंटी कहीं भीतर ही भीतर पुलकित हो आया। मन हुआ फूफी को तपस्यावाली बात भी बता दे। यों भी फूफी उसके अकेलेपन की साथी है। वह उससे लड़ता भी है, उसे तंग भी करता है, उस पर रौब भी जमाता है। ज़मीन में चॉक या कोयले से शतरंज बनाकर चंगा-अंटा-पौ भी खेलता है। तो कभी उसकी गोद में सिर रखकर कहानियाँ सुनता है। फिर एक कहानी के साथ हज़ार प्रश्न।

तब फूफी बिगड़ पड़ती, “तुम इतनी बहस काहे करते हो ? कहानी है सो है। बिना बोले सुनोगे तो सुनाएँगे, हाँऽ ! खाली हुँकारा दो, बस !"

"अच्छा फूफी, बालक ध्रुव ने जो तपस्या की थी..."

"ल्लो, फिर तुम्हारा कहानी-किस्सा शुरू हुआ। हम एक बात भी नहीं करेंगे इस बखत।"

फूफी चली गई। बुद्ध कहीं की। सोच रही है, मैं ध्रुव की कहानी सुनूँगा, जैसे मुझे आती ही नहीं है।

बंटी अपनी छोटी-छोटी हथेलियों में उबले हुए आलू की गोल-गोल टिकिया बनाता जा रहा है। जैसी फूफी ने बताई ठीक वैसी ही। और कहानी चल रही है। वही सोनल रानी वाली।

रानी हँसे तो फूल झरे और रोए तो मोती झरे। राजा रानी के पीछे प्राण दे। रानी अपने हाथ से सोने के बरक में लपेटकर राजा को छप्पन मसालोंवाला, सुगंध से भरपूर पान खिलाती और मंद-मंद मुसकाती। मुसकान ऐसी कि राजा पागल। राजा के बीस रानियाँ और थीं। बीस रानियों के सौ बच्चे। सोनल बच्चों के पीछे प्राण देती। बच्चे खाएँ तो रानी खाए। बच्चे सोएँ तो रानी सोए। बच्चों का सिर दुखे तो रानी पीर से छटपटाए। बच्चों के चोट लगे तो रानी के फूल जैसे शरीर से खून झरे। कोई नहीं पतियाये तो आकर देख ले। माएँ लोगों ने बहुत देखीं पर ऐसी माँ तो देखी न सुनी। अपने और सौतेले बच्चों में कोई भेद ही नहीं। देखते-सुनते भी कैसे ? कोई सचमुच की औरत तो थी नहीं। डायन थी, सारे जादू बस में कर रखे थे। जैसा चाहती वैसा स्वाँग धर लेती।

“और जब अमावस्या के दिन रात अँधेरी घुप्प हो जाती तो वह अपने असली रूप में आती। काली भूत। अँधेरे में ऐसी घुल-मिल जाती कि पता ही नहीं लगता। फिर सबको जादू के बस में किया और एक बच्चा हड़प।"

बंटी की साँस जहाँ की तहाँ रुक जाती।

सवेरे मरे बच्चे की हड्डियों से चिपट-चिपटकर ऐसा रोती, ऐसा रोती कि चेत ही नहीं रहता। नौकर-चाकर दौड़ पड़ते। कोई गुलाब-जल छिड़कता, कोई केवड़ाजल। राजा खुद फूलों के पंखे से हौले-हौले बयार करते, बेटे का गम भूल, रानी की चिंता में परेशान हो जाते। रानी होश में आती तो चीखती, ‘मेरे बच्चे को लाओ...नहीं मैं प्राण दे दूंगी।' इतना बड़ा राज्य, इतना बड़ा राजा फिर भी कोई पता ही नहीं...

“वह अपने बच्चों को भी खा जाती थी फूफी ?” उस डायन के आतंक से पूरी तरह आतंकित बंटी बड़ी-बड़ी आँखें करके पूछता।

"और क्या ! डायन बनने के बाद क्या उसे होश रहता कि किसका बच्चा है ? बस भूख लगी, खाओ !"

"भूख लगे तो बच्चे को ही खा जाओ !"...उस मरे बच्चे के प्रति मन कैसा भीग-भीग आता बंटी का।

"भूख में आदमी तक को होश नहीं रहता-बस खाने को चाहिए, जो भी हो, जैसे भी हो, फिर वह तो डायन थी ! अपनी भूख की चिंता करती या बच्चों की ?"

"तो वह और किसी को खा लेती, नौकर-चाकरों या जानवरों को खा लेती।"

“काहे खा लेती ? बच्चों के कोमल मांस जैसा और कहाँ मिलता !"

"तो कभी दूसरे बच्चों को क्यों नहीं खाती, केवल राजकुमारों को ही क्यों खाती ?"

“खाएगी क्यों नहीं ? छप्पन भोग खाए राजकुमारों की देही में जैसा मांस, वैसा और कहाँ मिलता!”

"तो धीरे-धीरे राजा के सब बच्चे खा गई ?'

“और क्या, खा गई। सुंदर कोमल बच्चे हड्डी की ठठरियाँ बन गए। बस उन ठठरियों को देख-देखकर रोने का नाटक करती रहती..."

घिन और डर के मिले-जुले भाव से बंटी की आँखों में आँसू आ जाते। फूफी ने देखा तो प्यार से झिड़कते हुए बोली, “ऐल्लो, तुम आँसू टपकाने लगे। अरे ये तो क़िस्सा-कहानी है। कहीं सच में ऐसा थोड़े ही होता है। सब झूठ, मनगढंत ! इन बातों से कहीं रोया जाता है, सुनो और भूल जाओ। नहीं हम आगे से कभी नहीं सुनाएँगे। हाँ।"

और उसने झट दूसरी कहानी शुरू कर दी-चार मों की। तो थोड़ी देर में ही बंटी खिलखिलाने लगा।

दौड़-दौड़कर बंटी ने मेज़ लगा दी और खड़ा होकर ममी की राह देखने लगा। अपनी सारी टीचर्स को लिए ममी आ रही हैं, हँसती हुईं, बतियाती हुईं। दीपा आंटी तो सबके बीच जैसे छिप ही गईं।

"कहो बंटी, कैसे हो?"

"हैलो बंटी, कैसे हो ?' कइयों ने एक साथ पूछा।

“पहले से लंबा हो गया।" तो बंटी ने जैसे मन ही मन उसे सुधारा, "लंबा नहीं, बड़ा हो गया हूँ।"

"थोड़े मोटे भी होओ, वरना सींकिया पहलवान लगोगे।"

"बंटी ने मौका ताका और दीपा आंटी की बाँह से झूल गया। ममी की सारी टीचर्स में एक यही तो पसंद है, बाकी तो सब बेकार।

आप छुट्टियों में एक बार भी घर क्यों नहीं आईं आंटी ?

"छुट्टियों में हम यहाँ थे ही नहीं, बताओ कैसे आते ? हर साल बंटी बाहर जाता था, इस बार हम बाहर चले गए।"

घसीटता हुआ वह दीपा आंटी को लॉन की तरफ़ ले गया अपने पौधे दिखाने के लिए।

“कहाँ गई थीं आप ?"

"कलकत्ता।"

कलकत्ता ? बंटी जैसे एक क्षण को पुलक आया। एक उड़ती-सी नज़र ममी की ओर डाली। वे सबको लिए बरामदे की सीढ़ियाँ चढ़ रही थीं।

“आपने क्या-क्या देखा वहाँ ? कैसा है कलकत्ता, आंटी ?"

"बहुत बड़ा और बहुत गंदा।"

"एलगिन रोड देखी आपने ?"

"नहीं तो !"

“लीजिए, एलगिन रोड भी नहीं देखी ?"

"मैं क्या वहाँ सड़कें देखने गई थी ? क्या है एलगिन रोड में ?"

“कुछ नहीं, वैसे ही पूछ लिया था।" बंटी पापा की बात नहीं बताएगा। किसी को बताना भी नहीं चाहिए उसे। अब तो वह सब समझता है।

दीपा आंटी अंदर जाने लगी तो उसने जल्दी-से मोगरे के दो-तीन फूल तोड़े और बोला, "नीचे झकिए, मैं आपके जूड़े में लगाऊँगा।"

हँसती हुई दीपा आंटी झुक गईं, “लगाना आता भी है ?"

“और नहीं तो क्या, ममी के बालों में रोज़ मैं ही तो फूल लगाता हूँ। यह सब पौधे भी तो मैंने ही लगाए हैं।" अपने पौधों की बात करते समय बंटी के मन में उत्साह और गर्व जैसे छलका पड़ता है।

बंटी ला-लाकर सबको खिला रहा है। मना करने पर मनुहार भी करता है... “एक तो लीजिए...ज़रा-सी और...यह गरमवाली टिकिया..." सब लोग खाने और बतियाने में समान रूप से जुटी हुई हैं।

कितना बोलती हैं ये सब लोग ? जब से आई हैं लगातार चकर-चकर किए जा रही हैं। लड़कियों को कैसे चुप रखती होंगी ? अच्छा, उनके स्कूल के सर लोग भी जब आपस में मिलकर बैठते होंगे तो इस तरह बातें करते होंगे ? बच्चों को तो सब लोग कैसा डाँटते हैं-चुप रहो-शोर मत करो। क्या क्लास को भाजी-मार्केट बना रखा है ?

उसने कभी भाजी-मार्केट देखा नहीं...शायद बहत शोर की जगह होती होगी ! जितना शोर यहाँ हो रहा है, उससे भी ज़्यादा ?

“भई बंटी तो बहुत समझदार हो गया है।"

"एकदम राजा बेटा की तरह काम कर रहा है।"

"हमारी पिंकी तो लड़की है। पर एक भी काम तो करवा लो ज़रा। एक बात कहो कि दस जवाब हाज़िर हैं।"

“अरे मिसेज़ बत्रा का बेटा है आख़िर। होशियार नहीं होगा।" मोटी मिसेज़ सक्सेना बोलीं।

हूँ, मक्खनबाज़ कहीं की। वह जानता है, कोई उसकी तारीफ़ नहीं कर रहीं, सब ममी को मक्खन लगा रही हैं। एक बार कॉलेज गया था तो यही मोटी बड़े गाल सहला-सहलाकर कहती रहीं-“हाऊ स्वीट, जानती हो कितना इंटेलिजेंट है यह ?” और जैसे ही वह पीछे मुड़ा धीरे से बोलीं-अरे मिसेज़ बत्रा ने बिगाड़कर धूल कर रखा है, इतना जिददी और सिर-चढ़ा लड़का है कि बस। प्रिंसिपल का लड़का है सो कोई कुछ कहता नहीं-मोटी चापलूस कहीं की। माथे पर बिंदी इतनी बड़ी लगाएँगी जैसे पैसा ही चिपका लिया हो। बस, एक दीपा आंटी अच्छी हैं, जो न कभी इस तरह की तारीफ़ करती हैं न बुराई। मौक़ा मिले तो उसके साथ खेलती भी हैं।

चाय समाप्त हुई तो सब लोग बाहर के कमरे में आ गईं। वह दीपा आंटी की कुर्सी पर ही बैठ गया। उनसे सटकर, एक तरह से उन पर लदकर। ममी ने पास के रैक पर से फ़ाइल उठाई, बीच की मेज़ अपनी तरफ खींची और ढेर सारे काग़ज़ फैला लिए।

“दीपा आंटी, आप गाना नहीं सुनाएँगी ?"

"देखो बच्चा, ममी अब मीटिंग कर रही हैं, समझे ?" लाड़ में वे उसे हमेशा बच्चा ही कहती हैं।

'ममी, हम दीपा आंटी का गाना सुनेंगे, आंटी को गाना सुनाना ही होगा।" और वह पूरी तरह दीपा आंटी की गोद में ही लद गया, कुछ इस विश्वास के साथ कि ममी उसकी बात टाल ही नहीं सकती हैं। इतना काम उसने आज किया है, अब तो वैसे भी उसका अधिकार हो गया है।

"बंटी बेटा, अब हम लोग ज़रा काम की बात करेंगे, कॉलेज की; तुम बाहर जाकर खेलो तो !"

ममी की बात बंटी को जैसे कहीं से चीर गई। एक क्षण वह ममी को इस तरह देखता रहा जैसे विश्वास नहीं कर पा रहा हो कि ममी ने उसे ही बाहर जाने को कहा है।

फिर धीरे से उठा और बाहर आ गया, अपमानित-सा, आहत-सा। तो उसकी इच्छा से भी ज़्यादा ज़रूरी काम ममी के पास है। कॉलेज की बात कॉलेज में कर लेती, घर में तो कम से कम उसकी बात ही माननी चाहिए। वह तो कब से सोच रहा था कि शाम को दीपा आंटी का गाना सुनेगा फिर अपनी कविताएँ सुनाएगा, चुटकले सुनाएगा, पहेली पूछेगा। ऐसी-ऐसी पहेलियाँ उसे आती हैं कि कोई बता ही नहीं सकता। लड़कियों को पढ़ाना आसान है, पहेली क्या हर कोई बता सकता है ? पर अब कुछ नहीं...ममी को ऐसे तो नहीं करना चाहिए था न ? और न चाहते हुए भी ममी को लेकर जाने कितना-कितना गुस्सा मन में उफनने लगा।

पर तभी सारे गुस्से और दुख को ठेलती हई समझदारी आई-ममी प्रिंसिपल हैं, कितने ज़रूरी-ज़रूरी काम उनको रहते हैं, उसे इस तरह गुस्सा नहीं होना चाहिए। कुछ नहीं, दो महीने से ममी सारे दिन घर जो रहती थीं, सो वह कॉलेज की, कॉलेज के काम की बात भूल ही गया था इसीलिए तो गुस्सा भी आ गया वरना तो इसमें गुस्से की कोई बात ही नहीं है। कॉलेज खुल गया है तो कॉलेज का काम भी होगा ही। टीटू के पापा नहीं ऑफ़िस की फ़ाइलें लेकर घर में बैठे रहते हैं। फिर उस कमरे में कोई घुस तो जाएँ देखें ? ऐसा फटकारते हैं कि बस ! ममी ने तो कितने प्यार से कहा। उसके पापा भी फ़ाइलें लेकर आते होंगे ?

खट् से उँगलियों का क्रास बन गया। फिर भी कहीं एक धुंधली-सी तसवीर उभर ही आई...फ़ाइलों में डूबे हुए पापा।

“नहीं-नहीं...” उसने अपने मन को समझाया।

सब लोगों को विदा करके ममी जल्दी से तौलिया लेकर बाथरूम में घुस गईं।

अब वह ममी के साथ खेलेगा। फिर रात में कहानी सुनेगा, खुब लंबीवाली। आज कितना काम किया है उसने। ममी जब कॉलेज का काम करने लगीं तो बाहर भी आ गया। अब न कॉलेज है न कॉलेज का काम। अब ममी फिर उसकी हो गई हैं, बिलकुल उसकी। पता नहीं क्यों ममी और उसके बीच में कोई भी आता है तो उसे अच्छा नहीं लगता।

कॉलेज के दिनों में तो वैसे भी शाम को ही ममी उसकी हुआ करती हैं। बालों की ढीली-ढीली चोटी और मुलायमवाला चेहरा।

ममी मँह पोछती हई कमरे में आईं।

“लो, बातों ही बातों में टाइम का कुछ अंदाज़ ही नहीं रहा। सात बजे पहुँचना था और पौने सात तो यहीं बज गए।"

"तुम कहीं जा रही हो ममी ?” अपने को रोकते-रोकते भी बंटी रुआँसा हो आया।

“बेटे, एक बहुत ज़रूरी काम से जाना है, बहुत ही ज़रूरी।" ममी के सधे हुए हाथ खटाखट जूड़े में पिनें खोंसते जा रहे हैं।

“वाह ! मैं अभी भी अकेला रहूँ। आज तो सारे दिन बिलकुल अकेला रहा हूँ ममी।" गुस्से में भरा बंटी का स्वर भर्रा गया।

एक क्षण को ममी का हाथ जहाँ का तहाँ रुक गया। बंटी की ओर देखा, बहुत प्यार से। फिर अपने पास खींचकर दुलारती हुई बोलीं, 'मेरा राजा बेटा, अकेला क्यों रहेगा ? टीटू को बुला लेना या उसके यहाँ चले जाना। बस थोड़ी देर में तो आ ही जाऊँगी।"

“टीटू बुलाने से भी आता है इस समय कभी ? इस समय वहाँ जाओ तो उसकी अम्मा..."

“न हो तो साथ ले जाओ न बहूजी।" दरवाजे पर बैठी सुपारी काटती हुई फूफी ने कहा। "सवेरे से तो अकेला डाँव-डाँव डोल रहा है। आपके साथ थोड़ा टहल आएगा तो मन बहल जाएगा बच्चे का।"

बंटी ने बड़ी आशा-भरी नज़र से देखा। शायद फूफी की सिफारिश ही काम आ जाए।

“कहा न, मैं काम से जा रही हूँ फूफी। वहाँ कहाँ ले जाऊँगी ?' जल्दी-जल्दी साड़ी पहनते हुए ममी ने कहा।

“काम से जा रही हो तो क्या हुआ ? बच्चा होगा तो क्या फेंक जाएँगे ? दो मिनट में तैयार किए देती हूँ।"

"नहीं, बंटी मेरा खूब समझदार है। मेरे काम के बीच में वह क्यों जाएगा ? एक साल से तो कभी कॉलेज भी नहीं जाता। वह क्या समझता नहीं कि बड़ों के बीच में नहीं जाना चाहिए।"

फिर गाल पर एक ज़ोर का किस्सू देकर पूछा, “है न बेटा समझदार !" ममी चली गईं। लोहे के फाटक पर खड़ा-खड़ा बंटी जाती हुई ममी को देखता रहा, आँखों में भर आए आँसुओं को भीतर ही भीतर पीता रहा।

और तब पहली बार बंटी ने महसूस किया कि समझदार बनना कितना मुश्किल है। ममी की नज़रों में समझदार होकर रहने का मतलब है, कुछ भी मत कहो, कुछ भी मत करो। दूध उसे पसंद नहीं, फिर भी बिना किए पी लेता है। जो खाने को दो, खा लेता है। जो कुछ करने को कहा जाता है, कर लेता है।

पर ममी भी तो बड़ी हैं, समझदार हैं। उन्हें भी तो वही सब करना चाहिए तो बंटी चाहता है। नहीं क्या ?

अनमना-सा बंटी भीतर आया। बरामदे में ही फूफी ज़मीन पर पसरी पड़ी है।

"ऐसे क्यों लेटी हो फूफी, क्या हो गया।"

“अरे, हम थक गए भय्या, ज़रा कमर सीधी कर लें तो बरतन धोकर चौका साफ़ करें।"

बंटी को लगा जैसे ममी फूफी को थकाकर ख़ुद चली गईं। फूफी, फूफी की थकान उसे कहीं अपने बहुत करीब लगी।

“मैं पैर से कमर दबा दूँ ? अभी ठीक हो जाएगी।"

फूफी उठकर बैठ गई। एकदम बंटी को देखते हुए बोली, “अरे, तुम्हें हो क्या गया है बंटी भय्या ? और सुनो, तुम चले काहे नहीं गए ममी के साथ ? पहले तो कभी अइसे छोड़कर जाने की बात करतीं तो जाने देते तुम ? सारे आँगन में लोट-लोटकर अपना और ममी का जी हलकान कर देते। यह उमिर से पहले बूढ़ा होना हमें अच्छा नहीं लगता तुम्हारा, समझे ? जाओ, खेलो-कूदो। सेवा-चाकरी करने को तुम्हीं रह गए हो हमारी ?"

तो एकाएक बड़ी ज़ोर से मन हआ बंटी का कि सारे आँगन में लोट-लोटकर रोए-खूब रोए बिलकुल पहले की तरह और जब तक ममी न आ जाएँ रोता ही रहे। ममी चुप करा-कराकर थक जाएँ, तब भी चुप न हो।

रात में जब ममी डॉक्टर जोशी की कार से उतरी तो बंटी लोहे के फाटक पर खड़ा मन ही मन कहीं रो ही रहा था।

"कैसे हो बंटी ?" कार में बैठे-बैठे ही डॉक्टर साहब ने पूछा।

"मैं बिलकुल ठीक हूँ। मुझे तो कुछ भी नहीं हुआ।" उसने कुछ इस भाव से कहा मानो पूछ रहा हो, “आप यहाँ क्यों आए ?" डॉक्टर साहब की लगाई हुई सुइयों का दर्द और डर मन में फिर ताज़ा होकर उभर आया।

अँधेरे में ही ममी को देखा। वे भी बिलकुल ठीक लगीं। तब ? और रात में जब वह ममी की बगल में लेटा तो बराबर प्रतीक्षा करता रहा कि ममी कुछ कहेंगी। उसने आज जितना काम किया उसके बारे में ही। पर ममी तो इतनी चुप हैं मानो उन्हें पता ही न हो कि बंटी भी उनके पास लेटा है।

ममी उसके पास लेटी बाल सहला रही हैं। पर उसे लग रहा है कि ममी उसके बाल नहीं सहला रहीं। ममी उसे देख रही हैं, पर नहीं, ममी उसे देख भी नहीं रहीं।

"ममी !"

"हूँ!"

"तुम तो बहुत ही जरूरी काम से गई थीं, फिर..."

"था रे, एक काम।"

ममी तो शायद उससे बोल भी नहीं रहीं। और तब बंटी का मन हुआ कि फूट-फूटकर रो पड़े।

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